सरसों की उन्नत खेती कैसे करें – Mustard Farming Information

सरसों की खेती तिलहन फसल के रूप में की जाती है. भारत में इसे रबी के मौसम में उगाया जाता है. सरसों मुख्य रूप से उत्तर भारत के कुछ राज्यों में ज्यादा उगाई जाती है. सरसों के बीजों से निकलने वाले तेल का उपयोग खाने के रूप में किये जाता है. और तेल निकालने के बाद बाकी बचे शेष भाग का इस्तेमाल पशुओं के खाने के रूप में किया जाता है.

सरसों की खेती

सरसों की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि उपयुक्त होती है. सरसों की खेती के लिए बारिश की भी ज्यादा जरूरत नही होती क्योंकि इसके पौधे को विकास करने के लिए ज्यादा सिंचाई की जरूरत नही होती. सरसों का पौधा ठंड के मौसम के प्रतिकूल होता है. इसके पौधे 4 से 6 फिट की लम्बाई के होते हैं. इसकी खेती किसान भाईयों के लिए एक मुनाफे का सौदा रही है. जिससे उन्हें अच्छे अपनी फसल की अच्छी कीमत मिल जाती है.

अगर आप भी इसकी खेती कर अच्छी कमाई करना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

सरसों की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि उपयुक्त होती है. लेकिन अधिक पैदावार लेने के लिए इसे लाल दोमट या काली दोमट मिट्टी में उगाना चाहिए. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान सामान्य के आसपास होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

सरसों की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है. भारत में इसकी खेती सर्दी के मौसम में की जाती है. क्योंकि ठंड के मौसम में इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं. लेकिन सर्दियों में पड़ने वाला पाला इसकी फसल को नुक्सान पहुँचाता है. जिससे पैदावार काफी कम प्राप्त होती है. पौधे पर फली बनने के बाद होने वाली मावठ इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है.

सरसों की खेती में बीजों के अंकुरण के वक्त सामान्य तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. फसल के पकने के दौरान तेज़ गर्मी और अधिक तापमान इसके लिए उपयोगी होती है.

उन्नत किस्में

सरसों की कई तरह की उन्नत किस्में है. जिन्हें किसान भाई उनकी भूमि की स्थति और उगाने के समय के आधार पर उगाते हैं.

पायनियर 45S46

पायनियर 45S46 किस्म को ज्यादातर राजस्थान और हरियाणा में उगाया जाता है. इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत के आसपास पाई जाती है. इसके पौधे कुछ हद तक पाले को सहन कर लेते हैं. इस किस्म की प्रति एकड़ पैदावार 8 से 12 क्विंटल तक पाई जाती है.

आर. एच 30

सरसों की ये एक पछेती किस्म है जिसको लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में उगाया जाता है. इसके पौधे को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. इस किस्म के बीजों का आकार मोटा होता है. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग चार महीने बाद पककर तैयार हो जाते हैं

आर एच 8113

सरसों की इस किस्म के पौधे अधिक लम्बाई और शाखाओं युक्त होते है. इसके पौधे बीज रोपाई के लगभग 150 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधे की पत्तियां लम्बी और मध्य से चौड़ी होती है. इस किस्म के पौधों की प्रति हेक्टेयर पैदावार 15 क्विंटल से ज्यादा पाई जाती है. जिसके बीजों में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक होती है.

वरुणा

वरुणा को टी. 59 के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के बीज रोपाई के लगभग 140 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इसके बीजों में तेल की मात्रा 38 से 40 प्रतिशत तक पाई जाती है. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.

आर.बी. 50

सरसों की इस किस्म को राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधों पर फलिया लम्बी और मोटे आकार की आती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 140 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनके बीजों में तेल की मात्रा 39 प्रतिशत तक पाई जाती है. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 7 क्विंटल तक पाया जाता है.

आर.एच. 8812

उन्नत किस्म

आर.एच. 8812 को लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है. सरसों की ये एक अधिक पैदावार देने वाली किस्म है. इस किस्म के पौधों पर पत्तियां छोटे आकार की होती है. जिसके बीज मोटे और गहरे काले रंग के दिखाई देते हैं. जिनमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 30 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इसके पौधे बीज रोपाई के लगभग 140 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं.

पूसा करिश्मा

सरसों की इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 140 से 145 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के दाने हलके पीले रंग के होते हैं. जिनका आकार सामान्य होता है. इसके दानों में तेल की मात्रा 38 प्रतिशत तक पाई जाती है. इस किस्म के पौधों पर सफेद रतुआ का रोग नही लगता. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 22 क्विंटल के आसपास पाई जाती है.

गीता

सरसों की इस किस्म को आर.बी. 9901 के नाम से भी जानते हैं. इस किस्म को ज्यादातर उत्तर भारत के राज्यों में ही उगाया जाता है. इस किस्म के पौधों की फलियों में दाने चार परत में आते हैं. जिनमे तेल की मात्रा 40 प्रतिशत पाई जाती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 140 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. और इस किस्म के पौधों पर सफेद रतुआ का रोग नही लगता. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 32 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.

पायनियर 42S46

पायनियर 45S46 किस्म को ज्यादातर उत्तर भारत के मैदानी राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में उगाया जाता है. इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा 38 से 40 प्रतिशत के आसपास पाई जाती है. इस किस्म के पौधों पर पत्तियां बड़े आकार की आती है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 20 से 24 क्विंटल तक पाई जाती है.

इनके अलावा और भी काफी किस्में हैं, जिन्हें अलग अलग प्रदेशों में उगाया जाता है. जिनमें वैभव, पूसा बोल्ड, आर.एस. – 30, लक्ष्मी, नरेन्द्र अगेती राई- 4, बसंती, रोहिणी, आशीर्वाद, वरदान, सौरभ, वसुन्धरा, आरएन- 393, माया, उर्वशी और पूसा अग्रणी जैसी कई किस्में शामिल हैं.

खेत की तैयारी

सरसों की खेती के लिए खेत की अच्छे से तैयारी की जाती है. इसके लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को हटाकर खेत की गहरी जुताई कर उसे खुला छोड़ दें. उसके कुछ दिन बाद उसमें उचित मात्रा में गोबर की खाद डालकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर उसे मिट्टी में मिला दें. उसके बाद खेत में पानी छोड़कर उसका पलेव कर दे. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद खेत में रासायनिक उर्वरक की उचित मात्रा का छिडकाव कर रोटावेटर चला दें. जिससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है. उसके बाद खेत में पाटा चलाकर उसे समतल बना लें.

बीज रोपाई का तरीका और टाइम

सरसों की खेती में बीज की रोपाई गेहूँ और बाजरे की तरह ड्रिल और छिडकाव विधि से की जाती है. दोनों विधि से इसके बीजों की रोपाई समतल भूमि में की जाती है. ड्रिल के माध्यम से इसके बीजों की रोपाई समतल भूमि में पंक्तियों के माध्यम से की जाती है. पंक्तियों में इसके बीजों की रोपाई करते वक्त बीजों के बीच 12 से 15 सेंटीमीटर की दूरी होनी चाहिए. और पंक्ति से पंक्ति की दूरी लगभग एक फिट के आसपास होनी चाहिए.

पौधों की रोपाई का तरीका

कम भूमि वाले किसान भाई इसकी रोपाई छिडकाव विधि से भी करते हैं. छिडकाव विधि से रोपाई के दौरान किसान भाई समतल खेत में इसके बीजों को छिड़क देते हैं. उसके बाद कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की दो हल्की जुताई कर देते हैं. बीज रोपाई के दौरान खेत की जुताई हलों के पीछे पाटा बांधकर करते हैं. जिससे बीज मिट्टी में अच्छे से मिल जाता है. इन दोनों विधियों से रोपाई के दौरान सरसों के बीज को जमीन में तीन से चार सेंटीमीटर नीचे उगाया जाना चाहिए. क्योंकि इससे बीज का अंकुरण अच्छे से होता है.

सरसों के बीजों को खेत में उगाने से पहले उन्हें उपचारित कर लेना चाहिए. या फिर सरकार द्वारा प्रमाणिक बीजों को ही खेत में उगाना चाहिए. बीजों को उपचारित करने के लिए थिरम या बाविस्टिन का इस्तेमाल करना चाहिए. एक एकड़ में ड्रिल के माध्यम से रोपाई के लिए डेढ़ से दो किलो और छिडकाव के माध्यम से रोपाई करने के लिए दो से ढाई किलो बीज की जरूरत होती है.

सरसों के बीजों की रोपाई सितम्बर माह के आखिरी सप्ताह से मध्य अक्टूबर तक कर देनी चाहिए. इसके अलावा पछेती किस्मों की रोपाई नवम्बर माह से पहले ही की जानी चाहिए. अन्यथा बाद में सरसों की पकाई के वक्त उसमें मौसम आधारित रोग लगने की संभावना ज्यादा हो जाती है.

पौधों की सिंचाई

सरसों के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नही होती. इसके पौधों की दो से तीन सिंचाई काफी होती है. पौधों की पहली सिंचाई बीज रोपाई के दो महीने बाद करनी चाहिए. इससे पौधों का विकास अच्छे से होता है. और दूसरी सिंचाई पौधों पर फूल खिलने के दौरान करनी चाहिए. उसके बाद तीसरी और लास्ट सिंचाई फलियों में बीज बनने के दौरान करनी चाहिए. जिससे बीजों का आकार अच्छे से बनता है. और पैदावार भी अधिक प्राप्त होती है.

उर्वरक की मात्रा

सरसों की खेती के लिए उर्वरक की सामान्य रूप से जरूरत होती है. इसके लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त 10 से 12 गाडी पुरानी गोबर की खाद को खेत में जुताई के वक्त प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालकर मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में एक बोरा डी.ए.पी. की मात्रा को खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिड़क देना चाहिए. इनके अलावा पौधों की पहली सिंचाई के वक्त या जब पौधों पर फूल बन रहे होते हैं, तब लगभग 25 किलो यूरिया सिंचाई के साथ पौधों को देना चाहिए. इससे पौधों से पैदावार अधिक मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

सरसों की खेती में बथुआ, प्याज़ा, डूब जैसी एकवर्षीय खरपतवार दिखाई देती हैं. सरसों की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक तरीके से किया जाता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों की दो बार गुड़ाई कर देनी चाहिए. पौधों की पहली गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद कर देनी चाहिए. जबकि दूसरी गुड़ाई पहली गुड़ाई के लगभग 20 दिन बाद करनी चाहिए. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए बीज की रोपाई से पहले भूमि में थीरम या बाविस्टीन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

सरसों के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं जो कीट को जीवाणु जनित होते हैं. इन रोगों की उचित टाइम रहते देखभाल करने से पौधों को खराब होने से बचाया जा सकता है.

अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा

अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों और फलियों पर गहरे कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं. पत्तियों पर इनका आकार गोल दिखाई देता है. जिसका प्रकोप बढ़ने पर धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बों का आकार धारण कर लेते हैं. जिससे पूरी पत्ती झुलसी हुई दिखाई देती है. जो कुछ दिन बाद सूखकर गिर जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए इसके बीजों को थीरम या बाविस्टीन से उपचारित करना चाहिए.

सफेद गेरूई

रोग लगा पौधा

सफेद गेरूई को धोलिया के रोग के नाम से भी जानते हैं. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों की निचली सतह पर सफ़ेद रंग के धब्बे बन जाते हैं. जिसके कारण पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है. इस रोग की वजह से पौधे का शीर्ष भाग विकृत हो जाता है. जिससे पौधे पर फलियाँ नही बनती है. जिसका असर पैदावार पर अधिक देखने को मिलता है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज की रोपाई के वक्त उसे मेटालेक्सिल से उपचारित कर उगाना चाहिए. इसके अलवा प्रमाणित बीज ही उगाने चाहिए.

चेपा

सरसों की फसल में लगने वाले चेपा रोग को माहू के नाम से भी जाना जाता है. इस रोग के कीटों का आकार बहुत छोटे होते हैं. जिनका रंग हरा, काला और पीला दिखिया देता है. इस रोग के किट पौधे पर समूह में पाए जाते हैं. जो पौधे का रस चूसकर पौधे के विकास को रोक देते हैं. जिस कारण पौधों की पैदावार काफी कम हो जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास या डाईमेथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

कातरा

सरसों के पौधों में लगने वाले इस रोग को बालीदार सुंडी के नाम से भी जानते हैं. इस रोग की सुंडी लाल, पीली, हरी और चितकबरी दिखाई देती है. जिसके शरीर पर बहुत अधिक मात्रा में रोएं दिखाई देते हैं. इस रोग के किट पौधे के सभी कोमल भागों को खाकर पौधे को नुक्सान पहुँचाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर सर्फ के घोल का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा मैलाथियान, क्यूनालफास या डाईक्लोरोवास की उचित मात्रा का छिडकाव रसायनिक दवाइयों के रूप में करना चाहिए.

पत्ती सुरंगक कीट

पौधों पर इस रोग का प्रभाव पतियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों में सफ़ेद रंग की धारियां दिखाई देने लगती है. जो कीट के खाने की वजह से बनती है. इस रोग के लगने पर पौधों पर मोनोक्रोटोफास या डाईमेथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

आरा मक्खी

आरा मक्खी एक किट जनित रोग हैं, जिसका लार्वा पौधे की पत्तियों की खाकर पौधे को नुक्सान पहुँचाता है. इसकी सुंडी काले सलेटी रंग की होती है. जो पौधे की पत्तियों को खाकर पौधे के विकास को रोक देती हैं. जिसका प्रकोप बढ़ने पर पौधे पत्तियों रहित हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर पैराथियोन या मैलाथियान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

फसल की कटाई और गहाई

सरसों के पौधे बीज रोपाई के लगभग 150 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसके पौधों की कटाई मार्च के बाद की जाती है. कटाई के दौरान पौधों की फली वाली शाखाओं को पौधे के तने के पास से काटा जाता है. शाखाओं की कटाई के दौरान पौधों की फलियों का रंग हल्का पीला हो जाता है. और फलियों में दाने काले, पीले दिखाई देने लगते हैं. इस दौरान इसकी फलियों को काट लेना चाहिए. इसकी फलियों को काटकर उन्हें कुछ दिन तेज़ धूप में सूखाकर मशीन की सहायता से निकलवा लिया जाता है.

पैदावार और लाभ

सरसों की पैदावार से किसान भाइयों को अच्छा लाभ मिलता है. इसकी विभिन्न किस्मों के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 15 से 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. जिसका बाज़ार भाव चार हज़ार प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है. जिससे किसान भाइयों की एक बार में एक हेक्टेयर से 60 से 80 हज़ार रूपये तक की कमाई आसानी से हो जाती है.

 

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