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लैवेंडर की खेती कैसे करें

2019-10-22T17:23:03+05:30Updated on 2019-10-22 2019-10-22T17:23:03+05:30 by bishamber Leave a Comment

लैवेंडर की खेती नगदी फसल के रूप में की जाती हैं. इसका पौधा कई तरह से उपयोगी माना जाता हैं. इसके पौधों पर खिलने वाले फूलों का इस्तेमाल सजावट से लेकर खाने तक किया जाता हैं. खाने में इसके फूलों का इस्तेमाल कई तरह के व्यंजनों और मिठाइयों को खुशबूदार बनाने के लिए किया जाता हैं. इसके फूलों का स्वाद मीठा होता है. इस करना इसका इस्तेमाल मिठास बढ़ाने के लिए भी किया जाता हैं.

Table of Contents

  • उपयुक्त मिट्टी
  • जलवायु और तापमान
  • उन्नत किस्में
    • बौनी प्रजाति के पौधे
      • हाइडकोट सुपीरियर
      • रोजा
      • लेडी लैवेंडर
    • मध्यम ऊंचाई के पौधे
      • फोल्गेट
      • बीचवुड ब्लू
      • बुएने विस्टा
    • अधिक लम्बाई
      • भोर ए कश्मीर लैवेंडर
      • मेलिसा लिलाक
  • खेत की तैयारी
  • पौध तैयार करना
  • पौध रोपाई का तरीका और टाइम
  • पौधों की सिंचाई
  • उर्वरक की मात्रा
  • खरपतवार नियंत्रण
  • पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
  • पौधों की कटाई
  • पैदावार और लाभ
लैवेंडर की खेती

लैवेंडर के पौधे में तेल की मात्रा भी पाई जाती हैं. जिसका इस्तेमाल खाने के साथ साथ साबुन, इत्र और सौंदर्य प्रसाधन की चीजों को बनाने में किया जाता हैं. इसके अलावा इसके पौधे का इस्तेमाल कई तरह की बिमारियों के रोकथाम में भी किया जाता हैं. इसके फूलों का रंग गहरा काला नीला, लाल और बेंगानी ज्यादा पाया जाता हैं. इसका पौधा दो से तीन फिट ऊंचाई का पाया जाता हैं.

लैवेंडर की खेती मुख्य रूप से भूमध्यसागरीय क्षेत्र में की जाती हैं. वैसे इसकी उत्पत्ति स्थान एशिया महाद्वीप को माना जाता हैं. इसकी खेती के लिए ठंडा मौसम उपयुक्त होता है. इसके पौधे की पत्तियां सकरी पाई जाती हैं. इसकी खेती के लिए अधिक तेज़ गर्मी को उपयुक्त नही माना जाता. इसकी खेती के लिए सर्दी का मौसम उपयुक्त होता है. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.

अगर आप भी लैवेंडर की खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

लैवेंडर की खेती के लिए कार्बनिक पदार्थों से भरपूर उचित जल निकासी वाली भूमि की जरूरत होती है. इसके पौधे की जड़ें गहराई में जाने सक्षम होती हैं. इस कारण इसे पहाड़ी, मैदानी या रेतीली किसी भी तरह की मिट्टी में भी आसानी से उगाया जा सकता हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान 7 से 8 के बीच होना चाहिए. हल्की क्षारीय भूमि में इसके पौधों में तेल की मात्रा अधिक पाई जाती है.

जलवायु और तापमान

लैवेंडर की खेती के लिए जलवायु और तापमान दोनों ही मुख्य कारक के रूप में काम करते हैं. लैवेंडर को मुख्य रूप से भूमध्यसागरीय जलवायु का पौधा माना जाता हैं. इसके पौधों को विकास करने के लिए ठंडे मौसम की जरूरत होती है. इसलिए भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से हिमालय की तराई वाले राज्यों में जहां गर्मियों के मौसम में भी मौसम सुहाना बना रहता है, वहां की जाती हैं. इसकी खेती के लिए हवा वाली खुली जगह की जरूरत होती हैं. इसके पौधे तेज़ गर्मी में विकास नही कर पाते और जल्द ही नष्ट हो जाते हैं. इसकी खेती के लिए अधिक बारिश की भी जरूरत नही होती हैं.

इसके बीज और पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए 12 से 15 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद पौधों को विकास करने के लिए 20 से 22 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. लैवेंडर के पौधे अधिकतम 25 से 30 डिग्री के आसपास तापमान को सहन कर सकते हैं. जबकि न्यूनतम 10 डिग्री के आसपास तापमान पर भी अच्छे से विकास कर लेते हैं.

उन्नत किस्में

लैवेंडर की बहुत सारी उन्नत किस्में बाज़ार में मौजूद हैं. जिनका विकास पौधों की ऊंचाई और फूलों के रंग और उत्पादन के आधार पर किया गया है. इसकी इन किस्मों को पौधों के आकार के आधार पर तीन प्रजातियों में विभक्त किया गया है.

बौनी प्रजाति के पौधे

हाइडकोट सुपीरियर

बौनी प्रजाति के इस किस्म के पौधों का की ऊंचाई 40 से 45 सेंटीमीटर के बीच पाई जाती हैं. इसके फूलों का रंग काला बैंगनी और नीला पाया जाता हैं. इस किस्म के फूलों में तेल की मात्रा 0.8 प्रतिशत पाई जाती हैं. इस किस्म के पौधों की प्रति हेक्टेयर पैदावार से 50 किलो के आसपास तेल प्राप्त होता है.

रोजा

इस किस्म के पौधे की ऊंचाई 40 सेंटीमीटर तक पाई जाती है. इस किस्म के फूल गुलाबी रंग के पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधों की प्रति हेक्टेयर पैदावार से 40 से 50 किलो के आसपास तेल की मात्रा प्राप्त होती है.

लेडी लैवेंडर

इस किस्म के पौधों की शाखाएं कम फैली हुई और उपर की तरफ विकास कर बढती हैं. इस किस्म के पौधों की लम्बाई डेढ़ फिट के आसपास पाई जाती हैं. इस किस्म के पौधों पर नीले रंग के फूल पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधे पहले साल से ही एक समान पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं.

मध्यम ऊंचाई के पौधे

फोल्गेट

मध्यम प्रजाति की इस किस्म के पौधे पहली कटाई के वक्त ही काफी अच्छी गुणवत्ता रखते हैं. इसके फूलों का रंग नीला दिखाई देता है. इसके पौधों की ऊंचाई दो फिट के आसपास पाई जाती हैं. जिनसे प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा 60 किलो के आसपास पाई जाती हैं.

बीचवुड ब्लू

उन्नत किस्म का पौधा

लैवेंडर की इस किस्म के पौधे डेढ़ से दो फिट की ऊंचाई के पाए जाते हैं. इस किस्म के पौधों से प्रति हेक्टेयर उत्पन्न होने वाले फूलों की मात्रा अधिक पाई जाती है. जिस कारण इनसे उत्पन्न होने वाले तेल की मात्रा बाकी कई किस्मों से ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म के पौधे के फूलों का रंग बैंगनी नीला दिखाई देता हैं.

बुएने विस्टा

इस किस्म के पौधों पर दो रंग के फूल पाए जाते हैं. जिनका उत्पादन भी काफी ज्यादा पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधों की लम्बाई 50 से 60 सेंटीमीटर तक पाई जाती हैं.

अधिक लम्बाई

भोर ए कश्मीर लैवेंडर

इस किस्म के पौधों की लम्बाई दो फिट से ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म के पौधों पर नीले रंग के फूल पाए जाते हैं. जिनसे प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा बाकी किस्मों से ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म के पौधों से औसतन 80 किलो के आसपास तेल की मात्रा पाई जाती है.

मेलिसा लिलाक

इस किस्म के पौधे औषधीय गुण के लिए अधिक उपयोगी होते हैं. जिनकी लम्बाई 60 से 75 सेंटीमीटर के आसपास पाई जाती हैं. इस किस्म के फूलों का रंग हल्का लाल पाया जाता है. जिनका आकार काफी बड़ा होता है.

इनके अलावा और भी कई सारी किस्में हैं जो अलग अलग जगहों पर अधिक उत्पादन लेने के लिए तैयार की गई हैं. जिनमें काजन लुक, ए एम 1, हेमस, ऐरामा, कारलोवो, स्वेटजैस्ट और वैनेट्स जैसी कई किस्में मौजूद हैं.

खेत की तैयारी

लैवेंडर का पौधा एक बार लगाने के बाद कई साल पैदावार देता हैं. इसलिए खेत की शुरुआत में अच्छे से तैयारी की जानी जरूरी होती हैं. लैवेंडर की खेती के लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. उसके बाद तेज़ धूप लगने के लिए खेत को कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दें. खेत को खुला छोड़ने के बाद पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चलाकर उसका पलेव कर दें.

पलेव करने बाद जब भूमि की ऊपरी सतह हल्की सूखी हुई दिखाई देने लगे तब खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से जुताई कर उसमें रोटावेटर चला दें. इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी दिखाई देने लगती हैं. खेत में रोटावेटर चलाने के बाद उसमें पाटा लगाकर खेत को समतल बना दें. ताकि खेत में बारिश के मौसम में जलभराव ना हो पायें.

पौध तैयार करना

लैवेंडर की खेती बीज और पौधों दोनों माध्यम से की जा सकती हैं. लेकिन पौध लगाने से पैदावार जल्दी और अधिक मिलती हैं. इसकी पौध नर्सरी में नवम्बर और दिसम्बर माह में तैयार की जाती है. इसके बीजों का अंकुरण तभी होता हैं जब तापमान 12 से 15 डिग्री के बीच पाया जाता है. इसके अलावा नर्सरी में इसके पौधे उत्तक संवर्धन के माध्यम से भी आसानी से तैयार किया जा सकते हैं.

कटिंग के माध्यम से इसकी पौध तैयार करने के दौरान इसके एक या दो साल पुराने पौधों की शाखाओं का इस्तेमाल किया जाता है. जिन्हें नर्सरी में उर्वरक देकर तैयार की गई क्यारियों में 5 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाकर पौध तैयार करते हैं.

पौध रोपाई का तरीका और टाइम

लैवेंडर की खेती

लैवेंडर के पौधे बीज और कलम दोनों के माध्यम से लगाए जा सकते हैं. लेकिन लोग इन्हें पौध के रूप में लगाना ज्यादा पसंद करते हैं. पौध के रूप में लगाते वक्त इन्हें खेत में मेड तैयार कर लगाया जाता हैं. खेत में मेड तैयार करने के दौरान प्रत्येक मेड़ों के बीच एक से डेढ़ मीटर के बीच दूरी होनी चाहिए. मेड पर इसकी पौध की रोपाई के दौरान उन्हें आपस में 25 से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाना चाहिए. जबकि सघन खेती के लिए इन्हें 5 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाना चाहिए. एक हेक्टेयर में औसतन 20 हज़ार के आसपास पौधे लगाए जाते हैं.

लैवेंडर के पौधों की रोपाई वैसे तो पूरे सालभर की जा सकती हैं. लेकिन व्यावसायिक तौर पर इसकी खेती करने के लिए जहां अधिक तेज़ सर्दी या बर्फ पड़ती हैं वहां अप्रैल माह में उगाना अच्छा माना जाता हैं. इसके अलावा जहां गर्मियों में अधिक तेज़ गर्मी पड़ती हैं वहां इसे सर्दियों के मौसम में उगा सकते हैं.

पौधों की सिंचाई

लैवेंडर की खेती के लिए सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती हैं. इसके पौधों को खेत में लगाने के तुरंत बाद उनकी सिंचाई कर देनी चाहिए. उसके बाद खेत में नमी बनाए रखने के लिए आवश्यकता के अनुसार पानी देते रहना चाहिए. इसके पौधों में पानी अधिक मात्रा में नही देना चाहिए. क्योंकि ज्यादा समय तक जल भराव रहने की वजह से पौधों के कई तरह के रोग लगने की संभावना बढ़ जाती हैं.

उर्वरक की मात्रा

लैवेंडर की खेती के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त 15 से 20 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में पौधों को 20 किलो नाइट्रोजन, 40 किलो फास्फोरस और 40 किलो पोटाश की मात्रा को आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिड़कर मिट्टी में मिला दें.

लैवेंडर पौधे एक बार लगाने के बाद कई साल तक पैदावार देते हैं. इसलिए पौधों की हर कटाई के बाद उपर बताई गई रासायनिक उर्वरक की सामान मात्रा को चार बराबर भागों में बांटकर चार बार में पौधों को देनी चाहिए. इसके अलावा जैविक उर्वरकों का छिडकाव भी पौधों की कटाई के बाद खेत में कर देना चाहिए. इससे पौधों का विकास अच्छे से होता हैं. और पैदावार भी अधिक मिलती हैं.

खरपतवार नियंत्रण

लैवेंडर की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से किया जाता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके पौधों की रोपाई के लगभग 25 दिन बाद उनकी हल्की गुड़ाई कर देनी चाहिए. इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण के लिए दो से तीन गुड़ाई काफी होती हैं. पहली गुड़ाई के बाद बाकी की दोनों गुड़ाई 20 से 30 दिन के अंतराल में कर देना चाहिए. इसके अलावा हर कटिंग के बाद पौधों को दो गुड़ाई कटिंग के तुरंत बाद और उसके डेढ़ महीने बाद कर देनी चाहिए. इससे पौधों का विकास अच्छे से होता हैं.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

लैवेंडर की खेती भारत में मुख्य रूप से लद्दाख और जम्मू कश्मीर में की जाती हैं. वहां इसके पौधों में अभी तक कोई रोग देखने को नही मिला हैं. लेकिन मैदानी भागों में इसके पौधे में कई तरह के कीटों का आक्रमण देखने को मिल जाता हैं. जिसकी वजह से पौधों के विकास और उत्पादन में कमी देखने को मिलती हैं. इन सभी तरह के कीटों का जैविक तरीके से नियंत्रण किया जाना अच्छा होता हैं. इन कीट रोगों का जैविक तरीके से नियंत्रण करने के लिए पौधों पर नीम के तेल या अन्य जैविक कीटनाशकों का छिडकाव करना चाहिए.

कीट रोगों के अलावा इसके पौधों में अधिक जल भराव की वजह से जड़ गलन का रोग भी देखने को मिल जाता हैं. जिसकी रोकथाम के लिए खेत में जलभराव ना होने दे. इसके अलावा जल भराव होने के बाद पौधों की जड़ों में बोर्डो मिश्रण का छिडकाव कर देना चाहिए.

पौधों की कटाई

लैवेंडर की पैदावार

लैवेंडर के पौधे रोपाई के लगभग तीन साल बाद अच्छी तरह से पैदावार देना शुरू कर देते हैं. इससे पहले इनकी पैदावार काफी कम प्राप्त होती हैं. लेकिन तीन साल बाद के बाद लगभग चार से पांच साल तक इनके पौधों से अच्छी मात्रा में पैदावार प्राप्त होती हैं. इसके फूलों की कटिंग तब करनी चाहिए जब पौधों में लगभग 50 प्रतिशत से ज्यादा फूल खिल चुके हों.

इसके पौधे पर फूल पहले साल में ही आने लग जाते हैं. जिन्हें जमीन की सतह से कुछ सेंटीमीटर की दूरी छोड़ते हुए तेज़ धार वाले हथियार से काट लेना चाहिए. इसके तने की कटाई के दौरान काटी गई शाखाओं की लम्बाई फूल सहित लगभग 12 सेंटीमीटर से कम नही होनी चाहिए. इसके फूलों की कटिंग के बाद उन्हें निम्न तापमान पर रखकर अधिक समय तक उपयोग में लिया जा सकता हैं.

पैदावार और लाभ

लैवेंडर के फूलों से किसान भाई कई तरह से कमाई कर सकता हैं. इसके फूलों को बाज़ार में सजावट के रूप में बेचकर नगद लाभ कमा सकता हैं. इसके अलावा इसके फूलों से तेल निकालकर उसे बेचकर लाभ कमा सकता हैं. इसके तेल का बाज़ार में काफी महँगा बिकता हैं. जिससे किसान भाई अच्छी आमदनी कमा सकता हैं.

 

Filed Under: औषधि, फूल

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