जिमीकंद (ओल) की खेती कैसे करें

जिमीकंद की खेती एक औषधीय फसल के रूप में की जाती है. जिसे ओल और सुरन के नाम से भी जाना जाता है. जिसका इस्तेमाल सब्जी के रूप में भी किया जाता है. इसके पौधों पर लगने वाले फल जमीन के अंदर ही कंद के रूप में विकास करते हैं. जिनका उपयोग कई तरह की बीमारियों में किया जाता है. इसके फल की तासीर गर्म होती है. इसके खाने से गले में खुजली हो जाती है. लेकिन वर्तमान में इसकी प्रतिरोधी कई नई किस्मों का निर्माण कर लिया गया है जिनको खाने से खुजली नही होती.

जिमीकंद की पैदावार

जमीन के बाहर पाए जाने वाले इसके पौधे के भाग को घनकन्द के नाम से जाना जाता है. जमीन से बाहर इसके पौधे की लम्बाई तीन से चार फिट होती है. इसकी खेती के लिए उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु को सबसे उपयुक्त माना जाता है. भारत में इसकी खेती मैदानी भाग वाले राज्यों में अधिक मात्रा में की जा रही है. इसके अलावा दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में भी इसे उगाया जाता है. बलुई दोमट मिट्टी में इसकी खेती करने पर पौधा अच्छे से विकास करता है.

अगर आप भी इसकी खेती करने का मन बना रहे है तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले है.

उपयुक्त मिट्टी

इसके पौधों के अच्छे विकास के लिए उचित जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. जबकि भारी और जल भराव वाली जमीन में इसकी खेती नही की जा सकती. क्योंकि भारी जमीन में इसके फलों का विकास अच्छे से नही हो पाता. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 6 से 7 के बीच होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

सुरन को उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु का पौधा माना जाता है. भारत में इसकी खेती बारिश के मौसम से पहले और बाद में की जाती है. इसके पौधों के अच्छे विकास के लिए सामान्य रूप से होने वाली अच्छी बारिश अधिक उपयोगी होती है. इसके पौधे को विकास करने के लिए गर्मी की आवश्यकता होती है. लेकिन इसके कंद को विकास करने के लिए ठंड के मौसम की जरूरत होती है. ठण्ड के मौसम में इसका कंद अच्छे से विकास करता है.

इसके पौधे बीज लगाने के लगभग 20 से 30 दिन बाद अंकुरित होते हैं. इस दौरान इसके पौधों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. अंकुरित होने के बाद पौधों को विकास करने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. इसके पौधे अधिकतम 35 डिग्री तापमान पर भी अच्छे से विकास करते हैं.

उन्नत किस्में

ओल की कुछ ही उन्नत किस्में हैं. जिन्हें उनकी गुणवत्ता, पैदावार और उगने के मौसम के आधार पर तैयार किया गया है.

गजेन्द्र

इस किस्म का निर्माण कृषि विज्ञान केन्द्र संबलपुर द्वारा किया गया है. इस किस्म के फल को खाने से गले में होने वाली खुजली नही होती. इस किस्म को बारिश के मौसम से पहले और बाद दोनों समय में उगाया जा सकता है. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 80 टन के आसपास पाया जाता है. इसके फल के आसपास बनने वाले छोटे कंद ( कन्या कंद ) इस किस्म में नही बनते, क्योंकि इसके एक पौधे से एक ही फल प्राप्त होता है. इसके कंद में पाए जाने वाले गुदे का रंग हल्का नारंगी होता है.

एम – 15

इस किस्म की श्री पद्मा के नाम से भी जाना जाता है. इसके पौधे पर भी एक ही फल का निर्माण होता है. इस किस्म के पौधों की प्रति हेक्टेयर पैदावार 70 से 80 टन तक पाई जाती है. इसके फलों में खुजलाहट या तीक्ष्णता काफी कम पाई जाती है. जिमीकंद की इस किस्म को दक्षिण भारत के लोग उगाना अधिक पसंद करते हैं.

संतरागाछी

सुरन की ये एक सामान्य पैदावार देने वाली किस्म है. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 50 टन से कम पाया जाता है. इस किस्म के पौधों के मुख्य फल के साथ और भी कई छोटे छोटे कंद पाए जाते है. इसके फलों को खाने से गले में हल्की खुजलाहट या तीक्ष्णता देखने को मिलती है. इस किस्म के पौधे 5 से 6 महीने में पैदावार देने के लिए तैयार हो जाते हैं.

कोववयूर

उन्नत किस्म का पौधा

इस किस्म को दक्षिण भारत में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे अच्छी पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इसके पौधों पर भी सहायक कंद नही पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधों में घनकंदों का विकास सामान्य रूप से है. जिनमे तीक्ष्णता काफी कम पाई जाती है.

संतरा गाची

जिमीकंद की इस किस्म को पूर्वी भारत के राज्यों में ज्यादा उगाया जाता है. इसके फलों में कन्या घनकन्द अधिक मात्रा में पाए जाते हैं. इसके फलों का स्वाद थोडा कड़वा होता है. जिस कारण इनको खाने पर गले में हल्की खुजलाहट या तीक्ष्णता देखने को मिलती है. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 50 से 75 टन तक देखने को मिलता है.

खेत की तैयारी

जिमीकंद की खेती के लिए मिट्टी का भुरभुरा और नर्म होना जरूरी होता है. क्योंकि नर्म जमीन में इसके फल अच्छे से विकास करते हैं. इसकी खेती के लिए खेत की तैयारी करते वक्त शुरुआत में मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर खेत को तेज़ धूप लगने के लिए कुछ दिनों तक खुला छोड़ दें. उसके बाद उचित मात्रा में पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर उसे मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत की दो से तीन तिरछी जुताई करें.

खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चलाकर उसका पलेव कर दें. पलेव करने के कुछ दिन बाद जब खेत की मिट्टी ऊपर से हलकी सूखी दिखाई देने लगे तब उसकी फिर से कल्टीवेटर के माध्यम से एक बार जुताई कर दें. और उसके बाद रासायनिक खाद की उचित मात्रा को खेत में छिड़कर रोटावेटर चलाकर मिट्टी में मिला दें. उसके बाद खेत में उचित दूरी रखते हुए नाली बनाकर रोपाई के लिए खेत को तैयार कर लें.

बीजों की रोपाई का टाइम और तरीका

सुरन के बीज उसके फलों से ही बनते हैं. इसके बीजों के लिए पूर्ण तरीके से पक चुके फल को कई भागों में काटकर खेत में लगाया जाता है. इसके अलावा कुछ किस्मों में कन्या घनकन्द पाए जाते हैं. जिन्हें बीज के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके बीजों को खेत में लगाने से पहले उन्हें उपचारित के लेना चाहिए. इसके लिए बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या इमीसान की उचित मात्रा के घोल में आधा घंटे तक डुबोकर रखना चाहिए. एक हेक्टेयर में खेती के लिए इसके लगभग 50 क्विंटल बीज की जरूरत होती है.

पौध रोपाई

इसके फल से बीजों को तैयार करते वक्त ध्यान रखे की इसके बीजों का वजन 250 से 500 ग्राम होना चाहिए. और प्रत्येक कटे हुए बीज में कम से कम दो आंखे होनी चाहिए. ताकि पौधे का अंकुरण अच्छे से हो पाए. कंद से बीज तैयार करने के बाद उन्हें उपचारित कर खेत में लगाया जाता है. इसके बीजों को खेत में पहले से तैयार की गई नालियों में लगाया जाता है. लेकिन कुछ किसान भाई इन्हें गड्डों में लगाते हैं. जिसके लिए उचित दूरी रखते हुए खेतों में नाली की जगह गड्डों को तैयार कर लेना चाहिए.

बीज रोपाई के लिए नालियों या गड्डों को तैयार करते वक्त ध्यान रखे की प्रत्येक नालियों के बीच दो से ढाई फिट की दूरी होनी चाहिए. और इन नालियों या गड्डों के अंदर बीज को आपस में दो फिट की दूरी पर ही उगाना चाहिए. बीज को नालियों में उगाने के बाद उन्हें मिट्टी से अच्छे से ढक देते हैं.

इसके बीजों को खेत में मार्च से लेकर जुलाई तक उगाया जाता है. मार्च में उगाई गई फसल की पैदावार बाकी किसी भी समय लगाई गई फसल से अधिक होती है. मार्च में इसकी फसल को सिर्फ सिंचित जगहों पर ही उगाया जाता है. और असिंचित जगहों पर इसे जून के महीने में पहली बारिश के वक्त ही उगा देते हैं.

पौधों की सिंचाई

ओल की फसल को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. क्योंकि पौधों को पानी की उचित मात्रा मिलती रहने पर इसका कंद अच्छे से तैयार होता है. इसके बीज को अगर  सूखी हुई भूमि में उगाते हैं तो इसकी सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए. इसके बीज को खेत में लगाने के बाद अंकुरित होने तक खेत में नमी की मात्रा बनाए रखे. इसके लिए खेत की सप्ताह में दो बार सिंचाई कर देना अच्छा होता है.

बीजों के अंकुरित होने के बाद बारिश से पहले गर्मियों के मौसम में पौधों को चार से पांच दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. जबकि बारिश के मौसम में इसके पौधों को पानी जरूरत नही होती. लेकिन अगर बारिश टाइम पर ना हो तो पौधों को आवश्यकता के अनुसार पानी देते रहना चाहिए. सर्दियों के मौसम में इसके पौधे को पानी की सामान्य जरूरत होती है. इसलिए सर्दियों के मौसम में पौधों को 15 से 20 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए.

उर्वरक की मात्रा

इसके पौधों को विकास करने के लिए उर्वरक की उचित मात्रा की ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए खेत की जुताई के वक्त 15 गाडी प्रति एकड़ के हिसाब से गोबर की पुरानी खाद खेत में डालकर उसे मिट्टी में मिला दें. उसके बाद खेत की लास्ट जुताई के वक्त पोटाश 50 किलो, यूरिया 40 किलो और डी.ए.पी. की 150 किलो मात्रा को आपस में मिलाकर इसकी लगभग आधी मात्रा को खेत में छिड़क दें. और बाकी बची हुई आधी मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर खेत की सिंचाई के वक्त दो बार पौधों को देना चाहिए. पहली बार बाकी बची मात्रा के आधे भाग को दो महीने बाद पौधों की जड़ों के पास डालकर मिट्टी चढ़ा दें. और उसके दो महीने बाद एक बार फिर से शेष बची बाकी की मात्रा को भी पौधों की जड़ों में डालकर उस पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

जिमीकंद की खेती में खरपतवार नियंत्रण नीलाई गुड़ाई के माध्यम से किया जाता है. इसके लिए खेत की पहली गुड़ाई बीजों के अंकुरण से पहले बीज रोपाई के लगभग 15 दिन बाद हाथों से करनी चाहिए. क्योंकि इसके बीजों का अंकुरण लगभग एक महीने में पूर्ण होता है. और किसी भी यंत्र से गुड़ाई के दौरान अंकुरण प्रभावित हो सकता है. बीज के अंकुरित होने के बाद इसके पौधों को गुड़ाई हल्के रूप में करनी चाहिए. और गुड़ाई के दौरान पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

जिमीकंद के पौधों की तीन से चार हल्की गुड़ाई करना अच्छा होता है. इसके अलावा बीज रोपण के बाद अगर हो सके तो खेत में सुखी हुई घास या पुलाव बिछा दें. जिससे खेत में पनपने वाली खरपतवार नियंत्रित रहती है और पौधों में पानी की कमी भी नही होती. जिससे पौधों की कम पानी देना पड़ता है.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

जिमीकंद के पौधों में किट और जीवाणु जनित कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी अगर उचित टाइम रहते रोकथाम ना की जाए तो पैदावार काफी ज्यादा प्रभावित होती है.

जिमीकंद भृंग

जिमीकंद भृंग का रोग पौधों की पत्तियों और शाखाओं को ज्यादा नुक्सान पहुँचाता हैं. इसके पौधों पर ये रोग किट की वजह से फैलता है. इस रोग की सुंडी का रंग हल्का भूरा लाल होता है. जो पौधों की पत्तियों और शाखाओं को खाती है. जिससे पौधे का विकास रुक जाता है. और पैदावार कम प्राप्त होती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के काढ़े को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर पौधों पर छिडकना चाहिए.

झुलसा रोग

झुलसा रोग

ओल के पौधों पर पाया जाने वाला ये रोग जीवाणु जनित रोग है. जो सितम्बर माह में पौधों पर लगता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर हलके भूरे रंग के छोटे छोटे धब्बे बन जाते है. जिनका रंग रोग बढ़ने पर गहरा भूरा काला पड़ जाता है. और कुछ दिनों में पत्तियां सूखकर गिर जाती हैं. जिससे पौधा का विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर इंडोफिल या बाविस्टीन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

तना गलन

पौधों पर तना गलन का रोग पानी भराव की वजह से ज्यादा फैलता है. इस रोग की रोकथाम का सबसे अच्छा तरीका है की पौधों में जल भराव की स्थिति ना बनने दें. इस रोग के लगने पर पौधे का तना जमीन के पास से काला पड़ जाता है. उसके बाद पौधे की पत्तियां मुरझाकर सूखने लगती है. जिससे उनका रंग पीला दिखाई देने लगता है. और कुछ दिन बाद पूरा पौधा नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों में कैप्टान दवा की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

तम्बाकू की सुंडी

तम्बाकू की सुंडी रोग एक किट जनित रोग है, जिसका लार्वा सुंडी के रूप में दिखाई देता है. इसकी सुंडी पौधों की पत्तियों को खाकर उसके विकास को प्रभावित करती है. इस रोग का लार्वा हलके हरे भूरे रंग का होता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव जून और जुलाई माह में ज्यादा देखने को मिलता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

कंदों की खुदाई

जिमीकंद के पौधों बीज रोपाई के लगभग 6 से 8 महीने बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इसके फल पकने पर पौधों के नीचे की पत्तियां सूखकर गिरने लगती हैं. इस दौरान फलों की खुदाई तुरंत कर लेनी चाहिए. फलों की खुदाई के बाद उन्हें साफ़ पानी से धोकर किसी छायादार जगह में सूखाकर रखना चाहिए. उसके बाद फलों की छटाई कर किसी हवादार बोरो में भरकर बाज़ार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए. छटनी के बाद बाकी बची हुई छोटी कंदों का इस्तेमाल फिर से बुवाई के लिए बीज के रूप में कर सकते हैं.

पैदावार और लाभ

जिमीकंद की अलग अलग किस्मों की औसतन पैदावार 70 से 80 टन तक हो जाती है. जिनका बाज़ार भाव दो हज़ार प्रति किवंटल के आसपास पाया जाता है. जिससे एक बार में किसान भाई एक हेक्टेयर से 4 लाख से ज्यादा की कमाई आसानी से कर लेता हैं.

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