उड़द की खेती दलहन फसल के रूप में की जाती है. भारत में इसे अलग अलग जगहों पर माष, कलाई, माँह और उरद के नाम से भी जाना जाता है. उड़द की दाल को पौष्टिक आहार माना जाता हैं. इसकी दाल में प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन और कार्बोहाइड्रेट जैसे तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. उड़द की दाल का इस्तेमाल खाने में कई तरह से किया जाता है. इसका इस्तेमाल कई तरह की बीमारियों में भी उपयोगी होता है. उड़द की खेती हरी खाद के लिए भी की जाती है. जिससे भूमि की उर्वरक शक्ति बढती हैं.
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उड़द की दाल का पौधा दो फिट के आसपास लम्बाई का पाया जाता हैं. भारत में इसकी खेती खरीफ और जायद दोनों मौसम में की जाती हैं. इसकी खेती के लिए गर्मी का मौसम उपयोगी होता है. इस दौरान खेत में पानी और उर्वरक की पूर्ति कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है. भारत में इसकी खेती उत्तर भारत के मैदानी राज्यों में बड़े पैमाने पर की जाती हैं. इसकी खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु की जरूरत होती है.
अगर आप भी इसकी खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
उड़द की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. लेकिन अधिक उत्पादन के लिए इसे उचित सिंचाई वाली जगहों पर बलुई दोमट मिट्टी में उगाना चाहिए. इसकी खेती के लिए मिट्टी का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
उड़द का पौधा उष्णकटिबंधीय जलवायु का पौधा है. इसको विकास करने के लिए शुष्क और आद्र मौसम की जरूरत होती है. इसके पौधों को विकास करने के लिए बारिश की सामान्य जरूरत होती है. लेकिन पौधों पर फलियों के पकने के दौरान होने वाली बारिश नुकसानदायक होती है. इस दौरान बारिश होने से फलियाँ कमजोर पड़ जाती हैं. फसल के पकने के दौरान इसके पौधों को गर्म मौसम की जरूरत होती है.
उड़द के पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद इसके पौधे को विकास करने के लिए 30 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. इसका पौधा अधिकतम 45 डिग्री तापमान को सहन कर सकता हैं. लेकिन इस दौरान पौधे को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती हैं.
उन्नत किस्में
उड़द की कई तरह की किस्में पाई जाती हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर जल्दी और उत्तम पैदावार लेने के लिए उगाया जाता हैं.
टी. 19
उड़द की ये एक जल्दी पकने वाली किस्म हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 से 12 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 70 से 80 दिन बाद पककर तैयार हो जाती हैं. इस किस्म के पौधों का दाना मोटे आकार वाला और गहरे काले रंग का होता हैं. उड़द की इस किस्म को खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाया जा सकता हैं.
कृष्णा
उड़द की इस किस्म के पौधे सामान्य आकार के होते हैं, जो बीज रोपाई के लगभग 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 12 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधों का दाना अंदर से भूरे रंग में बड़े आकार का होता हैं.
पंत यु 19
दाल की इस किस्म को मध्य और पश्चिमी भारत में खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 80 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों पर पीला मौजेक का रोग देखने को नही मिलता. इस किस्म के पौधों का आकार सामान्य होता हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 से 12 किवंटल तक पाया जाता हैं. इसके दानो का आकार छोटा और रंग काला दिखाई देता हैं.
जे. वाई. पी.
उड़द की इस किस्म को उत्तर प्रदेश में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे दो से ढाई फिट की लम्बाई के होते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 13 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 80 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. उड़द की इस किस्म को मुख्य रूप से खरीफ की फसल के साथ में उगाया जाता हैं.
आर.बी.यू. 38
उड़द की इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 80 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इसके दानो का आकार बड़ा और हल्का काला दिखाई देता हैं. इस किस्म के पौधों पर पत्ती धब्बा का रोग देखने को नही मिलता.
यु.जी. 218
उड़द की इस किस्म को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में अधिक उगाया जाता हैं. इस किस्म को कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 80 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इसके पौधे पीले मौजेक रोग के प्रति सहनशील होते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं.
जवाहर उड़द 2
उड़द की इस किस्म के पौधे डेढ़ से दो फिट की लम्बाई के पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 70 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 13 किवंटल के आसपास पाया जाता हैं. इसके दानो का आकर बड़ा और रंग काला दिखाई देता हैं. इस किस्म के पौधे पर पत्ती धब्बा या पीला मौजेक रोग देखने को नही मिलता.
इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिनको अधिक उत्पादन लेने के लिए सम्पूर्ण भारत में उगाया जाता है. जिनमें के यू- 301, टी यू- 94-2, ए के यू- 4, ए डी टी- 5, आजाद उड़द- 1, के यू- 92-1, ए डी टी- 4, वांबन- 1. के यू- 309 और एल बी जी- 20 जैसी काफी किस्में शामिल हैं.
खेत की तैयारी
उड़द की खेती के लिए शुरुआत में खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से जुताई कर दें. उसके बाद कुछ दिन तक खेत को खुला छोड़ कर उसमें पुरानी गोबर की खाद को डालकर मिट्टी में मिला दें. खाद को मिलाने के लिए खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दें. अगर इसकी पैदावार किसान भाई जायद की फसल के रूप में करन चाहता है तो खाद मिलाने के बाद पानी चलाकर खेत का पलेव कर दे. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद जब भूमि ऊपर से हल्की सूखने लगे तब खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें. रोटावेटर चलाने के बाद खेत में पाटा लगाकर उसे समतल बना लें. जिससे खेत में जल भराव वाली समस्या उत्पन्न ना हो सके.
बीज रोपाई का तरीका और टाइम
उड़द के बीजों को खेत में उगाने से पहले उन्हें उपचारित कर लेना चाहिए. बीजों को उपचारित करने के लिए थिरम या कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का इस्तेमाल करना चाहिए. इसके अलावा इसके बीजों को राइजोबियम कल्चर द्वारा लगाने से इसका उत्पादन 15 प्रतिशत तक बढ़ जाता है.
बीजों को राइजोबियम कल्चर के माध्यम से तैयार करने के लिए राइजोबियम कल्चर की उचित मात्रा को गुड और पानी के काढ़े में मिलाकर बीजों को तैयार घोल में डालकर 6 से 7 घंटे रख दें. उसके बाद इसके बीजों को सुखाकर उनकी रोपाई कर दें. इसके बीजों की रोपाई अलग अलग समय पर मौसम के अनुसार की जाती है. जायद के मौसम में इसके बीजों की रोपाई के लिए प्रति हेक्टेयर 15 से 20 किलो बीज की जरूरत होती है. जबकि खरीफ के समय रोपाई के लिए 10 से 12 किलो बीज काफी होता है.
उड़द के बीजों की रोपाई मशीनों की सहायता से पंक्तियों में की जाती हैं. जबकि हरी खाद बनाने के लिए इसकी रोपाई छिडकाव विधि से भी करते हैं. पंक्तियों में रोपाई के वक्त प्रत्येक पंक्तियों के बीच लगभग एक से सवा फिट की दूरी होनी चाहिए. जबकि पंक्तियों में पौधों के बीच 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी उपयुक्त होती है. इसके बीजों की रोपाई के वक्त बीजों को तीन से चार सेंटीमीटर की गहराई में उगाना चाहिए. इसके अलावा इसकी की खेती सहायक फसल के रूप में भी की जाती है. इस दौरान इसकी रोपाई अलग अलग मुख्य फसलों की स्थिति के अनुसार की जाती है.
खरीफ के मौसम में इसकी पैदावार के लिए इसके बीजों की रोपाई जून के प्रथम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए. जबकि जायद के मौसम में पैदावार लेने के लिए इसके बीजों की रोपाई मार्च और अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में कर देनी चाहिए.
पौधों की सिंचाई
उड़द के पौधों को सिंचाई की सामान्य जरूरत होती है. लेकिन जायद के समय उगाई जाने वाली फसल को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती हैं. इस दौरान इसके पौधों की पहली सिंचाई बीज रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद कर देनी चाहिए. उसके बाद बाकी की सिंचाई 10 से 15 दिन के अंतराल में करते रहना चाहिए. इसके पौधों को चार से पांच सिंचाई की ही जरूरत होती है. इसके पौधों पर फली बनने के वक्त खेत में नमी की उचित मात्रा बनाए रखने पर पैदावार अधिक मिलती है. क्योंकि नमी की वजह से फलियों में दानों के आकार और संख्या दोनों में वृद्धि होती है.
खरीफ की फसलों के साथ उगाई जाने वाली किस्मों को शुरुआत में सिंचाई की जरूरत नही होती क्योंकि इस दौरान बारिश का मौसम बना रहता हैं. लेकिन बारिश वक्त पर ना हो और पौधों को पानी की जरूरत हो तो सिंचाई कर देनी चाहिए. खरीफ के मौसम में इसकी रोपाई करने पर दो से तीन सिंचाई की ही जरूरत होती है.
उर्वरक की मात्रा
उड़द की खेती के लिए उर्वरक की जरूरत बाकी दलहनी फसलों की तरह ही होती है. इसकी खेती के लिए शुरुआत में खेत की जुताई के वक्त जैविक खाद के रूप में पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में 80 किलो डी.ए.पी. की मात्रा को फसल की रोपाई से पहले खेत में छिड़क दें.
इनके अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व के रूप में सल्फर और जिंक की उचित मात्रा का छिडकाव बीज रोपाई से पहले खेत में करना चाहिए. जबकि भूमि में नाइट्रोजन की आपूर्ति इसके पौधे खुद करते हैं. लेकिन शुरुआत में नाइट्रोजन की आपूर्ति के लिए 25 किलो के आसपास यूरिया का छिडकाव प्रति हेक्टेयर के हिसाब से करना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
उड़द के पौधों में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक तरीके से किया जाता है. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथालीन की उचित मात्रा का छिडकाव जमीन पर बीज रोपाई के तुरंत बाद कर देना चाहिए. जबकि प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण नीलाई गुड़ाई के माध्यम से किया जाता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके पौधों की पहली नीलाई गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 25 से 30 दिन बाद कर देनी चाहिए. उसके बाद दूसरी गुड़ाई, पहली गुड़ाई के 15 दिन बाद कर देनी चाहिए. उड़द के पौधों की दो गुड़ाई काफी होती है.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
उड़द के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी उचित टाइम रहते देखभाल नहीं की जाए तो पैदावार को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचता हैं.
सफ़ेद मक्खी
उड़द के पौधों में सफ़ेद मक्खी रोग का प्रभाव पौधे की पत्तियों पर देखने को मिलता है. सफ़ेद मक्खियों के आक्रमण की वजह से पौधों पर पीला मौजेक रोग का प्रभाव बढ़ जाता है. इस रोग के कीट पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उन्हें नष्ट कर देते हैं. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर ट्रायजोफॉस या डायमिथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
पत्ती मुडाई का रोग
उड़द के पौधों में लगने वाला पत्ती मुडाई रोग इसके पौधों के विकास को अधिक प्रभावित करता है. इस रोग के लगने से पौधे की पत्तियां अंदर की तरफ मुड़कर पीली पड़ने लग जाती है. और कुछ दिनों बाद पत्तियां गिर जाती है. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर ऐसीफेट या डायमेथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
फली छेदक रोग
उड़द की फसल में फली छेदक रोग का प्रभाव होने से पैदावार को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचता है. इस रोग की सुंडी इसकी फलियों में जाकर अंदर से इसके दानो को खराब कर देती है. जिससे इसकी पैदावार कम प्राप्त होती है. इस रोग की रोकथाम करने के लिए पौधों पर शुरुआत में मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. और अगर रोग का प्रभाव अधिक बढ़ जाए तो इसका छिडकाव 10 दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए.
पीला चितेरी रोग
उड़द के पौधों पर लगने वाला ये एक विषाणु जनित रोग हैं. इसके पौधों में पीली चितेरी रोग का प्रभाव पौधों की पत्तियों पर देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों का रंग पीला दिखाई देने लगता हैं. ये रोग एक पौधे से दूसरे पौधे पर बड़ी तेज़ी से फैलता है. जिससे पूरी फसल बर्बाद हो जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड या डायमिथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव रोगग्रस्त पौधों पर करना चाहिए.
पर्ण संकुचन
उड़द के पौधों पर लगने वाला ये एक विषाणु जनित रोग हैं. जिसका प्रभाव दक्षिण भारत में अधिक देखने को मिलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव किसी भी अवस्था में दिखाई दे सकता है. इस रोग के लगने पर पौधे की नई पत्तियों और पार्श्व शाखाएँ किनारों पर से पीली दिखाई देने लगती है. इस रोग से ग्रसित पौधे की पत्तियों को हिलाने मात्रा से ही पत्तियां गिर जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर इमीडाक्रोपिरीड की उचित मात्रा का छिडकाव बीज रोपाई के 20 दिन बाद कर देना चाहिए.
पत्ती छेदक
उड़द के पौधों पर लगने वाला ये एक कीट जनित रोग हैं. जिसको सेमी लूपर के नाम से भी जाना जाता है. इस रोग के कीट पौधों की पतीयों को खाकर पौधे के विकास को रोक देते हैं. इस रोग का प्रभाव बढ़ने पर पौधों की पत्तियां छलनी की तरह दिखाई देती हैं. जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करना बंद कर देता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर फेनोफॉस की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
फसल की कटाई
उड़द की विभिन्न किस्मों के पौधे बीज रोपाई के लगभग 80 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. फसल के पकने पर पौधे की पतीयाँ पीली पड़कर गिरने लग जाती है. और फलियों का रंग काला दिखाई देने लगता है. इस दौरान इसके पौधों को जमीन की सतह के पास से काट लेना चाहिए. इसके पौधों को काटने के बाद कुछ दिन सूखने के लिए खेत में ही एकत्रित कर दें. जब इसकी फलियाँ अच्छे से सूख जाएँ तब उन्हें थ्रेसर की सहायता ने निकलवा लेना चाहिए. इसकी फसल को निकलवाने के बाद किसान भाई उचित समय पर बेचकर अच्छा लाभ कमा सकता है.
पैदावार और लाभ
उड़द की विभिन्न किस्मों की प्रति हेक्टेयर औसतन पैदावार 12 किवंटल के आसपास पाई जाती है. जिसका बाज़ार भाव 8 हज़ार रूपये प्रति किवंटल के आसपास पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से 80 से 90 हज़ार तक की कमाई आसानी से कर लेता है.