जई की खेती मुख्य रूप से हरे चारे और पशुओं के दाने के लिए की जाती है. इसके दाने में प्रोटीन, आयरन और रेशे भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. जई के दानो के इस्तेमाल से ब्लड प्रेशर और वजन के साथ साथ और भी कई बिमारियों पर कंट्रोल किया जा सकता है.
जई की खेती गेहूं की खेती की तरह ही की जाती है. लेकिन इसको हरे चारे के रूप में उपयोग में लेने के लिए पकने से पहले ही काट लिया जाता है. हरे चारे के लिए उगाई गई जई के साथ साथ बरसीम को भी आसानी से उगाया जा सकता हैं. जिससे हरे चारे का स्वाद और पोषक गुण बढ़ता है.
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जई की खेती खरीफ की फसल कटने के तुरंत बाद शुरू कर दी जाती है. इसकी खेती के लिए ठंडी और आद्र जलवायु की जरूरत होती है. इसके पौधे पर सर्दियों में पड़ने वाले पाले का भी ज्यादा असर देखने को नही मिलता है. दोमट मिट्टी जई की खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है. और साथ में जमीन का का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.
अगर आप इसकी खेती हरे चारे या पैदावार के लिए करना चाहते हैं तो आज हम आपको इसके बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
जई की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए चिकनी रेतीली जमीन सबसे उपयुक्त होती है. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
जई की खेती के लिए आद्र और ठंडी जलवायु उपयुक्त होती है. इसकी खेती के लिए बरसात की ज्यादा जरूरत नही होती. लेकिन अधिक तेज़ गर्मी में इसकी खेती नही की जा सकती. इस कारण दक्षिण भारत में इसकी खेती कम की जाती है. इसके पौधे ठंडे मौसम में आसानी से विकास करते हैं. सर्दियों में पड़ने वाले पाले से इसकी पैदावार को नुक्सान नही पहुँचता.
उन्नत किस्में
जई की कई तरह की उन्नत किस्में हैं. जिसने अधिक पैदावार और ज्यादा कटाई के लिए तैयार किया गया है.
एच ऍफ़ ओ 114
इस किस्म को हरियाणा और पंजाब में जई 114 के नाम से भी जाना जाता है. हरे चारे में इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 500 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म की 3 से ज्यादा बार कटाई की जा सकती है. हर कटाई के बाद इसके पौधे अच्छे से वृद्धि करते हैं.
ब्रूकेर 10
इस किस्म को ज्यादातर दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे पर छोटी और तंग आकार की नर्म पत्तियां आती हैं. हरे चारे में इस किस्म का उत्पादन 400 से 450 किवंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास पाया जाता हैं.
यु पी ओ 94
इस किस्म के पौधों को गेरुई झुलसा रोग नही लगता. जिस कारण ये अधिक समय तक हरी भरी रहती है. हरे चारे में इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 500 से 550 किवंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधे 3 से 4 कटाई आसानी से दे सकते हैं.
कैंट
इस किस्म को ज्यादातर उत्तर भारत के पर्वतीय मैदानी भागों में उगाया जाता है. इस किस्म को झुलसा रोग नही लगता. इस किस्म का हरे चारे में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 500 से 550 किवंटल के आसपास पाया जाता है.
अल्जीरियन
जई की ये किस्म अधिक समय तक पैदावार देने के लिए जानी जाती है. इस किस्म के पौधे अधिक समय तक हरे भरे दिखाई देते हैं. एक हेक्टेयर में इस किस्म के पौधों से हरे चारे की 500 किवंटल तक मात्रा प्राप्त हो जाती है.
इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक पैदावार के लिए उगाया जाता है. जिनमें ओ- एस 7, ओ- एस 9, ओ- एल 88, ओ एल- 99, एन पी- 1 हाइब्रिड, एन पी- 3 हाइब्रिड, एन पी- 27 हायब्रिड, बी एस- 1, बी- 2 एस,जे एच ओ- 817, जे एच ओ- 822 के- 10, फ़ ओ एस- 1, यु पी ओ-13 और यु पी ओ- 50 जैसी किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
जई की पैदावार के लिए खेत की तैयारी खरीफ की फसल काटने के तुरंत बाद शुरू कर देनी चाहिए. इसके लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दें. खेत खुला छोड़ने पर सूर्य की धूप से जमीन के अंदर के हानिकारक किट नष्ट हो जाते हैं. उसके बाद खेत में 12 से 15 गाडी प्रति एकड़ के हिसाब से पुरानी गोबर की खाद डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद उसमें पानी छोड़कर खेत का पलेव कर दें. पलेव करने के दो से तीन दिन बाद खेत की फिर अच्छे से जुताई कर पाटा लगा दें.
बीज की बुवाई का वक्त और तरीका
जई के बीज की बुवाई का सबसे उपयुक्त टाइम खरीफ की फसल कटने के बाद मध्य नवम्बर तक का होता है. इसके बाद दिसम्बर माह में भी इसको उगाया जा सकता है. लेकिन देरी से उगाने पर इसके बीज अंकुरित होने में ज्यादा टाइम लेते हैं. और वृद्धि भी धीरे धीरे करते हैं. एक एकड़ में इसकी बुवाई के लिए लगभग 50 किलो से ज्यादा बीज की जरूरत होती है.
जई की बुवाई के लिए छिडकाव और ड्रिल विधि का इस्तेमाल किया जाता है. छिडकाव विधि से इसकी खेती के लिए बीज को तैयार किये हुए खेत में छिड़कर खेत की हल्की दो जुताई कर देते हैं. ताकि बीज अच्छे से मिट्टी में मिल जाए. जबकि ड्रिल विधि से इसकी बुवाई पंक्तियों में की जाती है. जो बीज रोपाई वाली मशीन के माध्यम से की जाती है. प्रत्येक पंक्तियों के बीच लगभग 5 से 7 सेंटीमीटर की दूरी पाई जाती है.
पौधों की सिंचाई
अगर जई की खेती इसके अनाज की पैदावार के लिए की जाए तो इसके पौधों की 5 से 7 सिंचाई काफी होती है. लेकिन अगर इसकी खेती हरे चारे के लिए की जाए तो इसके पौधों को ज्यादा सिंचाई की जरूरत होती है. हरे चारे की खेती में सप्ताह में एक बार पानी देना पड़ता है. पैदावार के लिए इसकी पहली सिंचाई बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद करनी चाहिए. उसके बाद आवश्यकता के अनुसार सिंचाई करते रहना चाहिए. अगर जई की खेती पैदावार के लिए की जा रही हो तो पौधों में बीज बनने के दौरान नमी बनाए रखे. इससे बीज अच्छे और ज्यादा बनते हैं. जिससे पैदावार अच्छी प्राप्त होती है.
उर्वरक की मात्रा
जई की खेती के लिए ज्यादा उर्वरक की जरूरत नही होती. लेकिन इसकी खेती हरे चारे के लिए की जाए तो उर्वरक की जरूरत ज्यादा पड़ती है. इसकी खेती के लिए शुरुआत में 10 से 12 गाडी पुरानी गोबर की खाद को जुताई के वक्त खेत में डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में लगभग 30 किलो डी.ए.पी. खाद को प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में छिड़क दें.
जई के पौधों की पहली सिंचाई के वक्त लगभग 20 किलो यूरिया और 3 किलो जिंक को मिलाकर खेत में छिड़क दें. उसके बाद आखिरी में जब पौधों में बीज बनने लगे तब उर्वरक की इसी मात्रा का छिडकाव पौधों में करना चाहिए. लेकिन अगर इसकी खेती हरे चारे के लिए की जा रही हो तो हर कटाई के बाद लगभग 15 किलो यूरिया प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में देना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
जई की खेती में खरपतवार नियंत्रण की जरूरत तब नही होती जब इसकी खेती हरे चारे के लिए की जाए. लेकिन अगर इसकी खेती पैदावार के लिए की जाए तो खरपतवार नियंत्रण के लिए इसकी दो गुड़ाई कर देना अच्छा होता है. इसकी पहली गुड़ाई बीज रोपाई के एक महीने बाद कर देनी चाहिए. और दूसरी गुड़ाई पहली गुड़ाई के एक महीने बाद कर देनी चाहिए.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
जई का इस्तेमाल जब पशुओं को खिलाने वाले चारे के रूप में किया जाता है तो पौधों में काफी कम रोग देखने को मिलते हैं. लेकिन जब इसकी खेती पैदावार के रूप में की जाती है तो इसके पौधों पर कुछ रोग देखने को मिलते हैं. जिनको उचित कीटनाशकों के माध्यम से रोका जा सकता हैं. लेकिन ध्यान रहे अगर आप इसका इस्तेमाला पशुओं के हरे चारे के रूप में कर रहे हैं तो रसायनों के छिडकाव के बाद कुछ दिन तक पौधों की कटाई ना करें.
चेपा या माहू
इस रोग का प्रकोप पौधे की पत्तियों पर देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पत्तियों पर छोटे आकर के बहुत सारे जीव समूह में दिखाई देते हैं. जो पौधे की पत्तियों का रस चूसकर उन्हें सुखा देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर डाइमेथोएट का छिडकाव करना चाहिए.
पत्ती धब्बा या झुलसा रोग
पौधों पर इस रोग की वजह से पत्तियों पर काले रंग के छोटे छोटे धब्बे बनते हैं. जो धीरे धीरे बड़े होते जाते हैं. बड़े होने के साथ ही इनका मध्य का रंग काला और किनारों का रंग पीला दिखाई देने लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के तेल या पानी का छिडकाव करना चाहिए.
दीमक
जई की फसल में दीमक का रोग किसी भी अवस्था में देखने को मिल सकता है. इस रोग की वजह से पैदावार पर सबसे ज्यादा असर देखने को मिलता है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत को बीज बोने से पहले फिप्रोनिल से उपचारित कर लेना चाहिए. और अगर रोग खड़ी फसल में लगा हो तो इमिडाक्लोप्रिड की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
पौधों की कटाई और गहाई
जई के पौधों की कटाई चार से पांच महीने बाद जब फसल अच्छे से पककर तैयार हो जाए तब करनी चाहिए. फसल के पकने पर पौधे का रंग हल्का पीला दिखाई देने लगता है. इसके अलावा बीज हलके कठोर होकर काले दिखाई देने लगे तब इसकी कटाई कर लेनी चाहिए. कटाई करने बाद इसकी पुलियों को दो से तीन दिन खेत में सूखने के लिए छोड़ दें. जब पुलियां अच्छी तरह सुख जाए तब इन्हें एक जगह एकत्रित कर मशीन की सहायता से निकलवा लेना चाहिए.
पैदावार और लाभ
जई की खेती अगर हरे चारे के लिए की जाए तो एक हेक्टेयर से 500 से 550 किवंटल के आसपास हरा चारा प्राप्त होता है. इसके अलावा अगर इसकी खेती अनाज के रूप में पैदावार लेने के लिए की जाए तो एक हेक्टेयर से 50 किवंटल के आसपास जाई के दाने प्राप्त होते हैं. और 80 किवंटल के आसपास सुखा हुआ भूसा मिलता हैं. जिससे किसान भाई इसके अनाज को बाज़ार में बेचकर लगभग एक लाख तक की कमाई कर सकते हैं.