आलू एक कंदवर्गीय सब्जी है. जिसको भारत के ज्यादातर लोग पसंद करते हैं. आलू का इस्तेमाल सब्जी के रूप में सबसे ज्यादा होता है. आलू को लगभग सभी तरह की सब्जियों के साथ बनाया जा सकता है. आलू के उत्पादन में भारत का विश्व भर में तीसरा स्थान है. आलू का इस्तेमाल शरीर के लाभदायक और नुकसानदायक होता है. इसके अधिक इस्तेमाल से शरीर में चर्बी बढ़ जाती है.
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आलू के अंदर पानी की मात्रा सबसे ज्यादा पाई जाती है. इसके अलावा विटामिन सी, बी, कैल्शियम, मैंगनीज, फास्फोरस और आयरन जैसे तत्व भी पाए जाते हैं. आलू का इस्तेमाल सब्जी के अलावा और भी कई तरह की खाने की चीजों को बनाने में किया जाता है. जिनमें चिप्स, पापड़, फ्रेंच फ्राइज, वड़ापाव, चाट, आलू भरी कचौड़ी, समोसा, टिक्की और चोखा जैसी चीजें शामिल है.
आलू के कंद जमीन के अंदर लगते हैं. इसकी खेती के लिए उचित जल निकासी वाली और कार्बनिक तत्वों से भरपूर उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. इसकी खेती के लिए ज्यादा बारिश की जरूरत नही होती. भारत में इसकी खेती ज्यादातर रबी की फसलों के साथ की जाती है. भारत में इसे सबसे ज्यादा उत्तर भारत के मैदानी भागों में उगाया जाता है.
अगर आप भी आलू की खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
आलू की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली और कार्बनिक तत्वों से भरपूर उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी की जरूरत होती है. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए. जल भराव वाली भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त नही होती.
जलवायु और तापमान
आलू की खेती के लिए समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु उपयुक्त होती है. भारत में इसे सर्दियों के मौसम में उगाया जाता है. लेकिन सर्दियों के मौसम में पड़ने वाला पाला इसकी पैदावार को प्रभावित करता है. इसके फल तेज़ गर्मी में खराब हो जाते हैं. इस कारण इन्हें गर्मियों में नही उगा सकते. इसके पौधों को हलकी बारिश की जरूरत होती है.
आलू की खेती के लिए तापमान का विशेष महत्व होता है. क्योंकि अधिक और कम तापमान इसके लिए नुकसानदायक होता है. इसके पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद पौधे को विकास करने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. फसल की पकाई के दौरान अधिकतम तापमान 25 के आसपास ही होना चाहिए. इससे अधिक तापमान होने पर फल खराब हो जाते हैं.
उन्नत किस्में
आलू की वर्तमान में बहुत सारी प्रजातियाँ मौजूद हैं. जिन्हें उत्पादन और विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर तैयार किया गया है.
जे एच- 222
आलू की इस किस्म को कुफरी जवाहर के नाम से भी जाना जाता है. आलू की ये एक संकर किस्म है. इस किस्म के पौधों पर झुलसा रोग देखने को नही मिलता. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 से 110 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 250 से 300 क्विंटल तक पाया जाता है.
लेडी रोसैट्टा
आलू की इस किस्म को गुजरात और पंजाब में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई के होते हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 120 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 67 टन तक पाया जाता है.
कुफरी चंद्रमुखी
आलू की इस किस्म को अगेती फसल के रूप में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका रंग हल्का भूरा दिखाई देता है. इस किस्म के पौधों पर पछेती अंगमारी का रोग देखने को नही मिलता. इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 200 से 250 क्विंटल तक पाई जाती है.
कुफरी बहार
कुफरी बहार किस्म को ई 3792 के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म को अगेती और पछेती खेती के तौर पर उगा सकते हैं. जो अगेती रूप में बीज रोपाई के 90दिन बाद और पछेती रूप में बीज रोपाई के 130 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. इस किस्म के आलू के कंदों का रंग हल्का सफ़ेद दिखाई देता है.
कुफरी ज्योति
आलू की इस किस्म को मुख्य रूप से पर्वतीय जगहों पर उगाने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 130 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जबकि मैदानी भागों में 80 दिन में ही खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 150 से 250 क्विंटल तक पाया जाता है.
जे. ऍफ़. 5106
आलू की इस किस्म को सबसे ज्यादा उत्तर भारत में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 75 दिन बाद पैदावार देना शुरु कर देते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 250 से 280 क्विंटल तक पाया है.
कुफरी लवकर
आलू की इस किस्म को महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 100 से 120 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 250 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इसके कदों का रंग सफेद दिखाई देता है.
ई 4,486
आलू की इस किस्म को हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 130 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 250 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.
कुफरी अशोक
आलू की इस किस्म को मैदानी भागों में उगाने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 75 से 80 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 280 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.
जे. ई. एक्स. 166 सी.
आलू की इस किस्म को ज्यादातर उत्तर भारत के राज्यों में ही उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 300 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.
इनके अलावा और भी बहुत सारी किस्में मौजूद हैं. जिन्हें अधिक उत्पादन के लिए उगाया जाता है. जिनमें कुफरी बादशाह, कुफरी सिंधुरी, कुफरी चिप्सोना- 3, कुफरी सदाबहार, कुफरी ज्योति, कुफरी फ़्राईसोना, कुफरी बहार, कुफरी सतुलज, कुफरी लालिमा, कुफरी सतलुज, कुफरी चिप्सोना- 1, कुफरी चिप्सोना- 4 और कुफरी पुष्कर जैसी किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
आलू की खेती के लिए मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी होता है. इसके लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए. उसके बाद खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से दो गहरी जुताई कर खुला छोड़ दें. 10 से 15 दिन खुला छोड़ने के बाद खेत में पुरानी गोबर की खाद या वर्मी कापोस्ट खाद को उचित मात्रा में फैला दें. खाद डालने के बाद उसकी दो से तीन तिरछी जुताई कर दें.
जुताई करने के बाद खेत में पानी चलाकर उसका पलेव कर दें. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद जब भूमि की ऊपरी सतह सूखने लगे तब खेत में रासायनिक खाद की उचित मात्रा का छिडकाव कर रोटावेटर चला दें. जिससे मिट्टी भुरभुरी दिखाई देने लगती हैं. मिट्टी भुरभुरी होने के बाद खेत में पाटा चलाकर उसे समतल बना दें. आलू की रोपाई समतल भूमि में मेड बनाकर की जाती है. इसके लिए खेत में उचित आकार की मेड का निर्माण कर लें.
बीज रोपाई का तरीका और टाइम
आलू के बीज के रूप में आलू का ही इस्तेमाल किया जाता है. इसके लिए लिए ज्यादातर छोटे आलू के कंदों को खेतों में उगाया जाता है. लेकिन अगर आलू का आकार ज्यादा बड़ा हो तो उसमें दो से तीन आखें रखते हुए काट लिया जाता है. इसके कंदों की रोपाई से पहले उन्हें उपचारित कर लेना चाहिए. इसके लिए कंदों को इंडोफिल की उचित मात्रा में लगभग 15 मिनट तक डुबोकर रखा जाना चाहिए. एक हेक्टेयर खेती के लिए 15 से 30 क्विंटल के आसपास आलू के कंदों की जरूरत होती है.
आलू के कंदों की रोपाई समतल भूमि में मेड बनाकर की जाती है. इसके लिए मेड़ों के बीच लगभग एक फिट के आसपास जगह होनी चाहिए. और मेड़ों की चौड़ाई भी एक फिट के आसपास ही होनी चाहिए. मेड पर इसके कंदों को लगभग 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर 5 से 7 सेंटीमीटर की गहराई में लगाना चाहिए. इसके अंकुरित हुए बीज को खेत में लगाना ज्यादा अच्छा होता है.
आलू की खेती रबी की फसल के वक्त सर्दियों के मौसम में की जाती है. इस दौरान इसके कंदों की रोपाई मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक कर देनी चाहिए. इसके बाद इसे नवम्बर माह के लास्ट तक भी उगा सकते हैं. इससे ज्यादा देरी होने के बाद पौधे गर्मियों के मौसम में उखाड़े जाते हैं. जिससे फसल के ख़राब होने की संभावना ज्यादा हो जाती है.
पौधों की सिंचाई
आलू के कंदों को नमी युक्त भूमि में लगाने पर उनकी सिंचाई लगभग 5 दिन बाद की जाती है. उसके बाद जब पौधे से अंकुर अच्छे से निकल आयें तब पौधों के विकास के लिए उन्हें 10 से 15 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. आलू के पौधों को पानी ज्यादा जरूरत इसके कंदों के विकास के दौरान होती है. इस दौरान खेत में नमी की कमी ना होने दे. क्योंकि कंदों के अच्छे विकास करने पर पैदावार अधिक मिलती है.
उर्वरक की मात्रा
आलू के पौधों को उर्वरक की ज्यादा जरूरत होती है. क्योंकि इसके पौधे विकास करने के लिए भूमि की ऊपरी सतह से ही अपने लिए आवश्यक तत्व हासिल करते हैं. इसके लिए खेत की जुताई के वक्त लगभग 15 गाडी पुरानी गोबर की खाद प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में डालनी चाहिए. और रासायनिक खाद के रूप में दो बोरे डी.ए.पी. खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में डालनी चाहिए. इनके अलावा लगभग 25 किलो यूरिया पौधों को विकास के दौरान सिंचाई के साथ देना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
आलू की खेती में खरपतवार नियंत्रण करना सबसे जरूरी होता है. इसकी खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीके से किया जाता है. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेंडामेथालिन की उचित मात्रा का छिडकाव बीज रोपाई के तुरंत बाद कर देना चाहिए. इससे खेत में खरपतवार जन्म नही लेती है. और लेती भी हैं तो उनकी मात्रा बहुत कम होती है. जिन्हें मिट्टी चढ़ाई के दौरान हटा देते हैं.
प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों को दो से तीन गुड़ाई की जाती है. आलू के पौधों की पहली गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद कर देनी चाहिए. उसके बाद बाकी की गुड़ाई पहली गुड़ाई के बाद 15 से 20 दिन के अंतराल में कर देनी चाहिए.
पौधों की देखभाल
आलू के पौधों के विकास के दौरान उनकी देखभाल की जरूरत होती है. जब आलू के कंद विकास करने लगे तब हर गुड़ाई के वक्त उन पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. और पौधों की सिंचाई के वक्त धीमें बहाव में पानी देना चाहिए, ताकि मिट्टी का कटाव ना हो पाए. इसके अलावा आलू के पौधों पर पाले का प्रभाव ना हो इसके लिए तेज़ सर्दी के दौरान पौधों की हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
आलू के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी उचित टाइम रहते रोकथाम करने से पौधों को नष्ट होने से बचाया जा सकता है.
अगेती अंगमारी
पौधों पर इस रोग का प्रकोप पौधों के विकास के वक्त देखने को मिलता है. पौधों पर यह रोग नीचे से ऊपर की तरफ बढ़ता है. इस रोग के लगने पर पौधे की शुरुआती नीचे की पत्तियों पर भूरे रंग के कोणीय धब्बे बनने लगते है. रोग के बढ़ने के पर पौधा कुछ दिन बाद सूखकर नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर इंडोफिल या फाइटोलान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
ब्लैक स्कर्फ
आलू के पौधों में ये रोग पौधों के अंकुरण के बाद किसी भी वक्त दिखाई दे सकता है. इस रोग के लगने पर पौधों पर काले रंग के उठे हुए धब्बे दिखाई देते हैं. जिनका प्रकोप बढ़ने पर बढ़ने पर पौधे नष्ट हो जाते हैं. इसकी रोकथाम के लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर लगाना चाहिए.
पछेती अंगमारी
पछेती अंगमारी का रोग पौधों पर फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों के किनारों पर भूरे धब्बे बनने लगते हैं. जो धीरे धीरे फैलकर पूरे पौधे पर फैल जाते हैं. जिससे पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है. इस रोग के लगने पर पौधों पर रिडोमिल एम. जेड की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
लीफ रोल
आलू के पौधों पर लगने वाले इस रोग को पत्ती मुंडल के नाम से भी जाना जाता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियां अंदर की तरफ मुड़ने लगती है. जिन्हें छूने पर ही पत्तियां टूटकर गिर जाती है. इस रोग के लगने पर पौधों पर एंडोसल्फान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
कटुआ कीट
आलू के पौधों पर लगने वाला ये एक कीट रोग है. जिसका लार्वा आलू के पौधों को जमीन की सतह के पास से काटकर नष्ट कर देते हैं. इस रोग के लार्वा पौधे को रात के वक्त कटते हैं. इस रोग के लगने पर पैदावार को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेटारीजियम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
हड्डा बीटल
हड्डा बीटल का रोग किट के कारण लगता है. इस रोग के किट लाल, पीले और काले रंग के होते हैं. ये कीट पौधे की पत्तियों को खाकर पौधों को ज्यादा नुकसान पहुँचाते है. पत्तियों के खाने से पत्तियां जालीदार दिखाई देने लगती है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में ब्यूवेरिया के मिश्रण को डालना चाहिए.
फलों का हरा होना
आलू की खेती में यह रोग तापमान की वृद्धि और कदों के उखड जाने पर होता है. जिसकी वजह से आलू के नए कंद हरे दिखाई देने लगते हैं. इसके बचाव के लिए कंदों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. और अधिक गर्मी होने पर पानी देते रहना चाहिए.
कंदों की खुदाई और सफाई
आलू की अधिकांश किस्मों के कंद 80 से 90 दिन में पक जाते हैं. जबकि कुछ 140 दिन बाद पकते हैं. इस दौरान इन्हें अधिक गर्मी बढ़ने से पहले खोदकर निकाल लेना चाहिए. इसके कंदों को खोदने के लिए वर्तमान में कई तरह की मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है.
कंदों की खुदाई के बाद उनकी सफाई की जाती है. जिसके लिए उन्हें साफ़ पानी से धोया जाता है. जिससे उन पर लगी मिट्टी हट जाती है. और कंदों का रंग साफ़ दिखाई देने लगता है. कदों की सफाई करने के बाद उनकी छटनी की जाती है. जिसमें अलग अलग आकार के आलू के कंदों को अलग कर लिया जाता है. ज्यादा छोटे और बड़े आलुओं को अलग कर बीज के लिए कोल्ड स्टोरेज में रखाव देना चाहिए. और सामान्य आकार वाले आलुओं को बाज़ार में बेच देना चाहिए.
पैदावार और लाभ
आलू की विभिन्न किस्मों को औसतन पैदावार 250 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. जिसका बाज़ार भाव 400 से लेकर 1200 रुपये प्रति क्विंटल तक पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक हेक्टेयर से एक बार में डेढ़ से दो लाख तक की कमाई आसानी से कर लेता है.
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