केला सबसे ज्यादा बिकने वाला फल है. इसका फल हर मौसम में पाया जाता है. केला की खेती भारत में लगभग सभी हिस्सों में की जा रही है. लेकिन सबसे ज्यादा इसे महाराष्ट्र में उगाया जाता है. केला का इस्तेमाल फल के रूप में खाने के साथ साथ जूस और आटा जैसी काफी चीजों को बनाने में किया जाता है. जबकि इसके कच्चे फलों का इस्तेमाल सब्जी बनाने में किया जाता है. केला की मांग को देखते हुए अब काफी किसान भाई इसकी खेती करने लगे हैं. इसकी खेती किसानों के लिए काफी लाभदायक होती है.
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लेकिन केला के पौधों में कई तरह के कीट और जीवाणु जनित रोग देखने को मिलते हैं. जो पौधों की पैदावार को काफी ज्यादा प्रभावित करते हैं. और इन रोगों के बढ़ने की वजह से कभी कभी सम्पूर्ण फसल ही नष्ट हो जाती है. इसके अलावा इसके पौधों पर प्राकृतिक आपदाओं का भी प्रभाव देखने को मिलता हैं. जिससे सम्पूर्ण फसल तक नष्ट हो जाती हैं.
आज हम आपको केला के पौधों पर दिखाई देने वाले रोग और उनकी रोकथाम के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
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तना छेदक कीट
केला के पौधों में तना छेदक रोग का प्रभाव पौध रोपाई के लगभग चार से पांच महीने बाद दिखाई देता है. जो कीट के माध्यम से पौधों में फैलता हैं. इस रोग के कीट पौधे के तने में छेद कर उनमें सुरंग बना देते हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे की पत्तियां पीली दिखाई देने लगती है. और पौधों के तने से गोंदिया पदार्थ का उत्सर्जन होने लगता है. रोग के अधिक प्रभावित होने पर इसके कीट पौधे के तनों में लम्बी सुरंग बना देते हैं. और पौधों से तेज गंध आने लगती है. जिससे पौधे का तना सड़कर गिर जाता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की सुखी हुई पत्तियां और अनावश्यक खरपतवार को निकाल देना चाहिए.
- पौधे के घड को काटने के बाद पौधे को जमीन की सतह के पास से काटकर उन पर इमिडाक्लोरोप्रिड की उचित मात्रा को पानी में मिलाकर उसका छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
- इसके अलावा पौधों के तने पर रोपाई के पांचवें महीने में क्लोरोपायरीफॉस की उचित मात्रा का लेप कर देना चाहिए.
पनामा रोग
केला के पौधों में पनामा रोग फफूंद की वजह से फैलता हैं. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियां पीली पड़कर लटक जाती हैं. रोग के बढ़ने पर पत्तियों का रंग भूरा दिखाई देने लगता हैं. पर पौधे के उतकों का रंग लाल, काला और भूरा दिखाई देने लगता हैं. जिसके कुछ दिन बाद उत्तक सड़ने लग जाते हैं. पौधों में यह रोग अधिक तापमान होने पर दिखाई देता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर ट्राइकोडर्मा विरीड का छिडकाव करना चाहिए.
- इस रोग से अधिक प्रभावित पौधे को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए. और मिट्टी में सुडोनोमास दवा का छिडकाव करना चाहिए.
केटर पिलर सुंडी (पत्ती खाने वाले कीट)
केला के पौधों में इस रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान कभी भी दिखाई दे सकता है. इस रोग की सुंडी पौधे के पत्तों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाती है. इसकी सुंडी ज्यादातर नई पत्तियों को खाकर पौधों को नुक्सान पहुँचाती हैं. जिससे पौधे विकास करना बंद कर देते है. इसकी सुंडी बिना फैली पत्तियों में गोल छेद बना देती है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में 8 से 10 फेरोमोन ट्रेप लगना दें. ताकि इसके कीटों का प्रभाव कम हो जाएँ.
- फसल में रोग दिखाई देने पर ट्राइजोफॉस की उचित मात्रा मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
- इसके कीट पौधे की पत्तियों में अंडे देते हैं. जिनसे इसके लार्वा का जन्म होता है. जिन्हें पत्तियों से निकालकर नष्ट कर देना चाहिए.
सिगाटोका पत्ती धब्बा रोग
केला के पौधों लगने वाला सिगाटोका पत्ती धब्बा रोग फफूंद की वजह से दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर काले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. जिनका आकार रोग बढ़ने पर बढ़ जाता है. और पत्तियों का रंग पीला दिखाई देता है. जिन पर भूरे रंग की धारियां बन जाती हैं. और पत्तियों के किनारे काले पड़ जाते हैं. जिससे पौधों पर बनने वाले गुच्छे अनियमित रूप से पकते हैं. पौधों पर इस रोग का प्रभाव अधिक नमी और उच्च तापमान होने पर अधिक दिखाई देता हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर पहला छिड़काव 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम और 8 मिलीलीटर बनोल ऑयल को प्रति लीटर की दर से पानी में मिलाकर करना चाहिए.
- पहले छिडकाव के लगभग 15 से 20 दिन बाद कार्बेन्डाजिम की जगह सामान मात्रा में प्रोपीकोनाजोल को मिलाकर पौधों पर छिडकना चाहिए.
- इसके अलावा रोग दिखाई देने के बाद ट्राइकोडर्मा एट्रोविरीड की उचित मात्रा का छिडकाव भी रोकथाम के लिए लाभदायक होता हैं.
- रोग ग्रस्त पत्तियों की एकत्रित कर उन्हें नष्ट कर दें.
- फफूंद को बढ़ने से रोकने के लिए खेत में यूरिया की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
माहू
केला के पौधों पर लगने वाले यह रोग कीट के माध्यम से फैलता है. इस रोग के कीटों का आकार काफी छोटा और रंग लाल, हरा, पीला और काला दिखाई देता है. इसके कीट पौधों पर समूह के रूप में आक्रमण कर पौधों के कोमल भागों का रस चूसते हैं. जिससे पौधों की पत्तियां का रंग पीला पड़ने लगता है. और पौधों का विकास रुक जाता है. इस रोग के लगने से पौधों पर काली फफूंद जमा हो जाती है. जो पौधों पर वायरस फैलाने का काम करती है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास य फास्फोमिडान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
- इसके अलावा पौधों पर रोग दिखाई देने के तुरत बाद नीम से तैयार जैव कीटनाशकों मेथाइल डेमेटान की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
पत्ती गुच्छा रोग
केला के पौधों में लगने वाला ये एक वायरस जनित रोग है. जिसका प्रभाव पौधों पर शुरुआती अवस्था में अधिक दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों का आकार काफी छोटा दिखाई देने लगता है. और सभी पत्तियां एक गुच्छे के रूप में दिखाई देती हैं. इस रोग से ग्रसित पौधों पर फल नही लगते.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर इमीडाक्लोप्रिड की उचित मात्रा का छिडकाव रोग दिखाई देने के तुरंत बाद करना चाहिए.
- इसके अलावा रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़कर तुरंत नष्ट कर दें.
केला बिटल
केला के पौधों में लगने वाला ये रोग कीट की वजह से दिखाई देता है. इस रोग के लगने से केला के फल काफी प्रभावित होते हैं. इस रोग के कीट पौधे की पत्तियों और फलों को खाकर खराब कर देते हैं. जिससे केला के फलों पर काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. और फलों का स्वाद भी काफी बदल जाता हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए रोगग्रस्त पौधों पर डाईमिथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
- इसके अलावा पौधों पर मिट्टी के तेल को राख में मिलाकर उसे पौधों पर छिड़क दें.
मोको रोग
केला के पौधों में मोको रोग जीवाणु के माध्यम से फैलता हैं. इस रोग के लगने से पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों का रंग पर्णवृंत के पास से पीला पड़ जाता है. जिसके बाद पत्ती पर्णवृंत के पास से टूट जाती हैं. रोग के बढ़ने पर पौधे की सभी पत्तियां सूख जाती है. रोग लगे पौधे के उत्तक को काटकर देखने पर उनसे हल्के पीले रंग का रस निकलने लगता है. इस रोग से ग्रसित पौधे बहुत जल्द सूख जाते हैं. पौधों पर इस रोग का प्रभाव किसी भी समय दिखाई दे सकता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जल निकासी का प्रबंधन अच्छे से करना चाहिए.
- शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर खेत को तेज़ धूप लगने के लिए कुछ समय तक खुला छोड़ देना चाहिए.
- इसके अलावा फसल की कटाई छटाई के दौरान काम लिए जाने वाले ओजारों को फार्मलीन या फिनोल की उचित मात्रा के घोल में आधे घंटे तक उपचारित कर लेना चाहिए.
- रोग ग्रस्त पौधे को उखाड़कर पूरी तरह नष्ट कर देना चाहिए.
जड़ गलन
केला के पौधों में जड़ गलन रोग फफूंद की वजह से दिखाई देता है. पौधों में इस रोग का प्रभाव खेत में अधिक नमी और जलभराव की वजह से दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे की पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती हैं. रोग के बढ़ने पर सम्पूर्ण पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में खेती की तैयारी के वक्त खेत की गहरी जुताई कर उसे कुछ समय के लिए खुला छोड़ दें.
- इसके कंदों की रोपाई से पहले उन्हें कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए.
- खेत में जलभराव ना होने दें.
- इसके अलावा खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड और स्ट्रेप्टोसाइक्लिन की उचित मात्रा को पानी में मिलाकर पौधों की जड़ों में ड्रेचिग करनी चाहिए.
एन्थ्रेक्नोज
केला के पौधों में एन्थ्रेक्नोज रोग फफूंद की वजह से फैलता है. केले के पौधों में यह रोग पौधों के विकास के दौरान दिखाई देता है. इस रोग के लगने से पौधे की पत्ती, फूल और फल सभी पर काले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. केला के पौधों पर इस रोग का प्रभाव अधिक तापमान और आद्रता की वजह से दिखाई देता है. रोग के बढ़ने से फलों पर धब्बों का आकार बढ़ जाता हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर प्रोक्लोराक्स या कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
- इसके अलावा फलों की तुड़ाई पूरी तरह से पकने से पहले ही कर लेनी चाहिए.
- इसके फलों के डंठल और गुच्छों पर काले धब्बे बन जाते हैं. जिससे इसके फल सड़ने लगते हैं. जिनकी रोकथाम के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
केले का थ्रिप्स
केला के पौधों में थ्रिप्स रोग का प्रभाव पौधों पर फल बनने के दौरान देखने को मिलता हैं. जो पौधों में कीट के माध्यम से फैलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव अधिक बढ़ने से केला की पैदावार को काफी नुक्सान पहुँचता हैं. इस रोग के लगने से केला के फलों पर भूरे काले और बदरंग धब्बे बन जाते हैं. जिनका आकार काफी छोटा दिखाई देता है. लेकिन इसका प्रभाव केला के गुदो पर नही पड़ता. इसके फलों के बदरंग दिखाई देने की वजह से उनका बाजार भाव भी कम मिलता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों बने फलों के बंच को सूती कपड़े से बांधकर रोगग्रस्त होने से बचाया जा सकता है.
- इसके अलावा खेत में पीली या नीली चिपचिप टेप लगानी चाहिए.
- इसके अलावा रोग दिखाई देने पर पौधों पर मेटारिजियम या मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा का छिडकाव करना चहिए.
लेस विंग बग
केला के पौधों में यह रोग कीट की वजह से उत्पन्न होता है. जिसका सबसे ज्यादा असर पौधे की पत्तियों पर देखने को मिलता है.. इस रोग का किट पत्तियों की निचली सतह पर रहकर पत्तियों का रस चूसते हैं. जिससे पौधे की पत्तियों का रंग पीला दिखाई देने लगता है. रोग के बढ़ने पर पत्तियां पीली होकर सूखने लगती हैं. और पौधे विकास करना बंद कर देते हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के तेल का छिडकाव करना चाहिये.
- इसके अलावा पौधों पर रोग दिखाई देने के बाद मोनोक्रोटोफास का छिडकाव करना भी लाभकारी होता है.
प्रकंद छेदक
केला के पौधों में यह रोग कीट की वजह से फैलता हैं. जिसका प्रभाव पौधों पर शुरूआती अवस्था में अधिक देखने को मिलता है. इस रोग के कीट की इल्ली केला के प्रकंदों में छेद कर देती हैं. जिससे प्रकंदों के छिद्रों से कुछ दिन बाद बदबू आने लगती है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर फास्फोमिडान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
केला में प्रमुख रूप से इन सभी रोगों का प्रभाव देखने को मिलता हैं. जिनकी रोकथाम कर किसान भाई अपनी फसल को खराब होने से बचा सकता हैं.