मक्का की खेती मोटे अनाज के रूप में की जाती है. भारत में मक्के का इस्तेमाल अनाज, भुट्टे और हरे चारे के रूप में होता है. लेकिन विदेशों में मक्के का व्यापारिक तौर पर बड़े पैमाने में इस्तेमाल होता है. जहां मक्के से प्रोटिनेक्स, चॉकलेट पेंट्स, स्याही लोशन स्टार्च और कॉर्न सिरप जैसी कई चीजें बनाई जाती है. जिनमे स्टार्च बनाने में इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है.
मक्का के अंदर कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन जैसे तत्व पाए जाते हैं. जिस कारण ये मानव के लिए ज्यादा उपयोगी होता है. लेकिन भारत में इसका ज्यादा इस्तेमाल पशुओं के खाने और मुर्गी दाने के रूप में किया जाता है. जबकि इंसान मक्के का इस्तेमाल भुट्टे, पॉपकार्न और लइया के रूप में करता है.
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मक्के की खेती खरीफ के मौसम में की जाती है. इसकी खेती के लिए ज्यादा तापमान की जरूरत होती है. इस कारण इसे गर्म जलवायु वाली जगहों पर अधिक उगाते हैं. मक्के की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है. भारत में मक्का की खेती ज्यादातर मैदानी भागों में की जाती है. जिनमें आंध्र प्रदेश, राजस्थान, बिहार, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा राज्य शामिल हैं. इनके अलावा भी और कई राज्य हैं जहां इसकी खेती की जाती है.
अगर आप भी इसकी खेती करना चाह रहे हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
मक्का की खेती के लिए बलुई और दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है. लेकिन बलुई मिट्टी के अलावा भी मक्के को और कई तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है. इसकी खेती के लिए मिट्टी में जल भराव की समस्या नही आनी चाहिए साथ ही मिट्टी में उर्वरक क्षमता भी अच्छी होनी चाहिए. मक्का की खेती अम्लीय और क्षारीय भूमि में नही की जा सकती, इसके लिए मिट्टी का पी. एच. मान 7 के आसपास ही होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
मक्के की खेती के लिए उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त होती हैं. मक्के का पौधा खरीफ के मौसम में अधिक और अच्छी पैदावार देती है. लेकिन आज इसे खरीफ के अलावा रबी के मौसम में भी उगाया जा रहा है. मक्के की खेती के लिए ज्यादा वर्षा की भी जरूरत नही होती.
मक्के की खेती को ज्यादा तापमान की जरूरत होती है. मक्के के बीज को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री से ज्यादा तापमान की जरूरत होती है. अंकुरित होने के बाद पौधे की वृद्धि के टाइम तापमान 25 से 30 डिग्री होना चाहिए. इस तापमान पर पौधा अच्छे से विकास करता है और पैदावार भी अच्छी होती है.
मक्के की किस्में
मक्का को किस्मों के आधार पर अलग अलग प्रजातियों में बांटा गया है. बाज़ार में आज मक्के की तीन तरह की प्रजातियाँ मौजूद हैं.
जल्दी पकने वाली किस्में
जल्दी पकने वाली किस्मों के पौधे बीज लगने के 75 से 80 दिन बाद पककर तैयार हो जाती है. इस प्रजाति की किस्मों की औसत पैदावार 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पाई जाती है. जल्दी पकने की वजह से ये किसान भाइयों के लिए लाभदायक है. क्योंकि जल्दी फसल बेचकर अच्छा मुनाफ़ा तो मिलता ही है और साथ में एक और फसल को उगाने के लिए भी पर्याप्त समय आसानी से मिल जाता है. इस प्रजाति में जवाहर मक्का- 8, विवेक- 4, विवेक- 17 विवेक- 43 विवेक- 42 विकास मक्का- 421, हिम- 129, डीएचएम- 107, डीएचएम- 109 एक्स- 3342, बायो- 9637, डीके सी- 7074, जेकेएमएच- 175 और हाईशेल जैसी कई किस्में पाई जाती हैं.
मध्य अवधि की किस्में
इस किस्म की फसलें पकने में 95 से 100 दिन का टाइम लेती है. इनकी प्रति हेक्टेयर औसतन पैदावार 35 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. इस किस्म का उपयोग हरे चारे और अनाज दोनों ही रूप में हो सकता है. इस तरह की किस्मों में जवाहर मक्का- 216, एमएम- 10, एमएम- 4, मालवीय संकर मक्का-2, बायो-9682, प्रताप- 5, पी- 3441, केएच-510, एनके- 21, केएमएच- 3426, केएमएच- 3712 एनएमएच- 803, प्रो-303 (3461) और बिस्को – 2418 जैसी बहुत सारी किस्में मौजूद हैं.
देरी से पकने वाली किस्में
देरी से पकने वाली किस्मों का उपयोग हरे चारे के रूप में भी लिया जाता हैं. इस प्रजाति की फसल को पकने में 100 से भी ज्यादा दिनों का टाइम लगता है. इस किस्म की औसतन पैदावार सबसे ज्यादा पाई जाती है. इस प्रजाति में एसएमएस- 3904, एचएम- 11, एलक्यूपीएम- 4, सरताज, प्रो- 311, बायो- 9681, सीड टैक- 2324, बिस्को- 855, एमके- 6240, गंगा- 11 त्रिशूल, डेक्कन- 101, डेक्कन- 103 और डेक्कन- 105 किस्में शामिल हैं.
इन सभी किस्मों के अलावा भी कुछ किस्में मौजूद हैं जिन्हें किसान भाई उगाना पसंद करते हैं. इन किस्मों को केवल हरे चारे के लिए ही उगाया जाता है. इस कारण इनसे अनाज प्राप्त नही करते. इनमें जे- 1006, प्रताप चरी- 6 और अफ्रीकन टाल जैसी किस्में मौजूद हैं.
खेत की जुताई
मक्के की खेती के लिए खेत की अच्छे से जुताई करनी चाहिए. शुरुआत में पहली जुताई कर खेत में पुरानी गोबर की खाद डाल दें. उसके बाद खेत में दो से तीन तिरछी जुताई कर खाद को मिट्टी में मिला दें. फिर कुछ दिन बाद खेत में पानी चलाकर उसे जोत दें. इससे खेत में खरपतवार नियंत्रण में भी सहायता मिलती है.
पानी देकर जुताई करने के बाद खेत में पाटा चला दें. जिससे खेत समतल हो जाएगा. और पानी भराव होने के कारण फसल के खराब होने से भी बचा जा सकता हैं.
बीज तैयार करना
मक्के की खेती के लिए ज्यादातर किसान भाई अपने घर के बीज का ही इस्तेमाल करते हैं. लेकिन मक्के का बीज उचित देखभाल ना होने पर अपनी अंकुरण क्षमता को जल्द ही खो देता हैं. इसके लिए बीज को खेत में लगाने से पहले उसकी अंकुरण क्षमता की जांच कर लेना चाहिए. अगर बीज की अंकुरण क्षमता 80 प्रतिशत से ज्यादा पाई जाए तभी बीज को खेत में उगाना चाहिए. संकर किस्मों के बीज हर बार बाज़ार से खरीदकर ही लगाने चाहिए.
मक्के की अंकुरण क्षमता बनाए रखने के लिए बीज को पैदावार के वक्त अच्छे से सुखा लें. उसके बाद बीज को सिट्टे से निकालने के बाद घर पर भी अच्छे से सुखा लें. उसके बाद बीज को उचित दवाइयों से उपचारित कर रख लें. एक एकड़ में घर का 8 से 10 किलो बीज काफी होता है. जबकि संकर किस्म का प्रति हेक्टेयर 21000 पौधे के हिसाब से बीज लगाना चाहिए.
बीज को खेत में उगाने से पहले उसे उपचारित कर लें इससे फसल को कोई रोग नही लगता है. इसके लिए बीज को थायरम, कार्बेन्डाजिम, थायोमेथोक्साम और इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित कर खेत में लगाए. इसके अलावा एजोटोबेक्टर की 5 ग्राम मात्रा को एक किलो बीज में मिलकर तुरंत बुवाई कर सकते हैं. एजोटोबेक्टर को जैविक टिका के नाम से जाना जाता है.
बीज की रोपाई का टाइम और तरीका
मक्के की खेती ज्यादातर खरीफ के मौसम में की जाती है. लेकिन आज कई जगहों पर इसे रबी के टाइम में भी उगाया जा रहा है. खरीफ के मौसम में इसकी फसल की रोपाई करते वक्त इसे जून के लास्ट या जुलाई के पहले सप्ताह तक खेत में लगा देना चाहिए. जबकि रबी के टाइम की जाने वाली इसकी खेती के लिए अक्टूबर और नवम्बर का माह इसकी रोपाई के लिए सबसे उपयुक्त होता है.
खरीफ के वक्त मक्के की रोपाई वर्षा ऋतू के शुरू होने के साथ ही कर देनी चाहिए. लेकिन अगर सिंचाई की उचित व्यवस्था हो तो इसकी रोपाई बारिश के शुरू होने से 20 दिन पहले कर सकते हैं.
मक्के की रोपाई मेड़ों पर की जाती है. अलग अलग प्रजाति की किस्मों के लिए मेड के बीच दूरी अलग अलग होनी चाहिए. जल्दी पकने वाली किस्मों के लिए दो मेड़ों के बीच लगभग 2 फिट की दूरी होनी चाहिए. जबकि मध्य अवधि की फसल के लिए मेड की दूरी 2 फिट से तीन फिट और कम अवधि की फसल के लिए एक फिट की दूरी काफी होती है.
मक्के के बीज को खेत में उगाने के लिए किसान भाई मशीनों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन जो छोटे किसान होते हैं वो इसकी रोपाई हाथ से ही करते हैं. मक्के के बीज की रोपाई करते वक्त प्रत्येक बीज के बीच लगभग 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी होनी चाहिए. और बीज को 3 सेंटीमीटर की गहराई में लगाना चाहिए.
मक्के की सिंचाई
मक्के के बीज को खेत में बारिश के शुरू होने से पहले लगाते हैं तो बीज लगाने के तुरंत बाद इसकी सिंचाई कर दें. लेकिन बारिश के मौसम में इसकी रोपाई करते हैं तो सिंचाई की जरूरत नही होती. जब बारिश का मौसम समाप्त हो जाए और पौधा लगातार विकास कर रहा हो तब उसे पानी की जरूरत होती है. उस वक्त खेत में नमी बनाये रखने के लिए सप्ताह में एक बार पानी दे देना चाहिए.
मक्के के पौधे पर जब सिट्टे खिलने लगे तब उसे पानी की ज्यादा जरूरत होती है. उस वक्त आवश्यकता के अनुसार पौधों को पानी देना चाहिए. इससे पैदावार अच्छी होती है.
उर्वरक की मात्रा
मक्के की फसल को उर्वरक की ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए 10 से 12 गाडी गोबर की पुरानी खाद खेत की जुताई के वक्त खेत में डालनी चाहिए. जिसे जुताई के वक्त अच्छे से मिट्टी में मिला दें. गोबर की खाद के अलावा इसके पौधों को एन.पी.के. की उचित मात्रा को 1:2:2 के अनुपात आखिरी जुताई के वक्त खेत में मिट्टी गहराई में दें. इसके अलावा इसको मशीन से बीज लगते वक्त भी बीज रोपाई के साथ साथ दे सकते हैं.
उसके बाद नाइट्रोजन की 20 किलो मात्रा को एक महीने बाद खेत में सिंचाई के वक्त देनी चाहिए. और उसके बाद फिर 20 किलो मात्रा मंझरी आने के दौरान दे. इससे मंझरी अच्छे से विकास करती हो और बीज भी ज्यादा बनते हैं. जिसका असर पैदावार पर दिखाई देता है.
फसल में खरपतवार नियंत्रण और देखभाल
मक्के की खेती में भी खरपतवार नियंत्रण की जरूरत होती है. मक्के की खेती में खरपतवार नियंत्रण के लिए नीलाई गुड़ाई की जाती है. इसकी पहली नीलाई गुड़ाई बीज लगाने के 20 दिन बाद कर देनी चाहिए. उसके बाद 15 दिन के अंतराल में दो गुड़ाई और कर देनी चाहिए.
हर गुड़ाई के वक्त पौधों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. दरअसल मक्के के पौधे लम्बे होते हैं. और मक्के का सिट्टा ऊचाई पर लगता है. जिसके अंदर वजन ज्यादा होता है जिससे पौधे के टूटकर गिरने का डर होता है. इस कारण पौधे की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाने से जड़ें मजबूत हो जाती हैं.
मक्के की फसल में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक तरीकों से भी किया जा सकता है. इसके लिए बीज को खेत में लगाने से पहले जुताई के वक्त खेत में एट्राजीन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा इसका इस्तेमाल बीज लगाने के तुरंत बाद भी कर सकते हैं. इसके प्रभाव के कारण खरपतवार जन्म लेते ही नष्ट हो जाती हैं. और पौधे को पौषक तत्व उचित मात्रा में मिलते रहते हैं.
आवर्ती या सहायक फसलें
मक्के की खेती के साथ में कई सहायक फसलों को उगाया जा सकता है. इन सहायक फसलों में ग्वार, तिल, मूंग और उड़द को मक्के के साथ उगा सकते हैं. जिससे किसान भाइयों को मुख्य फसल के साथ एक और फसल मिल जाती है. जिन्हें बाज़ार में बेचकर अतिरिक्त आय भी हो जाती है.
मक्के की फसल में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
मक्के की फसल में कई तरह के रोग लगते हैं. जिससे फसल को ज्यादा नुक्सान पहुँचता है. पौधों पर ये रोग किट और वायरस की वजह से लगते हैं. जिनका रासायनिक और समेकित तरीके से उपचार किया जा सकता है. और फसल को खराब होने से बचाया जा सकता है.
समेकित तरीके से फसल के बचाव के लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर उसे खुला छोड़ दें. जिससे हानिकारक किट और वायरस जमीन में सूर्य की गर्मी की वजह से नष्ट हो जाते हैं. इसके अलावा प्रमाणित बीज खेत में उगाने चाहिए. और एक ही किटनाशक का बार बार खेत में छिडकाव नही करना चाहिए. फसल चक्र को अपनाकर भी फसल को कीटों के प्रकोप से बचाया जा सकता है. जबकि रासायनिक तरीके से इनकी रोकथाम के लिए खेत में रासायनिक दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है.
धब्बेदार तनाबेधक किट
मक्के के पौधे को लगने वाला ये रोग जमीन से बाहरी दिखाई देने वाले भाग पर आक्रमण करता है. इसके किट पौधे पर आक्रमण कर उसकी वृद्धि को रोक देते हैं. जिससे पौधे पर आने वाले सिट्टे में दाने नही बनते हैं. इसके लगने पर तना सूखने लगता है. और पौधे की जड़ों से बदबू आने लगती है. इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर क्विनालफॉस या कार्बोरिल का छिडकाव पौधे के अंकुरण के वक्त करना चाहिए.
पत्ती झुलसा
पौधों पर इस का ज्यादा असर पत्तियों पर देखने को मिलता है. यह रोग पौधे पर नीचे से ऊपर की तरफ बढ़ता है. जिससे नीचे की पत्तियां सुखने लगती हैं. पत्तियों पर लम्बे नाव के आकर जैसे भूरे धब्बे भी दिखाई देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए जब पौधों पर इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगे तो तुरंत जिनेब के 0.12% घोल को पौधों पर छिड़कना चाहिए.
डाउनी मिल्डयू
डाउनी मिल्डयू रोग पौधे के अंकुरण के तुरंत बाद दिखाई देता है. इसके लगने पर पत्तियों पर धारियां दिखाई देती हैं. इससे प्रभावित पत्तियों पर सफ़ेद रुई जैसा आवरण दिखाई देता हैं. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है. पौधे पर जब इस तरह के लक्षण दिखाई दे तो पौधे पर डायथेन एम-45 का छिडकाव तीन बार करना चाहिए.
तना सड़न
पौधे पर ये रोग किसी भी अवस्था में लग सकता है. लेकिन इसका ज्यादा प्रकोप पौधे की मध्यम अवस्था में देखने को मिलता है. इस रोग की वजह से पौधे का तना सड़ने लगता हैं जिसकी शुरुआत पौधे की पहली गांठ से होता है. इसके लगने पर पौधे की पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है और पत्तियां सुखकर गिरने लगती है. पौधे पर इस रोग के लक्षण दिखाई दे तो पौधे की जड़ों में केप्टान की उचित मात्रा का घोल डालना चाहिए.
सफेद लट
सफेद लट का रोग पौधे की जड़ों पर देखने को मिलता है. इसकी सुंडी जमीन में रहकर पौधे की जड़ों को काटती है. जिससे पौधे को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचता है. इसके लगने पर पौधे की पत्तियां पीली पड़ने लगती है. और कुछ टाइम बाद पौधा मुरझाने लगता है. पौधे की जड़ों के पास की मिट्टी हटाने पर इसकी सुंडी दिखाई देती है. जिसका रंग सफ़ेद और मुहँ पीले रंग का होता है. इस रोग के लगने पर पौधों की जड़ों में क्लोरपायरीफास 20 ई सी की उचित मात्रा का छिडकाव करें. इसके अलावा बीज को बोने से पहले खेत में फोरेट का छिडकाव करें.
पत्ती लपेटक किट
पौधों पर ये रोग किट की वजह से लगता हैं. इसके किट पौधे की पत्तियों को लपेटकर उसके अंदर रहकर पत्तियों को नुक्सान पहुँचाते है. जिससे पत्तियों का रंग धीरे धीरे सफ़ेद दिखाई देने लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर स्पिनोसेड, ट्राइजोफॉस या क्विनालफॉस का छिडकाव करना चाहिए.
कटुआ रोग
पौधे को ये किट सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. इस रोग की सुंडी दिन के वक्त मिट्टी के अंदर रहती है. और रात के वक्त मिट्टी से बहार आकर पौधे के तने को मिट्टी के पास से काट देती हैं. जिससे पौधा तुरंत नष्ट हो जाता है. इस रोग से बचाव के लिए बीज को खेत में लगाने से पहले फिप्रोनिल या क्लोरोपायरीफॉस से मिट्टी को उपचारित कर लेना चाहिए.
फसल की कटाई
मक्के की फसल अलग अलग प्रजाति के अनुसार 75 से 100 दिन में पक्कर तैयार हो जाती है. फसल के पकने पर भुट्टे मे दानो का रंग पीला दिखाई देने लगता है. और भुट्टे को ढकने वाले पत्तों का रंग भी पीला पड़ने लगता है. ऐसे में पौधे की कटाई कर लेनी चाहिए. बाजरे की तरह मक्का की भी दो बार कटाई की जाती है. पहले इसके पौधे को काटा जाता है. उसके बाद इसके भुट्टे को पौधे से काटकर अलग किया जाता है. भुट्टे के काटने के बाद बचे भाग को सुखाकर पशुओं के चारे के रूप में उपयोग लेते हैं.
भुट्टे को काटने के बाद उसे कुछ दिन धूप में सुखाते हैं. जब भुट्टे के दाने अच्छे से सुख जाते हैं उसके बाद उन्हें मशीन ( थ्रेसर ) से निकलवा लेते हैं. जिन्हें बाद में बोरो में भरकर बाज़ार में बेच देते हैं.
पैदावार और लाभ
मक्के की अलग अलग क़िस्म की औसत पैदावार 40 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो जाती है. और इसका बाज़ार भाव दो से तीन हज़ार प्रति क्विंटल होता है. जिससे किसान भाई काफी कम समय में ही लगभग एक लाख तक की पैदावार आसानी से कर सकते हैं.
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