रामतिल की खेती कैसे करें

रामतिल की खेती तिलहन फसल के रूप में की जाती हैं. रामतिल को सरगुजा और जगनी के नाम से भी जाना जाता हैं. इसके दानो से निकलने वाले तेल का इस्तेमाल खाने और औषधियों के निर्माण में किया जाता हैं. इसके अलावा इसके तेल का इस्तेमाल साबुन, पेंट और वार्निश को बनाने में किया जाता हैं. तेल निकालने के बाद बाकी बची इसकी खली का इस्तेमाल पशुओं के चारे के रूप में भी किया जा सकता हैं. भारत में इसकी खेती मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा की जाती हैं. जिसे आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उगाया जाता हैं. इसके बीजों में तेल की मात्रा 45 प्रतिशत तक पाई जाती हैं. इसका पौधा सामान्य तिल के पौधे की तरह ही दिखाई देता हैं. इसके पौधे की लम्बाई एक से डेढ़ मीटर तक पाई जाती हैं. जिस पर पीले रंग के फूल दिखाई देती हैं.

रामतिल की खेती

रामतिल की खेती भूमि के लिए काफी महत्वपूर्ण मानी जाती हैं. क्योंकि इसके पौधे भूमि के कटाव को रोकते हैं. और भूमि की उर्वरक क्षमता को बढ़ाते हैं. इसकी खेती के लिए सामान्य मौसम को उपयुक्त माना जात हैं. इसके पौधे सर्दी और गर्मी दोनों मौसम में विकास कर सकते हैं. लेकिन इस दौरान उपज में अंतर देखने को मिलता हैं. इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण और शीतोष्ण जलवायु की जरूरत होती हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए. रामतिल की खेती सहफसली खेती के रूप में भी किसान भाई कर सकते हैं. जिससे उन्हें एक बार में दो फसलों का लाभ मिल जाता हैं.

अगर आप भी रामतिल की खेती के माध्यम से अच्छी कमाई करना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

रामतिल की खेती करने के लिए किसी ख़ास तरह की भूमि की जरूरत नही होती. रामतिल की खेती उपजाऊ और बंजर दोनों तरह की भूमि में आसानी से की जा सकती हैं. इसकी खेती के लिए भूमि में जलभराव नही होना चाहिए. क्योंकि जलभराव होने की स्थिति में इसके पौधे रोगग्रस्त होकर खराब हो जाते हैं. इसकी खेती हलकी क्षारीय और अम्लीय भूमि में आसानी से की जा सकती हैं. जबकि अच्छी पैदावार लेने के लिए भूमि का पी.एच. मान 5.8 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

रामतिल की खेती के लिए शीतोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु को उपयुक्त माना जाता हैं. रामतिल की खेती मुख्य रूप से खरीफ की फसल के रूप में की जाती हैं. इसकी खेती के लिए अधिक गर्मी और अधिक सर्दी दोनों ही उपयुक्त नही होती. अधिक गर्मी में इसके पौधे विकास करना बंद कर देते हैं. और सर्दियों में पड़ने वाला पाला इसकी पैदावार को काफी नुक्सान पहुँचाता हैं. इसकी खेती के लिए बारिश की भी ज्यादा जरूरत नही होती.

रामतिल की खेती के लिए शुरुआत में बीजों के अंकुरण के वक्त 22 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद इसके पौधों को विकास करने के लिए 23 से 27 डिग्री तापमान की जरूरत होती हैं. इसके पौधों को विकास के लिए गर्मियों में अधीकतम 30 और सर्दियों में न्यूनतम 15 डिग्री तापमान की जरूरत होती हैं.

उन्नत किस्में

रामतिल की कई उन्नत किस्में बाज़ार में उपलब्ध हैं. इन सभी किस्मों को उनके दानो में पाई जाने वाली तेल की मात्रा के आधार पर तैयार किया गया हैं. जिन्हें किसान भाई अधिक उत्पादन के लिए अलग अलग जगहों पर मौसम के आधार पर उगाता हैं.

उटकमंड

रामतिल की इस किस्म के पौधे देरी से पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 110 दिन बाद पककर तैयार होते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर कुल उत्पादन 6 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म को खरीफ की फसल के साथ जुलाई माह में उगाया जाता हैं. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक पाई जाती हैं.

जे एन एस 9

रामतिल की इस किस्म को साल 2006 में अनुसंधान केन्द्र, छिन्दवाड़ा ने तैयार किया था. रामतिल की इस किस्म को सम्पूर्ण भारत में उगाया जा सकता है. इसकी खेती के लिए खरीफ का मौसम सबसे उपयुक्त होता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 95 से 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर कुल उत्पादन 5 से 7 किवंटल तक पाया जाता हैं. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 39 प्रतिशत तक पाई जाती हैं.

बिरसा नाइजर – 1

रामतिल की इस किस्म को बिरसा कृषि विश्वविद्यालय काँके, राँची के द्वारा तैयार किया गया हैं. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 95 से 100 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर कुल उत्पादन 5 से 7 किवंटल के बीच पाया जाता हैं. जबकि अच्छी तरह खेती कर इस उत्पादन को बढ़ाया भी जा सकता हैं. इसके दानो का रंग हल्का काला होता हैं. इसके दानो में तेल की मात्रा 40.7 प्रतिशत तक पाई जाती हैं. इस किस्म के पौधे का तना हल्का गुलाबी दिखाई देता हैं.

जे एन सी 6

रामतिल की इस किस्म को अनुसंधान केन्द्र, छिन्दवाड़ा ने तैयार किया हैं. इस किस्म के पौधे सामान्य लम्बाई के पाए जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 6 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 38 प्रतिशत तक पाई जाती हैं. इसके दानो का रंग काला दिखाई देता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 100 से 105 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं.

पूजा

उन्नत किस्म का पौधा

रामतिल की इस किस्म को खेती सम्पूर्ण भारत में अलग अलग मौसम के आधार पर उगाने के लिए तैयार किया गया है. जिसको बिरसा कृषि विश्वविद्यालय काँके, राँची के द्वारा तैयार किया गया हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग तीन महीने बाद ही पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 39 प्रतिशत तक पाई जाती है. इस किस्म के दानो का रंग काला दिखाई देते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 7 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं.

गुजरात नाइजर – 1

रामतिल की इस किस्म को नवसारी कृषि विश्वविद्यालय, गुजरात ने कम समय में अधिक उत्पादन देने के लिए तैयार किया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग तीन महीने बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 7 किवंटल से ज्यादा पाया जाता हैं. इस किस्म के दानो में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक पाई जाती हैं. इसके दानो का रंग काला दिखाई देता हैं.

श्रीलेखा

रामतिल की ये एक बहुत जल्द पककर तैयार होने वाली किस्म हैं. इसके पौधे बीज रोपाई के लगभग 85 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसके दानो में तेल की मात्रा 41 प्रतिशत तक पाई जाती हैं. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 5 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं.

बिरसा नाइजर – 2

रामतिल की इस किस्म को तराई क्षेत्रों में धन की फसल के बाद उगाने के लिए तैयार किया गया हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के बाद लगभग 100 दिन के आसपास कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 8 किवंटल तक पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधों को सम्पूर्ण भारत में उगाया जा सकता हैं. इस किस्म पौधों से प्राप्त होने वाले दानो में तेल की मात्रा 39 से 42 प्रतिशत के बीच पाई जाती हैं.

पैयूर

रामतिल की इस किस्म को पर्वतीय प्रदेशों में अधिक उगाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 6 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इसके दानो का रंग काला होता हैं. जिनमे तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक पाई जाती हैं. इस किस्म के पौधे एक से सवा मीटर की ऊंचाई के होते हैं.

इनके अलावा और भी कुछ किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर किसान भाई अपनी सुविधा के अनुसार उगाते हैं. जिनमें जे एन सी – 1, आई जी पी 76, एन आर एस – 96 -1, नंबर 5 और बिरसा नाइजर – 3 जैसी और कई किस्में मौजूद हैं.

खेत की तैयारी

रामतिल की खेती के लिए मिट्टी का साफ़ और भुरभुरा होना जरूरी हैं. इसलिए इसकी खेती करने से पहले खेती की तैयारी के वक्त खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. गहरी जुताई करने के बाद खेत को कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दें. जिससे मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट सूर्य की तेज़ धूप से नष्ट हो जाए. उसके बाद खेत में पुरानी गोबर की खाद को को डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत की कल्टीवेटर में माध्यम से दो से तीन तिरछी जुताई कर देनी चाहिए.

गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चलाकर खेत का पलेव कर दें. पलेव करने के बाद जब भूमि की ऊपरी सतह हल्की सूखि हुई दिखाई दे तब खेत की फिर से जुताई कर उसमें रोटावेटर चला दें. इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी दिखाई देने लगती हैं. उसके बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल बना ले. ताकि बाद में बारिश के मौसम में खेत में जल भराव की समस्या का सामना ना करना पड़े.

बीज की मात्रा और उपचार

रामतिल की खेती में बीज की मात्रा बीज रोपाई के तरीके पर निर्भर करती हैं. ड्रिल के माध्यम से रोपाई के दौरान बीज की कम जरूरत होती हैं. जबकि छिडकाव के माध्यम से रोपाई के दौरान बीज की ज्यादा जरूरत होती हैं. दोनों विधि से प्रति हेक्टेयर बीज की रोपाई के लिए 5 से 7 किलो बीज काफी होता हैं. इसके बीज को खेत में लगाने से पहले उपचारित कर लेना चाहिए. बीज को उपचारित करने के लिए थीरम या कैप्टन दावा का इस्तेमाल करना चाहिए.

बीज रोपाई का तरीका और समय

रोपाई का तरीका

रामतिल के बीजों की रोपाई छिडकाव और ड्रील के माध्यम से की जाती हैं. दोनों तरीकों से रोपाई के दौरान इसके बीजों में महीन रोड़ी वाली बजरी या गोबर की छनी हुई खाद मिला लेनी चाहिए. क्योंकि इसके बीज काफी छोटे होते हैं. ड्रिल के माध्यम से रोपाई के दौरान इसके बीजों को कतारों में लगाया जाता हैं. कतारों में लगाने के दौरान प्रत्येक कतारों के बीच एक फिट की दूरी रखी जाती हैं. जबकि कतारों में बीजों के बीच लगभग 10 सेंटीमीटर की दूरी रहनी चाहिए. इसके अलावा बीजों की रोपाई कम से कम तीन सेंटीमीटर की गहराई में करनी चाहिए. इससे बीजों के अंकुरण में किसी तरह की परेशानी का सामना नही करना पड़ता.

जबकि छिडकाव विधि से रोपाई के दौरान इसके बीजों को समतल किये गए खेत में छिड़क दिया जाता है. उसके बाद कल्टीवेटर के पीछे हल्का पाटा बाँधकर खेत की दो बार हल्की जुताई कर देते हैं. इस तरह जुताई करने पर बीज जमीन में चेले जाते हैं. लेकिन इस तरह से रोपाई करने से पौधों के बीच असमान दूरी बन जाती हैं. इस कारण जब पौधा निकल आता हैं तब उनके बीच उचित दूरी बनाने के लिए पास पास वाले पौधों को उखाड़ दिया जाता हैं.

रामतिल की खेती मुख्य रूप से खरीफ की फसल के साथ उगाई जाती हैं. इस दौरान इसके बीजों की रोपाई जुलाई माह में शुरुआत में कर दी जाती हैं. लेकिन तराई वाले क्षेत्र और धान की फसल लेने के बाद रबी के मौसम में जो किसान भाई कोई भी फसल नही उगा पाता वहां पर इसके पौधों की रोपाई सितम्बर के आखिरी और अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में कर दी जाती हैं.

पौधों की सिंचाई

रामतिल के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नही होती हैं. बारिश के मौसम में उगाने के दौरान इसके पौधों को दो से तीन सिंचाई की ही जरूरत होती है. जो फसल के पकने के दौरान आखिरी में जब पौधे पर फलियाँ बन रही होती हैं तब की जाती हैं. जबकि तराई वाली जगहों पर या खरीफ के बाद उगाई जाने वाली फसलों की सिंचाई शुरुआत में लगभग एक महीने बाद करनी चाहिए. उसके बाद जब पौधा विकास करने लगे तब उसे 15 से 20 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. फसल के पकने के दौरान खेत में उचित नमी बनाए रखने से पैदावार अच्छी प्राप्त होती हैं.

उर्वरक की मात्रा

रामतिल के पौधों को उर्वरक की सामान्य जरूरत होती हैं. शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में लगभग 20 किलो नाइट्रोजन, 30 किलो फास्फोरस और 20 किलो पोटाश की मात्रा को खेत में आखरी जुताई के वक्त छिड़ककर मिट्टी में मिला दें.

उसके बाद जब पौधे विकास करने लगे तब 20 किलो यूरिया की मात्रा का छिडकाव पौधों में विकास और उन पर फलियों के बनने के दौरान करना चाहिए. इससे पौधे अच्छे से विकास करते हैं. और दानो का आकार भी अच्छा बनता हैं. जिससे पौधों से पैदावार ज्यादा प्राप्त होती हैं.

खरपतवार नियंत्रण

रामतिल की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीकों से किया जाता है. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण करने के लिए बीज की रोपाई के तुरंत बाद खेत में पेन्डिमेथालिन की उचित मात्रा को पानी में मिलाकर खेत में छिड़का दें. इससे खेत में खरपतवार जन्म ही नही ले पाती हैं. और जो जन्म लेती हैं उनकी मात्रा काफी कम पाई जाती हैं.

प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के दौरान पौधों की नीलाई गुड़ाई कर खरपतवार नियंत्रण किया जाता हैं. इसके लिए वर्तमान कई तरह की मशीनें भी मौजूद हैं. जिनका इस्तेमाल खेत की गुड़ाई करने में किया जाता हैं. रामतिल के पौधों की पहली गुड़ाई हल्के रूप में करनी चाहिए. इसके पौधों की पहली गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिए. रामतिल की खेती में प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण करने के लिए पौधों की दो गुड़ाई काफी होती हैं. इसके पौधों की दूसरी गुड़ाई बीज रोपाई के 40 दिन बाद कर देनी चाहिए.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

रामतिल के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी टाइम रहते रोकथाम ना की जाये तो फसल को काफी नुक्सान पहुँचता हैं.

माहू

रामतिल के पौधों में माहू का रोग के कीट पौधों को काफी नुकसान पहुँचाते हैं. इस रोग के कीट शिशु और व्यस्क दोनों अवस्थाओं में ही पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं. इस रोग के कीट काफी छोटे आकार के होते हैं. जिनका रंग हरा, पीला और काला दिखाई देता हैं. पौधों पर इस रोग के बढ़ने पर पौधों का विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम में लिए पौधों पर इमीडाक्लोप्रिड दवा की उचित मात्रा का छिडकाव रोग दिखाई देने पर करना चाहिए.

अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा

रामतिल के पौधों में अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग नमी के मौसम में अधिक फैलता हैं. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर अंडाकार भूरे धब्बे बनने लग जाते हैं. रोग के उग्र होने की स्थिति में धब्बों का आकार बढ़ जाता हैं. जिससे पौधे की पत्तियां नष्ट होकर गिर जाती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर थिरम या जिनेब की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

भुआ पिल्लू

भुआ पिल्लू का रोग एक कीट जनित रोग हैं. इस रोग की सुंडी पौधे पर नई बनने वाली पत्तियों को खा जाती है. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता हैं. इस रोग की सुंडी पर रोएं पाए जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नुवान दवा या इमिडाल्कोपरीड की उचित मात्रा छिडकाव करना चाहिए.  इसके अलावा नीम के तेल और सर्फ के घोल का इस्तेमाल करना भी लाभदायक होता हैं.

रामतिल की इल्ली

रामतिल की इल्ली पौधे की पत्तियों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाती है. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता हैं. इस रोग की इल्ली हरे रंग की होती है. जिस पर जामुनी रंग की धारिया पाई जाती हैं. रामतिल के पौधों में इस रोग की रोकथाम के लिए रोग दिखाई देने पर ट्राइजोफास की उचित मात्रा का छिडकाव 10 दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए.

चूर्णी फफूंद

चूर्णी फफूंद के रोग को भभूतिया रोग के नाम से भी जाना जाता हैं. पौधों में यह रोग फफूंद की वजह से फैलता हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग का पाउडर जमा हो जाता है, रोग बढ़ने पर पौधे की सभी पत्तियां सफ़ेद दिखाई देने लगती हैं. जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नही कर पाता हैं. और जल्द ही सुखकर नष्ट हो जाता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर एम- 45 या घुलनशील गंधक की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर कर देना चाहिए. इसके अलावा रोग ग्रस्त पौधों को खेत से निकालकर नष्ट कर देना चाहिए.

सर्कोस्पोरा पर्ण दाग

सर्कोस्पोरा पर्ण दाग रोग

रामतिल के पौधों में इस रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान देखने को मिलता हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों पर छोटे छोटे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. जिनका आकार पौधों पर रोग बढ़ने के साथ साथ बढ़ता जाता है. जिसे पत्तियां खराब होकर समय से पहले गिरकर नष्ट हो जाती हैं. और पौधों का विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज की रोपाई से पहले उसे थायरस से उपचारित कर लेना चाहिए. इसके अलावा खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर पौधों पर हेक्साकोनाजोल की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

जड़ सडन

रामतिल के पौधों में जड़ सडन का रोग खेत में अधिक समय तक जल भराव या नमी के बने रहने पर दिखाई देता हैं. इस रोग का प्रभाव पौधों पर किसी भी वक्त दिखाई दे सकता हैं. इस रोग के लगने से पौधों की जड़ों के पास का हिस्सा काला दिखाई देने लगता हैं. रोग बढ़ने पर पौधा जल्द खराब होकर नष्ट हो जाता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जलभराव ना होने दें. इसके अलावा रोग दिखाई देने पर पौधों की जड़ों में कापर आक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. या फिर बीज रोपाई से पहले भूमि में बोर्डो मिश्रण का छिडकाव कर देना चाहिए. और फसल चक्र अपनाना चाहिए.

पौधों की कटाई और मढ़ाई

रामतिल के पौधे बीज रोपाई के लगभग 110 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. फसल के पकने के बाद इसके पौधों की पत्तियां पीली होकर गिरने लग जाती हैं. इस दौरान इसके पौधों की कटाई कर लेनी चाहिए. पौधों की कटाई जमीन के पास से करनी चाहिए. उसके बाद पौधों के बंडल बनाकर उन्हें सूखने से लिए तेज़ धूप में रख देना चाहिए. जब इसके पौधे अच्छे से सुख जाएँ तब उनकी डंडों से पिटाई कर दानो को अलग कर लेना चाहिए.

दानो को अलग करने के बाद उसकी सफाई कर बोरे में भरकर बाज़ार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए. लेकिन अगर बाज़ार में फसल का भाव अच्छा ना मिल रहा हो तो किसान भाई इसका भंडारण कर रख सकता हैं. और अच्छे भाव मिलने पर इसकी बिक्री कर सकता हैं.

पैदावार और लाभ

रामतिल की खेती किसान भाइयों के लिए लाभदायक होती हैं. क्योंकि इसकी पैदावार करने में काफी कम खर्च आता हैं. रामतिल की विभिन्न किस्मों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 6 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. जबकि रामतिल का बाज़ार भाव 4000 रूपये प्रति किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. जिस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से बहुत कम लागत पर 20 हज़ार के आसपास कमाई कर सकता हैं.

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