रागी (मडुआ) की खेती कैसे करें

रागी की खेती मोटे अनाज के रूप में की जाती है. रागी मुख्य रूप से अफ्रीका और एशिया महाद्वीप में उगाई जाती है. जिसको मडुआ, अफ्रीकन रागी, फिंगर बाजरा और लाल बाजरा के नाम से भी जाना जाता है. इसके पौधे पूरे साल पैदावार देने में सक्षम होते हैं. इसके पौधे सामान्य तौर पर एक से डेढ़ मीटर तक की ऊंचाई के पाए जाते हैं. इसके दानो में खनिज पदार्थों की मात्रा बाकी अनाज फसलों से ज्यादा पाई जाती है.

रागी की खेती

इसके दानो का इस्तेमाल खाने में कई तरह से किया जाता है. इसके दानो को पीसकर आटा बनाया जाता है. जिससे मोटी डबल रोटी, साधारण रोटी और  डोसा बनाया जाता है. इसके दानो को उबालकर भी खाया जाता है. इसके अलावा इसका इस्तेमाल शराब बनाने में भी किया जाता हैं.

रागी की खेती के लिए शुष्क जलवायु की जरूरत होती है. भारत में ज्यादातर जगहों पर इसे खरीफ की फसल के रूप में उगाते हैं. इसके पौधों को बारिश की ज्यादा आवश्यकता नही होती. इसके पौधों को समुद्र तल से 2000 मीटर तक की ऊंचाई पर सफलतापूर्वक उगाया जा सकता हैं. भारत में इसकी खेती के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दक्षिणी पूर्वी राज्यों में की जाती है. इसकी खेती किसानों के लिए अधिक लाभ देने वाली मानी जाती हैं.

अगर आप भी इसकी खेती कर अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

रागी की खेती कई तरह की उपजाऊ और कार्बनिक पदार्थों से भरपूर मिटटी में कीजा सकती है. लेकिन इसके अच्छे उत्पादन के लिए बलुई दोमट मिट्टी को सबसे उपयुक्त मानी जाती है. इसकी खेती के लिए भूमि में जलभराव नही होना चाहिए. क्योंकि जलभराव होने की वजह से इसके पौधे खराब हो जाते हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 8 के बीच होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

रागी की खेती की लिए शुष्क और आद्र शुष्क जलवायु सबसे उपयुक्त होती है. भारत में इसकी खेती गर्मियों के मौसम में खरीफ की फसल के साथ की जाती है. इस की खेती के लिए गर्मी का मौसम सबसे उपयुक्त होता है. खरीफ की फसल होने के कारण इसे सर्दियों के शुरू होने से पहले ही काट लिया जाता है. इस कारण सर्दी का प्रभाव इस पर देखने को नही मिलता. इसकी खेती के लिए सामान्य बारिश की जरूरत होती है. अधिक बारिश इसकी खेती के लिए उपयुक्त नही होती.

रागी के पौधे गर्मियों के मौसम में अधिकतम 35 डिग्री तापमान पर आसानी से विकास कर लेते हैं. लेकिन शुरुआत में बीजों को अंकुरित होने के लिए 20 से 22 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 30 डिग्री के आसपास के तापमान को उपयुक्त माना जाता है.

उन्नत किस्में

रागी की बाजार में काफी उन्नत किस्में मौजूद हैं. जिन्हें कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है.

जे एन आर 852

रागी की इस किस्म के पौधे 110 से 115 दिन में पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर कुल उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं. रागी की इस किस्म को सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में उगाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे कई तरह के रोग के प्रतिकूल होते हैं. इसका पौधा लगभग एक मीटर की ऊंचाई का होता है.

जी पी यू 45

रागी की ये एक जल्द पककर तैयार होने वाली किस्म है. इन किस्म के पौधे 100 दिन के आसपास पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 30 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधे हरे रंग के होते हैं. जिनकी पत्तियां मुड़ी हुई होती हैं. इस किस्म के पौधों पर पत्ती झुलसा का रोग देखने को नही मिलता.

चिलिका

रागी की इस किस्म को ओ ई बी 10 के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के पौधों की ऊंचाई अधिक पाई जाती है. और पत्तियों की चौड़ाई भी अधिक पाई जाती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 120 से 125 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं.

जे एन आर 1008

उन्नत किस्म का पौधा

रागी की इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 100 दिन बाद ही पककर तैयार हो जाते हैं. रागी की इस किस्म को मध्य भारत में अधिक उगाया जाता है. इसके पौधे सामान्य ऊंचाई के पाए जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 22 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के दानो का रंग गुलाबी पाया जाता हैं.

पी इ एस 400

रागी की ये एक बहुत जल्द पककर तैयार होने वाली किस्म हैं. जिसके पौधे बीज रोपाई के 100 दिन पहले ही पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों की उंचाई तीन फिट के आसपास पाई जाता है. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे पर फफूंदी जनित रोग देखने को कम मिलते हैं.

वी एल 149

रागी की इस किस्म को अगेती पैदावार लेने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 95 से 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधे सामने लम्बाई वाले होते हैं. इसके दाने हल्के भूरे दिखाई देते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 30 क्विंटल तक पाया जाता है.

आर एच 374

रागी की इस किस्म के पौधे मध्य समय में पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 22 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधों की लम्बाई तीन फिट से ज्यादा पाई जाती है. इसके पौधे कीट रोगों के प्रतिकूल पाए जाते हैं.

इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक और उत्तम पैदावार लेने के लिए उगाया जाता है. जिनमें जे एन आर 981, भैरवी, शुव्रा, अक्षय, पी आर 202, एम आर 374, जे एन आर 852 और के एम 65 जैसी काफी किस्में मौजूद हैं.

खेत की तैयारी

रागी की रोपाई के लिए भुरभुरी मिट्टी को अच्छा माना जाता है. क्योंकि भुरभुरी मिट्टी में इसके बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है. रागी की खेती के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के दौरान खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. उसके बाद कुछ दिन खेत को खुला छोड़ दें. ताकि सूर्य की धूप से मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट नष्ट हो जाएं. खेत को खुला छोड़ने के बाद खेत में जैविक खाद के रूप में पुरानी गोबर की खाद को डालकर उन्हें अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन तिरछी जुताई कर दें.

खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चलाकर खेत का पलेव कर दें. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद जब जमीन की ऊपरी सतह हल्की सुखी हुई दिखाई देने लगे तब फिर से खेत की जुताई कर दें. उसके बाद खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल कर दे. ताकि बारिश के मौसम में जलभराव जैसी समस्या का सामना ना करना पड़ें.

बीज की मात्रा और उपचार

रागी की रोपाई के लिए बीज की मात्रा बुवाई की विधि पर निर्भर करती हैं. ड्रिल विधि से रोपाई के दौरान प्रति हेक्टेयर 10 से 12 किलो बीज की जरूरत होती है. जबकि छिडकाव विधि से रोपाई के दौरान लगभग 15 किलो बीज की जरूरत पड़ती हैं. इसके बीज को खेत के लगाने से पहले उसे उपचारित कर लेना चाहिए. बीजों को उपचारित करने के लिए थिरम, बाविस्टीन या कैप्टन दावा का इस्तेमाल किसान भाई कर सकता है.

बीज रोपाई का तरीका और टाइम

ड्रिल विधि से पंक्तियों में रोपाई

रागी के बीजों की रोपाई छिडकाव और ड्रिल दोनों तरीकों से की जाती है. छिडकाव विधि से इसकी बुवाई के दौरान इसके बीजों को समतल की हुई भूमि में किसान भाई छिड़क देते हैं. उसके बाद बीजों को मिट्टी में मिलाने के लिए कल्टीवेटर के पीछे हल्का पाटा बांधकर खेत की दो बार हल्की जुताई कर देते हैं. इससे बीज भूमि में लगभग तीन सेंटीमीटर नीचे चला जाता हैं.

ड्रिल विधि से बिजाई के दौरान इसके बीजों को मशीनों की सहायता से कतारों में लगाया जाता हैं. कतारों में इसकी रोपाई के दौरान प्रत्येक कतारों के बीच लगभग एक फिट दूरी होनी चाहिए. और कतारों में बोये जाने वाले बीजों के बीच 15 सेंटीमीटर के आसपास दूरी होनी चाहिए. रागी के बीजों की दोनों विधि से रोपाई करने के दौरान इसके बीजों को भूमि में तीन से पांच सेंटीमीटर की गहराई में उगाना चाहिए. इससे बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है.

रागी की खेती खरीफ की फसलों के साथ की जाती है. इस दौरान इसके पौधों की रोपाई मई के आखिर से जून माह तक की जाती है. इसके अलावा कई ऐसी जगह हैं जहां इसकी रोपाई जून के बाद भी की जाती हैं. और कुछ लोग इसे जायद के मौसम में भी उगाते हैं.

पौधों की सिंचाई

रागी के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नही होती. क्योंकि इसकी खेती बारिश के मौसम में की जाती हैं. और इसके पौधे सूखे को काफी समय तक सहन कर सकते हैं. अगर बारिश के मौसम में बारिश समय पर ना हो तो पौधों की पहली सिंचाई रोपाई के लगभग एक से डेढ़ महीने बाद कर देनी चाहिए. इसके अलावा जब पौधे पर फूल और दाने आने लगे तब उनको नमी की ज्यादा जरूरत होती है. इस दौरान इसके पौधों की 10 से 15 दिन के अंतराल में दो से तीन बार सिंचाई कर देनी चाहिए. इससे बीजों का आकार अच्छे से बनता है. और उत्पादन भी अधिक प्राप्त होता है.

उर्वरक की मात्रा

रागी के पौधों को उर्वरक की ज्यादा जरूरत नही होती. इसकी खेती के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त लगभग 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में डेढ़ से दो बोरे एन.पी.के. की मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

रागी की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीकों से किया जाता हैं. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए बीज रोपाई के पहले आइसोप्रोट्यूरॉन या ऑक्सीफ्लोरफेन की उचित मात्रा का छिडकाव खेत में कर देना चाहिए. जबकि प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण पौधों की नीलाई गुड़ाई कर किया जाता है. इसके लिए शुरुआत में पौधों की रोपाई के लगभग 20 से 22 दिन बाद उनकी पहली गुड़ाई कर दें. रागी की खेती में प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए दो बार गुड़ाई काफी होती है. इसलिए पहली गुड़ाई के लगभग 15 दिन बाद पौधों की एक बार और गुड़ाई कर दें.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

रागी की खेती में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी अगर वक्त रहते रोकथाम ना की जाए तो पैदावार को काफी नुक्सान पहुँचता है.

पत्ती लपेटल

रागी के पौधों में पत्ती लपेटक रोग का प्रभाव उसकी पत्तियों पर दिखने को मिलता है. इस रोग की सुंडी पौधे की पत्तियों को लपेटकर सुरंग बना लेती है. और उसके अंदर रहकर उनका रस चुस्ती हैं. इस रोग के लगने से शुरुआत में पत्तियों का रंग पीला दिखाई देने लगता हैं. और रोग के अधिक बढ़ने के बाद पत्तियां जाली के रूप में दिखाई देने लगती हैं. जिसे पौधा विकास करना बंद कर देता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर क्लोरपाइरीफोस, कुंल्फॉस या कार्बरील की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा रोगग्रस्त पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए.

चेपा

चेपा का रोग

रागी के पौधों पर लगने वाल चेपा का रोग एक कीट जनित रोग हैं. इस रोग के कीट काफी छोटे आकार के होते हैं. जिनका रंग लाल, काला और पीला दिखाई देता हैं. इस रोग के कीट पौधे पर समूह में पाए जाते हैं. जो पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उन्हें नष्ट कर देता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर डाइमेथोएट या मिथाइल डेमेटान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

सफेद कीड़ा

रागी के पौधों में लगने वाला ये रोग कीट जनित रोग हैं. इस रोग का लार्वा पौधे की जड़ों को खाकर नुक्सान पहुँचाता हैं. जिससे पौधा जल्द ही सूखकर नष्ट हो जाता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों में डाइमेथोएट या कार्बरील की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.

बालियों की सुंडी

रागी के पौधों में बालियों की सुंडी का प्रकोप बालियों में कच्चे दाने होने के दौरान दिखाई देता है. इसकी सुंडी भूरे रंग की होती है. और मुख का रंग पीला दिखाई देता है. इस रोग के लगने से इसकी पैदावार को काफी नुक्सान पहुँचता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मैलाथियान या कार्बरील की उचित मात्रा का छिडकाव रोग दिखाई देने पर करना चाहिए.

भुरड रोग

रागी के पौधों में लगने वाला ये रोग उसकी पैदावार के वक्त दिखाई देता हैं. इस रोग के लगने से इसके दानो का पर भूरी पाउडर दिखाई देने लगती हैं. और रोग बढ़ने पर पौधा सड़ा हुआ दिखाई देने लगता है. पौधों पर यह रोग फफूंद की वजह से फैलता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मैंकोजेब या कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

जड़ सडन

रागी के पौधों में जड़ सडन का रोग जल भराव की वजह से देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पौधे शुरुआत में मुरझाने लगते हैं. जिसके बाद उनकी पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है. और पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए के लिए खेत में जलभराव ना होने दें. इसके अलावा जल भराव होने पर खेत में बोर्डो मिश्रण का छिडकाव करना चाहिए.

फसल की कटाई और मढ़ाई

रागी के पौधे बीज रोपाई के लगभग 110 से 120 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिसके बाद इसके सिरों को पौधों से काटकर अलग कर लेना चाहिए. सिरों की कटाई करने के बाद उन्हें खेत में ही एकत्रित कर कुछ दिन सूखा लेना चाहिए. उसके बाद जब दाना अच्छे से सूख जाए तब मशीन की सहायता से दानो को अलग कर एकत्रित कर बोरो में भर लेना चाहिए.

पैदावार और लाभ

रागी की विभिन्न किस्मों की प्रति हेक्टेयर औसतन पैदावार 25 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. जिसका बाज़ार भाव 2700 रूपये प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से 60 हज़ार रूपये तक की कमाई आसानी से कर लेता है.

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