सफ़ेद सिरस की खेती व्यापारिक फसल के तौर पर की जाती है. इसकी लकड़ियों का इस्तेमाल कागज बनाने, कोयला बनाने और औषधीय रूप में किया जाता है. इसके अलावा इसके पत्तों का इस्तेमाल पशुओं के चारे के रूप में किया जाता है. भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से पंजाब, महाराष्ट्र, त्रिपुरा, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में की जाती है. इसके पौधे सामान्य रूप से जंगलों में उग आते हैं, जो बहुत तेजी से विकास करते हैं.
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सफेद सिरस के पौधे लगभग 40 फिट के आसपास ऊंचाई के पाए जाते हैं. जबकि पूर्ण रूप से बड़े पौधों की ऊंचाई 70 फिट तक पाई जाती हैं. इसके पौधे का तना ज्यादातर सीधा पाया जाता है. जिसका रंग हल्का भूरा दिखाई देता है. इसके पौधे हर तरह के मौसम में अपना विकास कर लेते हैं. इसकी खेती के लिए किसी ख़ास मौसम की जरूरत नही होती. इसके पौधे कम समय में ही अच्छी लम्बाई वाले हो जाते हैं. जिन्हें बेचकर किसान भाई अच्छा ख़ासा लाभ कम सकता हैं.
उपयुक्त मिट्टी
सफ़ेद सिरस की खेती सामान्य रूप से किसी भी तरह की भूमि में की जा सकती है. लेकिन व्यापारी तौर से खेती करने के लिए इसके पौधों की रोपाई हल्की रेतीली दोमट मिट्टी या लाल दोमट मिट्टी में करनी चाहिए. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य के आसपास होना चाहिए. और मिट्टी में जलभराव की समस्या नही होनी चाहिए.
जलवायु और तापमान
सफ़ेद सिरस की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त होती है. इसके पौधे सर्दी और गर्मी दोनों मौसम में अच्छे से विकास करते हैं. लेकिन सर्दियों में अधिक समय तक पड़ने वाला पाला इसके पौधों के विकास को रोक देता है. इसके पौधे बारिश के मौसम में बहुत तेज़ी से विकास करते हैं. बारिश के मौसम में सूर्य की धूप अच्छे से मिलने की वजह से इसके पौधे और भी तेजी से विकास करते हैं.
इसके पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती हैं. अंकुरित होने के बाद इसके पौधे गर्मियों में अधिकतम 40 और सर्दियों में न्यूनतम 10 डिग्री तापमान पर भी आसानी से विकास कर लेते हैं. जबकि 30 डिग्री तापमान इसके पौधों के विकास के लिए सबसे बेहतर होता है.
खेत की तैयारी
सफ़ेद सिरस के पौधों की रोपाई खेत में गड्डे तैयार की जाती है. इसके लिए खेत की अच्छे से तैयारी की जाती है. सफ़ेद सिरस के पौधों की रोपाई के लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर दें. उसके बाद खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर खेत को कुछ दिनो के लिए खुला छोड़ दें. ताकि मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट शुरुआत में ही नष्ट हो जायें. खेत को खुला छोड़ने के कुछ दिन बाद खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन तिरछी जुताई कर खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना ले. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल बना लें. ताकि बारिश के वक्त खेत में जलभराव ना हो पाए.
मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पौध रोपाई के लिए पंक्तियों में गड्डे तैयार किये जाते हैं. गड्डों को तैयार करने के दौरान प्रत्येक गड्डों के बीच लगभग 10 से 15 फिट के बीच दूरी होनी चाहिए. और प्रत्येक पंक्तियों के बीच भी 10 से 12 फिट के बीच दूरी होनी चाहिए. गड्डों की खुदाई के वक्त प्रत्येक गड्डे डेढ़ फिट के आसपास गहराई और दो फिट की चौड़ाई वाले होने चाहिए. गड्डों की खुदाई करने के बाद उनमें उचित मात्रा में जैविक और रासायनिक उर्वरकों को मिट्टी में मिलाकर भर दें.
पौध तैयार करना
सफ़ेद सिरस की पौध बीज के माध्यम से नर्सरी में तैयार की जाती है. इसके पौधों को तैयार करने के लिए पहले नर्सरी में उचित मात्रा में जैविक उर्वरक मिलाकर मिट्टी तैयार कर उसे पॉलीथीन में भर लें. मिट्टी को पॉलीथीन में भरने से पहले उसमें उचित मात्रा में बाविस्टिन मिलकर उसे उपचारित कर लेना चाहिए. ताकि बीजों के अंकुरण के वक्त किसी तरह की समस्या का सामना ना करना पड़े. इसके अलावा इसके बीजों को भी गोमूत्र से उपचारित कर लेना चाहिए.
मिट्टी के तैयार होने के बाद उसे पॉलीथीन में भरकर उसमें इसके बीजों की रोपाई की जाती है. बीज रोपाई के दौरान प्रत्येक पॉलीथीन थेली में दो बीजों को लगाना चाहिए. उसके बाद जब इसके बीजों का अंकुरण होता है तब उसमें से अच्छे से विकास करने वाले पौधे को रखकर दूसरे पौधे को नष्ट कर देते हैं. इसके बीजों का अंकुरण रोपाई के चार से पांच दिन बाद ही हो जाता है. और बीजों के अंकुरण के तीन से चार महीने बाद ही इसके पौधे रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं.
पौध रोपाई का तरीका और टाइम
सफ़ेद सिरस के पौधों की रोपाई खेत में गड्डे तैयार कर की जाती है. गड्डों में रोपाई से पहले खेत में तैयार किये गए गड्डों के बीचोंबीच एक और छोटे आकर का गड्डा तैयार किया जाता है. इस गड्डे में सफ़ेद सिरस के पौधे की रोपाई की जाती है. पौधे की रोपाई से पहले गड्डे को बाविस्टिन या गोमूत्र से उपचारित कर लेना चाहिए. उसके बाद नर्सरी में तैयार पौधे को गड्डों में लगाकर उसके तने को डेढ़ से दो सेंटीमीटर तक मिट्टी में दबा देना चाहिए.
इसके पौधों की रोपाई सामान्य तौर पर अधिक सर्दी के मौसम को छोड़कर कभी भी कर सकते हैं. लेकिन पैदावार के रूप में खेती करने के दौरान इसके पौधों की रोपाई बारिश के मौसम में करनी चाहिए. क्योंकि बारिश के मौसम में इसके पौधे बहुत तेजी से विकास करते हैं.
पौधों की सिंचाई
इसके पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. क्योंकि अधिक पानी और लगातार सूर्य की धूप में इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं. शुरुआत में इसके पौधों की रोपाई के तुरंत बाद उनकी सिंचाई कर देनी चाहिए. उसके बाद गर्मियों के मौसम में पौधे को 5 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. और सर्दियों के मौसम में 15 दिन बाद पौधों को पानी देना चाहिए. बारिश के मौसम में इसके पौधों को सिंचाई की जरूरत नही होती. लेकिन बारिश सही समय पर ना हो और पौधों को पानी की जरूरत हो तो पौधों की सिंचाई कर देनी चाहिए.
जब इसके पौधे बड़े हो जाते हैं तब उन्हें पानी की जरूरत थोड़ी कम हो जाती हैं. पौधों से पेड़ बनने के बाद इसके पेड़ों को सालभर में 8 से 10 सिंचाई की जरूरत होती है. जो गर्मी और सर्दी के मौसम में ही की जाती हैं.
उर्वरक की मात्रा
इसके पौधों को उर्वरक की जरूरत बाकी पौधों की तरह ही होती है. इसके लिए शुरुआत में खेत में गड्डों की तैयारी के वक्त प्रत्येक गड्डों में लगभग 10 किलो गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाकर गड्डों में भर दें. इसके अलावा जो किसान भाई रासायनिक खाद देना चाहते वो प्रत्येक गड्डों में जैविक खाद के साथ साथ लगभग 100 ग्राम एन.पी.के. की मात्रा को मिट्टी में मिला दें. पौधों को उर्वरक की ये मात्रा तीन से चार साल तक देनी चाहिए.
उसके बाद उर्वरक की मात्रा को बढ़ा देना चाहिए. ताकि पौधों को उचित मात्रा में भूमि से पोषक तत्व मिलते रहें. इसके लगभग 8 साल पुराने प्रत्येक पौधों को सालाना 20 से 25 किलो गोबर की खाद और आधा किलो एन.पी.के. की मात्रा पौधों को देनी चाहिए. इसके पौधों को उर्वरक की ये मात्रा साल में दो बार में देनी चाहिए. पहली मात्र पौधों को फरवरी के बाद और दूसरी मात्रा जुलाई के बाद देनी चाहिए. इसके पौधों को उर्वरक की मात्रा उसके तने से एक फिट की दूरी छोड़ते हुए लगभग दो फिट चौड़ा और आधा फिट गहरा घेरा बनाकर देनी चाहिए. पौधों को उर्वरक देने के बाद तुरंत सिंचाई कर देनी चाहिए.
पौधों की देखभाल
सफ़ेद सिरस के पौधों को देखभाल की जरूरत सामान्य तौर पर शुरुआत में ही अधिक होती है. इसके पौधे की पत्तियों का इस्तेमाल पशुओं के चारे के रूप में किया जाता है. इस कारण आवारा पशु इसके पौधों को खा जाते हैं. जिससे पौधों का विकास रुक जाता है. और उनका आकार भी बाद में खराब दिखाई देने लगता है. इसके लिए पौधों की रोपाई के तुरंत बाद खेत के चारों तरफ तारबंदी या दीवार लगा देनी चाहिए. ताकि आवारा पशु खेत में ना घुस पायें. इसके अलावा शुरुआत में पेड़ों के तने पर दो मीटर तक किसी भी तरह की कोई शाखा को जन्म ना लेने दें. इससे पौधे की ऊंचाई अच्छे से बनती है. और ताना भी मजबूत बनता है.
खरपतवार नियंत्रण
सफ़ेद सिरस के पौधों में खरपतवार नियंत्रण की सामान्य जरूरत होती है. इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से किया जाता है. इसके लिए इसके पौधों की रोपाई के लगभग 20 से 30 दिन बाद पौधों की हल्की गुड़ाई कर पौधों की जड़ों में से खरपतवार को निकाल देते हैं.
उसके बाद जब भी पौधों की जड़ों में किसी भी तरह की कोई खरपतवार दिखाई दें तो पौधों की गुड़ाई कर उसे निकाल देना चाहिए. इसके अलावा खेत में खाली पड़ी जमीन में अगर किसी तरह की फसल ना उगाई गई हो तो, बारिश के मौसम के बाद जब खेत में खरपतवार दिखाई देने लगे तब खेत की पावरटिलर के माध्यम से हल्की जुताई कर खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए. ताकि पौधों के विकास में किसी तरह की दिक्कत ना आयें.
अतिरिक्त कमाई
सफ़ेद सिरस के पौधे रोपाई के लगभग 12 से 15 साल बाद कटाई के लिए तैयार होते हैं. इस दौरान किसान भाई अपने खेत में खाली बची जमीन में कम समय की बागबानी, सब्जी, मसाले और औषधीय फसलों को उगाकर अपने खेत से पैदावार ले सकता है. और जब पौधे अधिक बड़े हो जाएँ तब छाया में उगने वाली मसाला या औषधीय फसलों को उगाकर उनकी पैदावार ले सकता है. इससे किसान भाई को लगातार अपने खेत से उचित मात्रा में पैदावार भी मिलती रहती है. और उसे आर्थिक परेशानियों का भी सामना नही करना पड़ता.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
सफ़ेद सिरस के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जो इसके पौधों को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचाते हैं.
यूरेमा ब्लेन्डा (पत्ती काट सुंडी)
सफ़ेद सिरस के पौधों पर पत्ती काट सुंडी का रोग कीट की वजह से दिखाई देता है. इस रोग की सुंडी का प्रभाव पौधों पर जून से सितम्बर माह के बीच देखा जाता है. इस रोग की सुंडी पौधे की पत्तियों में छिद्र बना देती हैं. रोग बढ़ने पर इनका प्रभाव बढ़ जाता है. जिससे पौधे पत्तियों रहित दिखाई देने लगते हैं. इसकी सुंडी हल्के हरे, पीले रंग की दिखाई देती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
गैनोडर्मा फफूंद
गैनोडर्मा फफूंद एक मसरूम की प्रजाति है. जो पौधों की जड़ों में उत्पन्न होती हैं. इसका रंग पीला सफ़ेद दिखाई देता है. इसके लगने से पौधों का विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों में पैराडाईक्लोरो बेंजीन और मिटटी तेल को 1:10 के अनुपात में मिलाकर छिडकना चाहिए.
पौध मुरझा रोग
इसके पौधों में पौध मुरझा रोग का प्रभाव पौधों पर शुरुआत में ही देखने को मिलता है. जो पौधों पर फ्यूजेरियम फफूंद की वजह से फैलती हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे की कुछ शखाएं मुरझाने लगती है. रोग के बढ़ने पर इसका प्रभाव सम्पूर्ण पौधे पर दिखाई देने लगता है. रोग के बढ़ने पर पौधों का विकास रुक जाता है. और कुछ दिन बाद पौधे पूरी तरह सुखकर नष्ट हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए 0.3 प्रतिशत वाले डायथेन घोल का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
जाइस्ट्रोसेरा ग्लोबोसा लार्वा
सिरस के पौधों पर इस रोग के लार्वा का प्रभाव कभी भी दिखाई दे सकता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव इसके तने पर दिखाई देता है. इसका लार्वा पौधे के तने को खाकर उसे नुक्सान पहुँचाता है. जिससे पौधों का विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों के तने पर पैराडाईक्लोरो बेंजीन और मिटटी तेल को 1:10 के अनुपात में मिलाकर छिडकना चाहिए.
पौधों की कटाई
सिरस के पौधे सामान्य रूप से रोपाई के लगभग 12 से 15 साल बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. लेकिन अधिक उत्पादन लेने के लिए किसान भाई इसे 20 साल बाद भी कट सकते हैं. जिससे पौधों से उत्पादन अधिक मिलता है. इसके पौधों की कटाई जड़ सहित करनी चाहिए.
पैदावार और लाभ
सिरस के पौधों की लकड़ी का बाजार भाव काफी अच्छा मिलता है. इसके पौधे की जड़ और शखा सभी का इस्तेमाल किया जाता है. इसकी जड़ और शखाओं से उत्तम क्वालिटी का कोयला तैयार किया जाता है. जबकि तने का इस्तेमाल लकड़ी और पेपर बनाने की लुगदी के रूप में किया जाता है. जिससे इसके पौधों से लगभग 16 साल बाद अच्छी खासी कमाई हो जाती हैं. साथ ही इसके पौधों के बीच में पैदा होने वाली फसलों से लगातार किसान भाई कमाई करता रहता है. जिससे उसे उसके खेत के लगभग 10 साल तक पूर्ण उत्पादन मिलता है.