अफीम के पौधे का इस्तेमाल औषधि और नशीले पदार्थ को बनाने में किया जाता है. इस कारण इसकी खेती सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त करने के बाद ही की जाती है. नारकोटिक्स विभाग इसकी खेती के लिए लाइसेंस जारी करता है. बिना लाइसेंस के खेती करने पर सज़ा का प्रावधान है. अफीम की खरीददारी भी सरकार द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर सरकार द्वारा ही की जाती है. लेकिन खुले बाज़ार में इसका भाव सरकारी भाव से कई गुणा अधिक पाया जाता है.
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अफीम का पौधा लगभग 4 फिट तक की ऊंचाई का होता है. जिसको शुष्क और अर्धशुष्क प्रदेशों में उगाया जाता है. अफीम की खेती राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में अधिक मात्रा में की जाती है. अफीम की खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए. अफीम की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. अफीम की खेती एक बहुत मेहनत वाली खेती है.
अगर आप भी अफीम की खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
अफीम की खेती एक लिए कार्बनिक पदार्थों से युक्त उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की आवश्यकता होती है. जल भराव या बंजर भूमि में इसकी खेती नही की जा सकती. क्योंकि जल भराव की वजह से इसके पौधे नष्ट हो जाते हैं. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
अफीम का पौधा समशीतोष्ण जलवायु में बहुत ही अच्छे से विकास करता है. भारत में इसकी खेती रबी की फसलों के साथ की जाती है. इसके पौधे को अधिक बारिश की आवश्यकता नही होती. अफीम की खेती सर्दी के मौसम में की जाती है. लेकिन सर्दियों में पड़ने वाला पाला और अधिक तेज़ सर्दी इसकी पैदावार को नुक्सान पहुँचाती है.
अफीम की खेती के लिए आदर्श तापमान की आवश्यकता होती है. इसके पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है. जबकि पौधे पर फलों की पकाई के वक्त 25 डिग्री के आसपास का तापमान उपयुक्त होता है.
उन्नत किस्में
अफीम की वर्तमान में कई तरह की उन्नत किस्में मौजूद है. जिनका उत्पादन अलग अलग जगहों के हिसाब से किया जाता है. जिनमें जवाहर अफीम – 16, जवाहर अफीम – 539 और जवाहर अफीम – 540 किस्मों को मध्यप्रदेश में अधिक मात्रा में उगाया जाता है. वहीँ एम.ओ. पी. – 540, चेतक और आई. सी. 42 को राजस्थान और गुजरात में उगाया जाता है. इन सभी किस्मों की पैदावार और उनकी गुणवत्ता भौतिक कारको पर अधिक निर्भर करती है.
खेत की तैयारी
अफीम के बीज की रोपाई के लिए खेत की अच्छे से जुताई की जानी चाहिए. इसके लिए पहले खेत में मौजूद पुरानी फसल के सभी तरह के अवशेष को नष्ट कर खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए. खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हलों से करनी चाहिए. उसके बाद खेत को कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दें. खेत को खुला छोड़ने के कुछ दिन बाद खेत में उचित मात्र में रासायनिक उर्वरक और पुरानी गोबर की खाद डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी छोड़कर खेत का पलेव कर दें. पलेव करने के दो से तीन दिन बाद जब जमीन की ऊपरी सतह सूखी हुई दिखाई देने लगे तब खेत की रोटावेटर चलाकर गहरी जुताई कर दें. उसके बाद खेत में पाटा चलाकर मिट्टी को समतल बना दे.
बीज रोपण का तरीका और टाइम
अफीम के बीज का रोपण गेहूँ और बाजरे की तरह ही छिडकाव और ड्रिल विधि के माध्यम से किया जाता है. छिडकाव विधि से बीजों की रोपाई करने के लिए एक हेक्टेयर में 7 से 8 किलो बीज की आवश्यकता होती है. जबकि ड्रिल के माध्यम से रोपाई के लिए 5 से 6 किलो बीज काफी होता है. अफीम के बीज की रोपाई करने से पहले उसे उपचारित कर लेना चाहिए. ताकि पौधे को शुरूआती किसी रोग का सामना नही करना पड़े. बीज को उपचारित करने के लिए मेटालेक्सिल, एप्रोन और नीम के तेल का इस्तेमाल करना चाहिए.
अफीम के बीज को छिडकाव विधि से उगाने के लिए समतल खेत में बिज़ को छिडककर खेत की दो हलकी जुताई कर देते हैं. इस दौरान कल्टीवेटर के पीछे हल्का पाटा ( मेज़ ) बांधकर रखते हैं. इससे बीज अच्छे से मिट्टी में मिल जाता है. जबकि ड्रिल विधि में इसकी रोपाई मशीनों के माध्यम से की जाती है. ड्रिल विधि से इसकी रोपाई उचित दूरी पर पंक्ति में की जाती है. प्रत्येक पंक्तियों के बीच लगभग एक फिट की दूरी होनी चाहिए. और कतार में लगाये जाने वाले पौधों के बीच लगभग 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी होनी चाहिए.
अफीम के बीजों की रोपाई रबी की फसल के साथ की जाती है. इस दौरान इसके बीजों की रोपाई अक्टूबर और नवम्बर माह में की जाती है. लेकिन अक्टूबर माह में इसके बीज की रोपाई करना अच्छा होता है. अक्टूबर माह में इसकी रोपाई करने पर पौधा अच्छे से विकास कर पाता है. जिससे पैदावार भी अच्छी होती है.
पौधों की सिंचाई
अफीम के पौधे को सिंचाई की जरूरत शुरुआत में अधिक होती है. शुरुआत में इसके बीजों की रोपाई करने के तुरंत बाद पानी दे देना चाहिए. उसके बाद बीज के अंकुरित होने तक नमी बनाए रखने के लिए दो से तीन दिन के अंतराल में पौधों की सिंचाई करते रहना चाहिए. और जब पौधा अंकुरित हो जाए तब उसकी 10 से 15 दिन के अंतराल में सिंचाई करनी चाहिए. जब पौधे पर डोडे बनने लगे तब पौधे में पानी की आपूर्ति रखनी चाहिए. इसके लिए पौधों को सप्ताह में 1 बार पानी देना चाहिए.
उर्वरक की मात्रा
खेत की जुताई के दौरान खेत में 15 गाडी प्रति एकड़ के हिसाब से पुरानी गोबर की खाद को डालकर उसे मिट्टी में मिला दें. और बीज रोपाई से पहले लगभग 80 किलो डी.ए.पी. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में देना चाहिए. इनके अलावा प्रति एकड़ एक किलो गंधक खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में डाल दें. जब बीज अंकुरित होकर पौधे बन जाए तब लगभग 40 किलो यूरिया की मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर खेत में सिंचाई के साथ देना चाहिए. इसकी पहली मात्रा पौधे के विकास के दौरान और दूसरी मात्रा पौधे पर डोडे बनने के दौरान देनी चाहिए.
पौधों की देखभाल और छटाई
बीज रोपाई के बाद से लेकर कटाई तक इसकी खेती करने वालों की मान्यता है की वो अपने खेतों में नंगे पैर ( बीना चप्पल और जूते ) रहते हैं. क्योंकि लोग अफीम को काली माँ के रूप में मानते हैं. इसके पौधों की देखभाल की जरूरत शुरुआत से ही होती है. दरअसल छिडकाव विधि से बीज की रोपाई करने पर पौधों को अधिक देखभाल की जरूरत होती है. क्योंकि इस विधि से खेत करने पर पौधे खेत में असामान्य दूरी पर उगते हैं. इन पौधों के उगने के बाद उनकी छटाई की जाती है. इस दौरान अच्छे से विकास कर रहे पौधों के बीच सामान्य दूरी रखते हुए बाकी पौधों को उखाड़कर अलग कर दिया जाता है.
खरपतवार नियंत्रण
अफीम की खेती में खरपतवार नियंत्रण काफी अहम होता है. इसकी खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक तरीके से ना कर, नीलाई गुड़ाई के माध्यम से करते हैं. क्योंकि रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण करने पर अफीम की गुणवत्ता में कमी देखने को मिलती है. जिससे सरकार द्वारा खरीदने पर उसका भाव कम मिलता है.
इसके पौधों की पहली गुड़ाई बीज रोपण के लगभग 15 से 20 दिन बाद की जाती है. अफीम के पौधे की तीन से चार गुड़ाई करना अच्छा होता है. इसकी दूसरी गुड़ाई बीज रोपण के 40 दिन बाद करनी चाहिए. और बाकी की दोनों गुड़ाई दूसरी गुड़ाई के लगभग 20 से 30 दिन बाद की जानी चाहिए.
पौधों पर लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
अफीम के पौधे पर कई तरह के रोग पाए जाते हैं. जिनकी उचित टाइम पर देखभाल करना जरूरी होता है. क्योंकि पौधे पर रोग बढ़ने की अवस्था में पैदावार के साथ साथ पौधे को भी अधिक नुक्सान पहुँचता है.
काली मस्सी
अफीम के पौधों पर लगने वाला ये एक मुख्य रोग है. इस रोग के लगने पर पौधे की पैदावार कम हो जाती है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर भूरे काले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. जिससे पौधे का बढ़ाव रुक जाता है. धीरे धीरे रोग बढ़ने पर पौधे की पत्तियां सूखकर गिरने लगती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर मेंकोजेब और मेटालेक्सिल की उचित मात्रा का छिडकाव 20 से 25 दिन के अंतराल में तीन बार करना चाहिए.
जड़ गलन
अफीम के पौधे में जड़ गलन का रोग वायरस जीव और जल भराव की वजह से लगता है. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधा मुरझाने लगता है. उसके बाद पौधे की पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है. इस रोग के लगने पर पौधे के नष्ट होने की प्रक्रिया बहुत जल्द पूर्ण होती है. इसके बचाव के लिए खेत में जल भराव की स्थिति उत्पन्न ना होने दें. इसके अलावा ट्रायकोड्रामा या मेंकोजेब की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों की जड़ों में करना चाहिए.
डोडे की लट
अफीम के पौधों में ये रोग पौधे पर बनने वाले डोडों पर देखने को मिलता है. अफीम के डोडों में कीट का लार्वा अंदर जाकर उसके बीजों को खा जाता है. जिससे अफीम की पैदावार को नुक्सान पहुँचता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफॉस और क्यूनालफॉस की उचित मात्रा का छिडकाव दो बार 10 से 15 दिन के अंतराल में करना चाहिए.
दीमक और सफ़ेद इल्ली
अफीम के पौधे को दीमक और सफ़ेद इल्ली जमीन के अंदर रहकर नुक्सान पहुँचाती है. ये दोनों किट पौधे की जड़ों को खाकर पौधे की वृद्धि रोक देते हैं. जिससे पौधा शुरुआत में मुरझाने लगता है. और कुछ दिन बाद पौधा पूरी तरह से सुख जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों में क्लोरोपायरीफॉस का छिडकाव करना चाहिए.
सफेद मक्खी
अफीम के पौधे पर सफेद मक्खी का प्रभाव पौधों के विकास की अवस्था में अधिक देखने को मिलता है. इस रोग के कीट पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर पाए जाते हैं. जिनका आकार छोटा और रंग सफ़ेद होता है. ये कीट पौधे की पत्तियों का रस चूसते रहते है. जिससे पत्तियों का रंग पीला दिखाई देने लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर इमिडाक्लोप्रिड या डाइमिथोएट की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
चूर्णिल आसिता
इस रोग को पाउडरी मिल्ड्यू और छाछिया रोग के नाम से भी जाना जाता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर सफ़ेद रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. जिनका आकर समय के साथ बढ़ता जाता है और पूरी पत्ती पर सफ़ेद पाउडर जैसा दिखाई देता है. इस रोग की वजह से पौधा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करना बंद कर देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर टेबुकोनाजोल की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
अफीम निकालना
जब पौधे पर डोडे बनकर तैयार हो जाएँ तब उनसे अफीम निकाली जाती है. इसके लिए पहले दिन चार बलेड वाले एक हथियार से डोडों पर लंबा कट लगा देते हैं. जिससे सफ़ेद रंग का दूध निकलता है. डोडे पर कट लगाकर उसे छोड़ दिया जाता है. अफीम के डोडों पर कट हमेशा शाम के वक्त ही लगाना चाहिए. ताकि सुबह जल्द अफीम को डोडों से अलग कर लिया जाए. रात भर डोडों पर बनने वाली अफीम का रंग हल्का गुलाबी हो जाता है.
अफीम के बीज की कटाई और गहाई
जब अफीम के डोडे पककर तैयार हो जाते हैं तब इन्हें पौधों से अलग कर लिया जाता हैं. अफीम का डोडा पकने के बाद पीला पड़कर सुख जाता है. तब इन्हें पौधे से तोड़कर अलग किया जाता है. डोडे तोड़ने के बाद उनसे बीज निकालने के लिए डोडों की गहाई की जाती है. इसके लिए डोडों को तोड़ने के बाद उन्हें फोड़कर उनसे बीज निकाला जाता है. लेकिन वर्तमान में कुछ ऐसे मशीने आ चुकी हैं जिनके माध्यम से इनकी गहाई की जाती है. अफीम के बीज सफ़ेद और काले रंग के होते हैं.
पैदावार और लाभ
अफीम की एक हेक्टेयर पैदावार से लगभग 60 से 70 किलो दूध प्राप्त किया जा सकता है. जिसको उसकी गुणवत्ता के आधार पर एक से दो हज़ार रूपये प्रति किलो के हिसाब से बेचा जाता है. इसके अलावा इसकी खेती में एक हेक्टेयर से 10 से 12 क्विंटल अफीम के दाने प्राप्त होते हैं. और 9 से 10 क्विंटल डोडा चुरा प्राप्त होता है. जिसको बेचकर किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से अच्छी खासी कमाई कर लेता है.
Afim ki agati buvai kab ki jati h