बेल की खेती बागवानी फसल के रूप में की जाती है. जिसे बिल्व, पतिवात, शैलपत्र, लक्ष्मीपुत्र, श्रीफल, सदाफल और शिवेष्ट आदि कई नामों से जाना जाता है. इसका पौधा हिन्दू धर्म में पवित्र माना जाता है. जिसे वैदिक संस्कृत साहित्य में दिव्य वृक्ष कहा गया है. इसके पौधे को शिव का रूप माना जाता है. कहा जाता है कि इसकी जड़ों में भगवान महादेव निवास करते हैं. इसके पौधे अक्सर मंदिरों के पास लगे हुए दिखाई देते हैं.
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भारत में बेल का पौधा लगभग सभी जगह उगाया जा सकता है. इसका पौधा 25 से 30 फिट की ऊंचाई का होता है. जिसकी शाखाओं में काटें पाए जाते हैं. इसके फल की तासीर ठंडी होती है. जिसका इस्तेमाल जूस बनाने और खाने में किया जाता है. इसके फल औषधीय रूप में भी इस्तेमाल किये जाते हैं. इसके फल पकने के बाद पीले दिखाई देते हैं. इसके फलों का बाहरी आवरण कठोर होता है. जिस कारण इसे पथरीला फल भी कहा जाता है.
बेल की खेती के लिए शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु उपयोगी मानी जाती है. इसके पौधे पर अधिक सर्दी और गर्मी का असर काफी कम देखने को मिलता है. इसका पौधा हर मौसम में आसानी से विकास कर सकता है. इसका पौधा सूखे के प्रति सहनशील होता है. इस कारण इसके पौधे को बारिश की भी ज्यादा आवश्यकता नही होती. बेल की खेती वर्तमान में उत्तर पूर्वी राज्यों में बड़े पैमाने पर की जा रही है. जिससे किसान भाई अच्छा लाभ कमा रहे हैं.
अगर आप भी बेल की खेती कर अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
बेल की खेती रेतीली, कठोर, पठारी, बंजर सभी तरह की भूमि में आसानी से की जा सकती है. इसकी खेती के लिए भूमि में जल भराव नही होना चाहिए. क्योंकि जलभराव की वजह से इसके पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मन 5 से 8 के बीच होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
बेल की खेती के लिए शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु उपयुक्त होती है. नम मौसम में सूर्य की पर्याप्त धूप मिलने पर इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं. इसकी खेती के लिए सामान्य सर्दी और गर्मी वाले दोनों मौसम उपयुक्त होते हैं. लेकिन सर्दियों में अधिक समय तक पड़ने वाला पाला इसके पौधों को कुछ हद तक ज़रुर प्रभावित करता है. इसके पौधों को विकास करने के लिए अधिक बारिश की जरूरत नही होती.
बेल के पौधों को शुरुआत में विकास करने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. जबकि इसके पौधों के द्वारा पूर्ण वृक्ष का रूप धारण करने के बाद वो किसी भी तापमान पर आसानी से विकास कर लेते हैं. बेल के पौधे गर्मियों में अधिकतम 50 और सर्दियों में न्यूनतम 0 डिग्री तापमान को भी सहन कर लेते हैं. लेकिन 30 डिग्री के आसपास का तापमान इसके पौधों के उत्तम विकास के लिए बेहतर होता है.
उन्नत किस्में
बेल की काफी सारी उन्नत किस्में मौजूद हैं. इन सभी किस्मों को अधिक उत्पादन देने के लिए लिए तैयार किया गया है. जिन्हें सम्पूर्ण भारत के अलग अलग हिस्सों में उगाया जाता हैं.
गोमा यशी
बेल की इस किस्म को कम समय में अधिक उत्पादन देने के लिए सेंट्रल हॉर्टिकल्चर एक्सपेरिमेंट स्टेशन, गोधरा (गुजरात) के द्वारा तैयार किया गया है. इस किस्म के पेड़ आकार में बौने दिखाई देते हैं. जिसके पूर्ण विकसित एक पेड़ से सालाना 70 किलो के आसपास फल प्राप्त होते हैं. इसके फलों का आकार बड़ा और पकने के बाद उनका रंग हरा पीला दिखाई देता है. इस किस्म के पौधे कमजोर पाए जाते है.
नरेन्द्र बेल 5
बेल की इस किस्म को नरेंद्र देव यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, फैज़ाबाद ने तैयार किया है. इस किस्म के पौधे कम ऊंचाई वाले और अधिक फैले हुए होते हैं. इस किस्म के प्रत्येक पेड़ो की औसतन उपज 70 से 80 किलो के आसपास पाई जाती है. इस किस्म के फल ऊपर से हल्के चपटे और सामान्य आकार वाले होते हैं. जिनका स्वाद काफी मीठा होता है. इसके फलों का छिलका पतला होता हैं. जिसके अंदर पाए जाने वाले गुदे में रेशे और बीजों की मात्रा काफी कम पाई जाती है.
नरेन्द्र बेल 7
बेल की इस किस्म का निर्माण भी नरेंद्र देव यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, फैज़ाबाद ने ही किया है. इस किस्म के पौधों की ऊंचाई और चौड़ाई काफी ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म के पौधों की पत्तियों का आकार बड़ा होता है. इस किस्म के फल भी बड़े आकार के होते हैं. जिसके एक फल का औसतन वजन तीन किलो के आसपास पाया जाता हैं. इसके फलों का रंग हरा सफ़ेद दिखाई देता हैं. इसके पूर्ण विकसित एक पौधे का औसतन उत्पादन 80 किलो के आसपास पाया जाता है.
पंत अर्पणा
बेल की इस किस्म के पौधे बौने दिखाई देते हैं. इसके पौधों पर शाखाएं बहुत ज्यादा पाई जाती है. जो नीचे की तरफ झुकी हुई होती हैं. इस किस्म के पौधों पर काटों की संख्या कम पाई जाती है. इस किस्म के फलों का छिलका पतला और पकने के बाद पीला दिखाई देता है. इस किस्म के फलों का आकार सामान्य पाया जाता है. इस किस्म के फलों का गुदा मीठा और स्वादिष्ट होता है. इसके गुदें से इसके बीजों को आसानी से अलग किया जा सकता है. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 40 से 50 किलो के बीच पाया जाता है.
सी आई एस एच बी 1
बेल की इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई वाले होते हैं. जो कम दूरी में फैले होते हैं. बेल की इस किस्म के पौधे मध्य समय में पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इसके पौधों पर फल अप्रैल और मई माह में पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के फलों का आकार अंडाकार दिखाई देता है. इस किस्म के फलों का छिलका पतला होता है. इसके फलों का गुदा स्वादिष्ट, मीठा और रंग पीला दिखाई देता है. इसके गुदे में रेशों की मात्रा कम पाई जाती है. और इसके गुदे से इसके बीजो को आसानी से अलग किया जा सकता है.
पंत सुजाता
बेल की इस किस्म को पंतनगर विश्वविद्यालय, उत्तराखंड द्वारा तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधों की लम्बाई सामान्य होती है. जबकि इसकी शाखाएं अधिक चौड़ाई में फैली हुई होती हैं. इस किस्म के पौधों पर फल मध्यम समय में पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के फल दोनों सिरों से चपटे दिखाई देते हैं. जिनका आकार सामान्य दिखाई देता है. इस किस्म के फलों में गुदे की मात्रा सबसे ज्यादा पाई जाती है. इसके गुदे में रेशों की मात्रा कम पाई जाती है. इसके फलों का छिलका पतला और हल्के पीले रंग का दिखाई देता है.
नरेन्द्र बेल 9
बेल की इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के पाए जाते है. जिन्हें नरेंद्र देव यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, फैज़ाबाद ने तैयार किया है. इस किस्म के पौधों पर लगने वाले फलों का आकार गोल और अंडाकार बड़ा होता है. इसके गुदे में मिठास की मात्रा ज्यादा पाई जाती है. पूर्ण रूप से पकने के बाद इसके फलों का रंग हल्का पीला दिखाई देता हैं. इस किस्म के पूर्ण रूप से तैयार पौधों का सात साल बाद औसतन उत्पादन 50 किलो के आसपास पाया जाता है. इसके फलों में रेशे और बीज की मात्रा कम पाई जाती है.
पूसा उर्वशी
बेल की इस किस्म के पौधे मध्य समय में पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इसके पौधे मजबूत सीधे बढ़ने वाले होते हैं. जिनकी लम्बाई काफी ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म के पौधों से कम समय में अधिक पैदावार प्राप्त होती है. इसके पूर्ण रूप से तैयार एक पौधे से सालाना औसतन 60 से 80 किलो के बीच पैदावार प्राप्त होती है. इस किस्म के फलों का आकार अंडाकार दिखाई देता है. इसके फलों में गुदे की मात्रा ज्यादा पाई पाई जाती है. जिसका स्वाद मीठा होता है.
इनके अलावा और भी कई किस्में मौजूद हैं. जिन्हें अलग अलग जगहों पर कम समय में अधिक उत्पादन देने के लिए तैयार किया गया है. जिनमें पंत उर्वशी, सी आई एस एच बी 2, बड़ा कागजी, पंत शिवानी, नरेन्द्र बेल 16, चकिया, नरेन्द्र बेल 6, नरेन्द्र बेल 17 और कागजी गोण्डा जैसी और भी कई किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
बेल के पौधों को खेतों में गड्डे तैयार कर उनमें लगाया जाता है. गड्डों के तैयार करने से पहले खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. खेत की जुताई करने के बाद उसे कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें. ताकि मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट सूर्य की तेज धूप की वजह से नष्ट हो जायें. उसके बाद खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन बार तिरछी जुताई कर खेत में रोटावेटर चला दें. रोटावेटर चलाने से खेत की मिट्टी भुरभुरी दिखाई देने लगती है. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर उसे समतल बना दें.
खेत को समतल बनाने के बाद खेत में 5 से 6 मीटर की दूरी छोड़ते हुए तीन फिट व्यास और एक फिट की गहराई के गड्डे तैयार करते हैं. इन गड्डों को खेत में कतार में तैयार करते हैं. गड्डे तैयार करने के दौरान प्रत्येक कतारों के बीच भी 5 से 6 मीटर की दूरी रखी जाती है. गड्डों के तैयार होने के बाद उन्हें उचित मात्रा में जैविक और रासायनिक उर्वरकों को मिट्टी में मिलाकर तैयार किये गए गड्डों में भर दिया जाता है. इन गड्डों को पौध रोपाई से लगभग एक महीने पहले तैयार किया जाता हैं.
पौध तैयार करना
बेल के पौधों को बीज और कलम के माध्यम से नर्सरी में तैयार किया जाता है. नर्सरी में बीज के माध्यम से कलम तैयार करने के दौरान अधिक समय में कलम तैयार होती है. इस कारण लोग इसे बीज के रूप में बहुत कम तैयार करते है. बीज के रूप में कलम तैयार करने के लिए इसके बीजों को फलों से निकालने के तुरंत बाद उन्हें खेतों में लगा दिया जाता है. उसके लगभग डेढ़ से दो साल बाद उन्हें जंगली पौधों के साथ क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग विधि से पौध के रूप में तैयार किया जाता है. जबकि व्यावसायिक तौर पर खेती करने के लिए चश्मा या गुटी दाब विधि का इस्तेमाल किया जाता है. इस विधि से पौध बारिश के मौसम के दौरान पौधों की शाखाओं पर गुटी दाब विधि से तैयार की जाती है. इस विधि से पौध एक से डेढ़ महीने में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है.
इसके अलावा किसान भाई नर्सरी से भी इसकी पौध लेकर खेतों में लगा सकता है. वर्तमान में सरकार द्वारा काफी रजिस्टर्ड नर्सरियां हैं जो कम दामों में इसकी पौध उपलब्ध करवाती है. जिनसे किसान भाई इसकी पौध खरीदकर समय और मेहनत दोनों बचा सकता है. और उसे उचित समय पर अच्छी किस्म के पौधे मिल जाते हैं. लेकिन पौध खरीदते वक्त ध्यान रखे की हमेशा एक साल पुराना और अच्छे से विकास कर रहा रोग रहित पौधा ही खरीदें.
पौध रोपाई का तरीका और टाइम
बेल के पौधों की रोपाई खेत में लगभग एक महीने पहले तैयार किये गए गड्डों में की जाती है. लेकिन गड्डों में पौधों की रोपाई से पहले उनके बीचोंबीच एक छोटे आकार का गड्डा तैयार कर लेते हैं. जिसमें इसके पौधे को लगाकर उसके चारों तरफ अच्छे से मिट्टी डालकर उसे जड़ के पास से एक सेंटीमीटर की ऊंचाई तक दबा दिया जाता है.
लेकिन पौधे की रोपाई से पहले गड्डे और पौधों को उपचारित कर लेना चाहिए. इनको उपचारित करने के लिए बाविस्टीन या गोमूत्र का इस्तेमाल करना चाहिए. गड्डों को उपचारित कर पौधों को शुरुआत में लगने वाली कई तरह की मृदा जनित की बारियों के नुक्सान से बचाया जा सकता है. जिससे पौधा अच्छे से विकास करता है.
सामान्य तौर पर बेल के पौधे को किसान भाई अधिक सर्दी के मौसम को छोड़कर पूरे साल में कभी भी लगा सकता है. लेकिन जब किसान भाई इसकी खेती व्यावसायिक तौर पर बड़े पैमाने पर करता है तब इसकी रोपाई के लिए मई और जून का महीना सबसे उपयुक्त माना जाता है. इस दौरान रोपाई करने पर पौधों को विकास करने के लिए अनुकूल मौसम अधिक समय तक मिलता है. इसके अलावा सिंचाई की उचित सुविधा होने पर इसे मार्च महीने में भी लगा सकते हैं.
पौधों की सिंचाई
बेल के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत शुरुआत में होती हैं. शुरुआत में इसके पौधे को गर्मियों के मौसम में 8 से 10 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. और सर्दियों में 15 से 20 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. बारिश के मौसम में पानी की जरूरत कम होती है. लेकिन इस दौरान अधिक समय तक बारिश नही होने पर पौधों को आवश्यकता के अनुसार पानी देना चाहिए.
जब बेल का पौध पूर्ण रूप से एक पेड़ में तब्दील हो जाता है तब इसके पेड़ो को अधिक सिंचाई की जरूरत नही होती. इस दौरान इसके पेड़ो की साल में चार से पांच सिंचाई ही काफी होती है. इसके पौधों पर जब फूल खिल रहे होते हैं तब पौधों को पानी नही देना चाहिए. क्योंकि इस दौरान सिंचाई करने से इसके फूल और फल दोनों गिर जाते हैं.
उर्वरक की मात्रा
बेल के पौधों को उर्वरक की सामान्य जरूरत होती है. शुरुआत में गड्डों की तैयारी के वक्त इसके गड्डों में लगभग 10 किलो जैविक खाद के रूप में पुरानी गोबर की खाद और 50 ग्राम नाइट्रोजन, 25 ग्राम फास्फोरस और 50 ग्राम पोटाश की मात्रा को मिट्टी में मिलाकर पौधों को देनी चाहिए. पौधों को उर्वरक की ये मात्रा जब तक पौधों पर फल ना लगे तब तक देनी चाहिए.जब इसके पौधों पर फल लगने लगे तब उर्वरक की इस मात्रा को बढ़ा देना चाहिए.
इसके पूर्ण रूप से तैयार एक पेड़ को सालाना 20 से 25 किलो जैविक खाद और लगभग एक किलो रासायनिक खाद की मात्रा फल लगने से पहले देना चाहिए. इसके पौधों को उर्वरक की ये मात्रा पौधे के तने से दो फिट की दूरी छोड़ते हुए. दो फिट चौड़ा और आधा फिट गहरा एक गोल घेरा बनाकर उसमें भर देना चाहिए. और उसके तुरंत बाद उसमें पानी दे देना चाहिए. इसके पौधे की सम्पूर्ण जड़ों को पोषक तत्व आसानी से मिल जाते हैं.
खरपतवार नियंत्रण
बेल के पौधों में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से ही किया जाता हैं. इसके लिए शुरुआत में पौधों को लगाने के दौरान उसके आसपास की जमीन में दिखाई देने वाली खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए. उसके बाद शुरुआत में पौधों की साल में चार से पांच बार हल्की गुड़ाई कर पौधों की जड़ों में दिखाई देने वाली खरपतवार को खत्म कर देना चाहिए.
बेल के पेड़ो के बड़े होने के बाद उन्हें ज्यादा गुड़ाई की जरूरत नही होती. लगभग सात साल पुराने एक पेड़ को साल में दो से तीन गुड़ाई की ही जरूरत होती है. जो पौधों को उर्वरक देने के दौरान, उससे पहले और बाद में की जाती है. इसके अलावा खेत में शेष बची जमीन में खरपतवार नियंत्रण के लिए बारिश के मौसम के बाद जब खेत की मिट्टी सुखी हुई दिखाई देने लगे तब खेत की जुताई कर देनी चाहिए.
पौधों की देखभाल
बेल के पौधों से अच्छी पैदावार लेने के लिए पौधों की अच्छे से देखभाल करना जरूरी होता है. इसके पौधों की देखभाल के दौरान शुरुआत में पौधों के तने पर लगभग एक से डेढ़ मीटर की ऊंचाई तक किसी भी तरह की शाखा को जन्म ना लेने दें. इससे पौधे का तना मजबूत बनता है. और पौधे का आकार भी अच्छा दिखाई देता हैं.
इसके अलावा जब पौधे फल देना बंद कर दें यानी फलों की तुड़ाई पूर्ण हो जाए तब पौधों में दिखाई देने वाली रोगग्रस्त और सूखी डालियों को काटकर हटा देना चाहिए. इससे पौधे में बाद में नई शाखाएं जन्म लेती है, जिससे पौधे का उत्पादन भी बढ़ता हैं. पौधों की देखभाल या कटाई छटाई का काम फलों की तुड़ाई के बाद ही करना चाहिए. क्योंकि इस दौरान पौधा सुसुप्त अवस्था में चला जाता है.
अतिरिक्त कमाई
बेल के पौधे खेत में लगाने के कई साल बाद पैदावार देना शुरू करते हैं. इस दौरान इसके पौधों के बीच खाली बची जमीन में सब्जी, औषधि, मसाला या कम समय में तैयार होने वाली बागवानी फसल (पपीता) जैसी फसलों को आसानी से उगा सकता है. जिससे किसान भाइयों को उनके खेत से लगातार पैदावार भी मिलती रहती है. उन्हें किसी तरह की आर्थिक परेशानी का सामना भी नही करना पड़ता.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
बेल के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी रोकथाम अगर वक्त रहते नही की जाए तो ये पौधों को काफी ज्यादा नुक्सान पहुंचाते हैं. जिसका असर पौधों की पैदावार पर देखने को मिलता है.
बेल कैंकर
बेल के पौधों में इस रोग के लगने पर शुरुआत में प्रभावित जगहों पर पानी के जैसे धब्बे बन जाते हैं. उसके बाद रोग बढ़ने पर इन धब्बों का रंग भूरा दिखाई देने लगता है और आकार बढ़ जाता है. जिससे प्रभावित फल पकने से पहले हो गिर जाता है. और प्रभावित पत्ती में बहुत सारे छिद्र दिखाई देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या स्ट्रेप्टोसाइक्लिन सल्फेट की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
डाई बैक
बेल के पौधे में डाई बैक रोग फफूंद जनित रोग है. इस रोग के लगने से पौधे की शाखाएं ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है. और पत्तियों पर भूरे धब्बे बन जाते हैं. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
छोटे फलों का गिरना
बेल के पौधों में ये रोग फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग के लगने पर फल छोटे आकार में ही टूटकर गिरने लग जाते है. जिसका सीधा असर पौधों की पैदावार पर देखने को मिलता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
पत्ती पर काला धब्बा
बेल के पौधों में इस रोग के लगने से पौधे की पत्तियों के दोनों तरफ काले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है. इस रोग की रोकथाम के लिए बाविस्टिन की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
चितकबरी सुंडी
बेल के पौधों पर ये रोग कीट की वजह से फैलता है. इस रोग की सुंडी पौधों की पत्तियों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाती है. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता हैं. इस रोग रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के तेल या थियोडेन की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
सफेद फंगल
बेल के पौधों में ये रोग पौधों की पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग के धब्बे बन जाते हैं. जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करना बंद कर देता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मिथाइल पैराथियान और गम एकेशिया की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
फलों की तुड़ाई
बेल का पौधा खेत में लगाने के लगभग 7 साल बाद पैदावार देना शुरू करता है. इसके फलों के पकने के बाद उनकी तुड़ाई जनवरी माह में की जाती है. पकने के बाद इसके फल हरे पीले दिखाई देते है. तब उन्हें तोड़कर एकत्रित कर लिया जाता है. जिसके बाद उन्हें बाज़ार में बेचने के लिए भेज दिया जाता हैं.
पैदावार और लाभ
बेल की विभिन्न किस्मों के पौधों से शुरुआत में औसतन 40 किलो के आसपास पैदावार मिलती है. जो पौधे की उम्र बढ़ने के साथ साथ बढती जाती है. इसके फलों का बाज़ार भाव काफी अच्छा मिलता है. जिससे किसान भाइयों की अच्छीखासी कमाई हो जाती है.
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