अलसी का पौधा व्यापारिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है. जिसको तीसी के नाम से भी जाना जाता है. अलसी की खेती रेशेदार और तिलहन फसलों के रूप में की जाती है. इसके बीज में तेल की मात्रा बहुत ज्यादा पाई जाती है. आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अलसी के पौधे का अपना एक ख़ास योगदान है. इसके पौधे के तने से रेशे निकाले जाते हैं. इसके रेशों का इस्तेमाल मोटे कपड़े, डोरी, रस्सी और टाट बनाने में किया जाता है. लिनेन का कपड़ा भी इसी से बनाया जाता हुई.
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इसके बीजों से निकलने वाले तेल में एक ख़ास गुण पाया जाता है. इसका तेल हवा के सम्पर्क में आने के बाद तेज़ी से सूखकर कठोर हो जाता है. और जब इसको किसी विशेष रसायनों में मिलाया जाता है तो ये क्रिया बहुत जल्द पूर्ण हो जाती है. इस कारण इसके बीजों से निकलने वाले तेल का इस्तेमाल वार्निश, रंग, साबुन, रोगन और पेन्ट बनाने में किया जाता है.
अलसी के पौधे को समशीतोष्ण जलवायु का पौधा कहा जाता है. विश्व भर में भारत इसका चौथा बड़ा उत्पादक देश है. इसका पौधा दो से ढाई फिट लम्बा होता है. इसकी खेती के लिए उचित जल निकासी वाली सामान्य उपजाऊ जमीन उपयुक्त होती है. इसके पौधे को बारिश की आवश्यकता काफी कम होती है.
अगर आप भी इसकी खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
अलसी की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली काली चिकनी और दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. इसकी खेती के लिए जल भराव वाली मिट्टी उपयुक्त नही होती. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
अलसी की खेती के लिए ठंडी और शुष्क जलवायु उपयुक्त होती है. भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है. इसकी खेती के लिए अधिक बारिश की भी जरूरत नही होती है. जिस जगह 40 से 50 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है, उस जगह इसकी खेती आसानी से की जा सकती है. जब इसका पौधा विकास करता है, उस वक्त अधिक बारिश या बादलों के बने रहने पर इसकी पैदावार को नुक्सान पहुँचता है.
इसकी खेती के लिए शुरुआत से लेकर विकास करने तक सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है. लेकिन जब इसके पौधे पर बीज बनने शुरू होते हैं, तब इसके पौधे को 15 से 20 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है.
उन्नत किस्में
अलसी की कई सारी किस्में मौजूद हैं. इन किस्मों को बीजों में पाई जाने वाली तेल की मात्रा, सिंचाई वाली जगह और उनके उत्पादन को ध्यान में रखते हुए इन्हें तैयार किया गया है.
टी 397
अलसी की इस किस्म के पौधे दो फिट से ज्यादा लम्बाई के होते हैं. इस किस्म के पौधे पर शाखाएं ज्यादा निकलती है. इसके फूलों का रंग नीला होता है. इसके बीजों में तेल की मात्रा 44 प्रतिशत पाई जाती है. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों जगह आसानी से उगाया जा सकता है.
जे. एल. एस. – 66
अलसी की इस किस्म को असिंचित जगहों के लिए तैयार किया गया है. इसके पौधे की लम्बाई लगभग 2 फिट की होती है. जो बीज रोपाई के लगभग 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 12 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इसके पौधों को चूर्णिल आसिता, उकठा और अंगमारी जैसे रोग नही लगते.
आर एल सी- 6
इस किस्म के पौधों पर उकठा और अंगमारी का रोग नही लगता. इस किस्म के बीजों में तेल तेल की मात्रा 42 प्रतिशत पाई जाती है. जो आकार में छोटे दिखाई देते हैं. इस किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों जगह पर उगाया जा सकता है. जिसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन असिंचित जगहों पर 10 क्विंटल और सिंचित जगहों पर 13 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 115 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं.
आर एल – 933
इस किस्म को कई जगहों पर मीरा के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के पौधे पर उखटा और रोली जैसे रोग नही लगते. इस किस्म के पौधों की लम्बाई सामान्य रूप से दो फिट के आसपास पाई जाती हैं. जो बीज रोपाई के 130 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत तक पाई जाती है. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 16 क्विंटल के आसपास जाता है.
आर एल 914
इस किस्म को सिंचित जगहों पर देरी से उगाने के लिए तैयार किया गया है. इसके पौधे 2 फिट से ज्यादा लम्बाई के होते हैं. जिन पर नीले रंग के फूल आते हैं. इस किस्म के पौधों पर रोली, उखटा और झुलसा का रोग नही लगता. इसके बीजों में तेल की मात्रा 40 से 42 प्रतिशत तक पाई जाती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 120 से 130 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 18 क्विंटल के आसपास होती है.
जवाहर 23
इस किस्म के पौधों की लम्बाई दो फिट के आसपास पाई जाती है. इस किस्म के पौधे से निकलने वाली शखाएं उपर से पीली दिखाई देती हैं. सम्पूर्ण पौधे पर इसके फूल एक साथ आते हैं, जिनका रंग सफ़ेद होता है. इससे प्राप्त होने वाले बीजों में तेल की मात्रा 43 प्रतिशत पाई जाती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के बाद 120 से 125 दिन में पककर तैयार होते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.
इसके अलावा और भी बहुत सारी किस्में हैं जिन्हें कई अलग अलग जगहों पर उगाया जाता हैं. जिनमें जवाहर अलसी – 552, जवाहर अलसी – 7, एलजी 185, पूसा 2, पी के डी एल 41, पी के डी एल 42, जे. एल. एस. – 67 और जे. एल. एस. – 27 जैसी कई किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
इसकी खेती की लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई करने वाले हलों से जुताई कर मिट्टी को अलट पलट कर दें. उसके बाद खेत को कुछ दिन खुला छोड़ दें. लगभग 8 से 10 दिन खुला छोड़कर खेत की फिर से जुताई कर दें. अगर हो सके तो खेत की दूसरी बार जुताई से पहले 10 गाडी प्रति एकड़ के हिसाब से पुरानी गोबर की खाद को खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें. उसके बाद खेत में पानी छोड़कर पलेव कर दें. पलेव करने के दो से तीन दिन बाद खेत में रेजर चलाकर उसकी जुताई कर दें. उसके बाद खेत में कल्टीवेटर और पाटा चलाकर खेत को समतल बना दें.
बीज रोपाई का तरीका और टाइम
अलसी की खेती में बीज की रोपाई छिडकाव और ड्रिल विधि के माध्यम से की जाती है. ड्रिल विधि से इसकी बुवाई समतल खेत में मशीन के माध्यम से की जाती है. जिसमें इसके बीज की रोपाई पंक्तियों में की जाती है. प्रत्येक पंक्तियों के बीच लगभग एक फिट की दूरी होती है. और पंक्तियों में पौधों के बीच 5 से 7 सेंटीमीटर की दूरी रखी जाती है.
छिडकाव विधि से इसकी रोपाई बाजरे और गेहूँ की तरह की जाती है. छिडकाव विधि में पहले बीज को समतल किये हुए खेत में छिड़क दिया जाता है. उसके बाद कल्टीवेटर से दो बार हल्की जुताई कर बीज को मिट्टी में अच्छे से मिला देते हैं.
छिडकाव विधि से अलसी की खेती धान की फसल के साथ की जाती है. जिसे उतेरा विधि के नाम से जाना जाता है. उतेरा विधि से इसकी खेती धान के खेत में मौजूद नमी को उपयोग में लेने के लिए की जाती है. इस विधि में अलसी के बीजों को धान की खड़ी फसल में छिडक दिया जाता है. जिससे धन की कटाई के वक्त तक इसके बीज अच्छे से अंकुरित हो जाते हैं. जिसके बाद धान के पौधों को काटकर अलग कर लिया जाता है. इस विधि से इसके पौधों को सिंचाई की आवश्यकता नही होती.
ड्रिल विधि से रोपाई के लिए अलसी का 25 से 30 किलो बीज प्रति हेक्टेयर के लिए काफी होता है. जबकि छिडकाव विधि के लिए 40 से 45 किलो बीज की जरूरत पड़ती है. इसके बीज को खेत में लगाने से पहले उसे उपचारित कर लेना चाहिए. बीज को उपचारित करने के लिए कार्बेन्डाजिम या ट्राइकोडर्मा विरीडी की उचित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए.
अलसी की खेती रबी के मौसम में की जाती है. रबी के मौसम में इसके बीज की रोपाई सिंचित जगहों पर नवम्बर माह में और असिंचित जगहों पर अक्टूबर माह में की जाती है. जबकि धान की फसल के साथ करने के लिए फसल कटाई के लगभग 10 दिन पहले इसकी रोपाई करनी चाहिए.
पौधों की सिंचाई
अलसी के पौधे को पानी की आवश्यकता नही होती. इस कारण इसके पौधे की दो से तीन सिंचाई काफी होती है. इसकी पहली सिंचाई बीज रोपाई के लगभग एक महीने बाद करनी चाहिए. उसके बाद दूसरी सिंचाई जब पौधों पर फूल खिलने लगे तब और तीसरी सिंचाई बीज बनने के दौरान करनी चाहिए.
उर्वरक की मात्रा
इसकी खेती के लिए शुरुआत में लगभग 10 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा एक बोरा एन.पी.के. को खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में डालकर मिट्टी में मिला देना चाहिए. सिंचित जगहों पर एन.पी.के. की लगभग 150 किलो मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
अलसी की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीकों से किया जाता है. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत में पेंडीमेथालिन 30 ई.सी. का छिडकाव करना चाहिए. इसका छिडकाव बीज रोपाई के तुरंत बाद एक या दो दिन में कर देना चाहिए.
प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण नीलाई गुड़ाई कर किया जाता है. इसकी पहली गुड़ाई बीज रोपाई के एक महीने बाद कर देनी चाहिए. जबकि दूसरी गुड़ाई उसके एक महीने बाद की जानी चाहिए.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
अलसी के पौधों में कई तरह की बीमारियाँ देखने को मिलती है. जिनका उचित समय रहते निदान करना जरूरी होता हैं.
गेरुआ
अलसी के पौधों पर लगने वाला ये रोग मेलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों के दोनों और चमकीला गेरुआ रंग दिखाई देती है. जो धीरे धीरे बड़ा होता हुआ पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर टेबुकोनाजोल की उचित मात्रा का पौधों पर छिडकाव करना चाहिए.
उकठा
पौधों पर ये रोग किसी भी अवस्था में लग सकता है. इस रोग के लक्ष्ण पौधे पर उपर से नीचे की तरफ देखने को मिलते हैं. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों के किनारे अंदर की और मुड़कर मुरझाने लगते हैं. जिनका रंग पीला दिखाई देता हैं. इस रोग के लगने पर पौधा जल्दी ही सुखकर नष्ट हो जाता है. इस रोग के बचाव के लिए पौधों पर ट्राइकोडर्मा की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
अल्टरनेरिया झुलसा
इस रोग का प्रकोप पौधों के सभी भागों पर देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर गहरे कत्थई रंग के गोल धब्बे बनने लगते हैं. यह रोग जमीन के पास से शुरू होकर पौधे के सम्पूर्ण भाग को प्रभावित करता है. इसका प्रकोप बढ़ने पर फलियों का रंग काला पड़ जाता है. जिससे फलियाँ नष्ट हो जाती है. इसका असर पैदावार पर देखने को मिलता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेन्कोजेब की उचित मात्रा का 15 दिनों के अंतराल में दो से तीन छिडकाव करें . इसके अलावा बीज की रोपाई के वक्त उसे थिरम से उपचारित कर बोना चाहिए.
भभूतिया रोग
इस रोग को चूर्णिल आसिता के नाम से भी जाना जाता है. पौधों पर ये रोग ज्यादातर बारिश के मौसम में अधिक समय तक आद्रता के बने रहने पर लगता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग का चूर्ण जमा हो जाता है. जिससे पौधे को सूर्य का प्रकाश अच्छे से नही मिल पाता है. और पौधे की वृद्धि रुक जाती है. जिससे पैदावार कम प्राप्त होती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर थायोफिनाइल मिथाइल का छिडकाव करना चाहिए.
फली मक्खी
अलसी के पौधों पर लगने वाला ये एक किट रोग है जो इसकी पैदावार को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. इस रोग के कीट अपने अंडों को फूलों की पंखुड़ियों में रखते हैं. जिससे उनमें बीज नही बनते. इस रोग की वजह से 70 प्रतिशत तक पैदावार नष्ट हो जाती है. इस रोग के कीट का रंग नारंगी होता है. जिसके पंख पारदर्शी होते हैं. इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर इमिडाक्लोप्रिड का छिडकाव करना चाहिए.
चने की इल्ली
चने की इल्ली का प्रकोप पौधों पर उनके विकास के वक्त देखने को मिलता है. इस रोग के छोटे कीट पौधे को कुरचकर खाते हैं. जबकि बड़े कीट पौधे फूल और फलियों को खाते हैं. जिसका असर पैदावार पर देखने को मिलता है. इस रोग की रोकथाम के लिया न्यूक्लियर पाली हैड्रोसिस विषाणु की 250 एल ई का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा इस रोग के प्राभव से बचने वाली किस्म को उगाना चाहिए.
फसल की कटाई और गहाई
अलसी की फसल लगभग 120 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है. इसकी कटाई जब पौधे पूरी तरह सुखकर तैयार हो जाएँ तब करनी चाहिए. इसके पौधों की कटाई जमीन के पास से करनी चाहिए. पौधों की कटाई के बाद उन्हें किसी एक स्थान पर रखकर उनसे बीजों को झाड़कर अलग कर लें.
बीजों को अलग करने के बाद इसके पौधों से रेशे निकाले जाते है. इसके लिए पौधे की शखाओं को हटाकर मुख्य तने को अलग कर लें. इन अलग किये हुए सभी भागों के अलग अलग बंडल बनाकर तैयार कर लें. तैयार किये गए बंडलों को पानी में सडाकर इनसे रेशे निकाले जाते हैं.
बंडलों को सडाने के लिए इनको दो से तीन दिन तक पानी में डुबोकर रखा जाता है. उसके बाद इनको पानी से निकालकर अच्छे से साफ़ पानी से धोया जाता है. पानी से धोने के बाद इन्हें सुखा दिया जाता है. बंडलों के सूखने के बाद इनकी मुगरी ( मोगरी ) से पिटाई की जाती है. जिससे तने का रेशों के अलावा शेष बचा भाग निकल जाता है. वर्तमान में इसकी कुटाई मशीन के माध्यम से भी की जा रही है.
पैदावार और लाभ
अलसी की अलग अलग किस्मों की पैदावार अलग अलग होती है. सिंचित जगहों पर इसके बीजों की प्रति हेक्टेयर औसतन पैदावार 15 क्विंटल से ज्यादा पाई जाती है. जबकि असिंचित जगहों पर इसकी पैदावार लगभग 10 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. और इसके पौधों से 38 प्रतिशत तक रेशे प्राप्त होते हैं. जिससे किसान भाइयों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है.