मेंथा की खेती औषधि पौधे के रूप में की जाती है. जिसको पुदीना और मिन्ट के नाम से भी जाना जाता है. पुदीने का सम्पूर्ण पौधे का इस्तेमाल के योग्य होता है. इसका पौधा जड़ के रूप में जमीन की सतह पर फैलता है. जिसके अंदर एक विशेष प्रकार की खुशबू आती है. जिस कारण इसका उपयोग खाने की चीजों को खुशबूदार बनाने के लिए किया जाता है. मेंथा का इस्तेमाल दवाईयों, सौंदर्य प्रसाधनों, पेय पदार्थों, सिगरेट और पान मसालों में भी किया जाता है. पुदीने का इस्तेमाल मानव शरीर के लिए उपयोगी होता है. इसके खाने से पेट संबंधित बिमारियां नही होती. इसके अलावा इसके इस्तेमाल से गर्मियों में लू से बचा जा सकता है.
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पुदीने का पौधा शुष्क और अर्द्धशुष्क प्रदेशों में उगाया जाता है. इसका पौधा गर्म जलवायु में ज्यादा पानी देने पर अधिक पैदावार देता है. इस कारण इसकी खेती गर्मी के मौसम में ज्यादा की जाती है. अगर इसके पौधों को सर्दियों में पड़ने वाले पाले से बचा लिया जाए तो वर्षभर पैदावार दे सकते हैं. इसके पौधे को बारिश की आवश्यकता होती है. इसकी खेती के लिए सामान्य पी.एच. वाली भूमि उपयुक्त होती है.
अगर आप भी इसकी खेती कर अच्छी कमाई करना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
मेंथा की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. जबकि भारी और चिकनी भूमि में इसकी खेती नही की जा सकती. क्योंकि इसकी पैदावार जमीन की ऊपरी सतह पर की जाती है, ऐसे में भारी चिकनी भूमि में जलभराव होने पर इसकी पैदावार खराब हो जाती है. इसकी अधिक पैदावार लेने के लिए भूमि में जीवाश्म और कार्बनिक पदार्थ पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान 6 से 7.5 के बीच होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
मेंथा की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है. भारत में इसकी खेती जायद और खरीफ की फसल के साथ की जाती है. जबकि सर्दियों के मौसम के इसकी खेती नही की जा सकती. क्योंकि सर्दियों में पड़ने वाले पाले से इसकी फसल को काफी नुक्सान पहुँचता है. गर्मी और बारिश का मौसम इसकी खेती के लिए लाभदायक होता है.
इसके पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए 20 से 25 डिग्री तापमान की जरूरत होती हैं. जबकि विकास करने के लिए इसके पौधे को 30 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. इसका पौधा गर्मियों में अधिकतम 40 डिग्री तापमान को भी सहन कर सकता है.
उन्नत किस्में
मेंथा की कई उन्नत किस्में हैं जिन्हें बड़ी मात्रा में किसान भाई उगाना पसंद करते हैं. इन किस्मों को उनकी खुशबू और गुणवत्ता के आधार पर तैयार किया गया है.
जापानी पुदीना
मेंथा की ये एक विदेशी क़िस्म है. जिसके पौधे सीधे और फैलने वाले होते हैं. इसके तने से शाखाएं अधिक मात्रा में निकलती हैं. इस किस्म के मेंथा में 65 से 75 प्रतिशत मेंथॉल पाया जाता है. भारत में इस किस्म को उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अधिक मात्रा में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे की पत्तियां आकार में बड़ी और अंडाकार होती है. इसके पौधे पर सफ़ेद रंग के फूल गुच्छों में आते हैं.
स्पीयर मिन्ट
इस किस्म के पुदीना की खेती सालभर की जा सकती है. इसका पौधा 30 से 100 सेंटीमीटर लम्बा होता है. जो भूमि में फैले होता हैं. इसके पौधों और पत्तियों पर रोयें ( रोंगटे ) नही होते. इसके पौधे पर शाखाएं काफी ज्यादा बनती है. जिन पर बनने वाली पत्तियों का आकार छोटा होता है. इस किस्म के पौधे पर सफ़ेद और गुलाबी फूल निकलते हैं. इस किस्म के पौधे में मेंथॉल लगभग 65 प्रतिशत तक पाया जाता है.
बारगामॉट पुदीना
इस किस्म के पौधे शाखाओं युक्त कम लम्बाई के होते हैं. जिसकी पत्तियां रोयें मुक्त होती है. इसकी पत्तियों को मसलने पर उनसे धनिये की जैसी खुशबू आती है.
पिपर मिन्ट
मेंथा की इस किस्म को काला पुदीना के नाम से भी जाना जाता है. जो मेंथा की एक संकर किस्म है. जिसको मेंथा एक्वेटिका और मेंथा स्पिकाटा के संकरण से तैयार किया गया है. इसके पौधे 30 से 100 सेंटीमीटर लम्बाई के पाए जाते हैं. जिन पर बनने वाली शाखाओं की मात्रा अधिक होती है. इस किस्म के पौधों में मेंथॉल लगभग 50 प्रतिशत और मिथाइल 15 प्रतिशत पाया जाता है.
मेंथा आरवेंसिस
इस किस्म का पौधा लगभग दो फिट की लम्बाई का होता है. जिस पर शाखाएं कम पाई जाती है. इस किस्म को जंगली पुदीना भी कहा जाता है. इसकी पत्तियां दो सेंटीमीटर तक चौड़ी होती है. जिन पर रोयें अधिक मात्रा में पाए जाते हैं. इस किस्म की पत्तियों और फूल का रंग बैंगनी होता है. जबकि कुछ फूल सफ़ेद और गुलाबी भी होते हैं.
खेत की तैयारी
पुदीने की खेती के लिए शुरुआत में खेती की गहरी जुताई कर उसे खुला छोड़ दें. उसके कुछ दिन बाद उसमें गोबर की खाद डालकर उसे मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी छोड़कर उसका पलेव कर दें. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद जब जमीन जुताई के योग्य हो जाए, तब उसमें रोटावेटर चलाकर खेत की जुताई कर दें. जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाती है. उसके बाद खेत में पाटा लगाकर मिट्टी को समतल बना दें.
पौध तैयार करना
पुदीने की रोपाई के लिए पहले नर्सरी में इसकी पौध तैयार की जाती है. इसकी पौध जड़ों के माध्यम से तैयार की जाती है. नर्सरी में इनकी रोपाई फसल को खेत में लगाने से लगभग डेढ़ से दो महीने पहले की जाती है. नर्सरी में इनकी रोपाई प्रो-ट्रे में करनी चाहिए. नर्सरी में इनकी जड़ों की कटींग ( सर्कस ) को लगाने से पहले उन्हें पानी में धोकर गोमूत्र या कार्बेंडाजिम से उपचारित कर लेना चाहिए.
पौध रोपण का तरीका और टाइम
पुदीने की रोपाई नर्सरी और सीधे खेतों में भी की जा सकती है. सीधे खेतों में इसकी रोपाई करने के लिए खेत में 2 गुना 5 मीटर की क्यारियाँ तैयार कर लें. उसके बाद इसकी जड़ों को क्यारी में दो फिट की दूरी रखते हुए लगाए. एक हेक्टेयर में रोपाई के लिए 5 से 7 सेंटीमीटर लम्बाई वाले सर्कस की लगभग 5 किवंटल मात्रा काफी होती है. सर्कस इसकी उन जड़ों को कहा जाता है, जिनको खेत में बीज के रूप में उगाया जाता है.
जड़ों की रोपाई से पहले उन्हें पानी में धोकर गोमूत्र या कार्बेंडाजिम से उपचारित कर लेना चाहिए. लेकिन सीधे क्यारी में लगाने से अगर कोई जड़ अंकुरित नही होती है तो वो जगह खाली बच जाती है. जिससे पैदावार कम मिलती है. इस कारण इसकी जड़ों को पहले नर्सरी में तैयार किया जाता है. नर्सरी में तैयार किये गए पौधों को भी क्यारी में दो फिट की दूरी पर लगाया जाता है.
पुदीने के पौधों को वैसे तो सर्दी के मौसम को छोड़कर कभी भी लगा सकते हैं. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए इसे फरवरी या मार्च महीने में खेतों में लगाया जाता है. अधिक देरी करने पर इसके पौधों मे पाए जाने वाले तेल की मात्रा कम हो जाती है.
पौधों की सिंचाई
पुदीने के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. क्योंकि मिट्टी में नमी होने पर इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं. तेज़ गर्मी के मौसम में इसके पौधों की दो से तीन दिन के अंतराल में हल्की हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए. फरवरी और मार्च के महीने में कम गर्मी होने के कारण इसके पौधों की सप्ताह में एक बार सिंचाई करनी चाहिए. वहीं सर्दी के मौसम में लगभग 15 दिन के अंतराल में सिंचाई करना अच्छा होता है. बारिश के मौसम में इसके पौधों को सिंचाई की जरूरत नही पड़ती. लेकिन बारिश वक्त पर ना हो और पौधों को पानी की जरूरत हो तो आवश्यकता के अनुसार पौधों की सिंचाई कर देनी चाहिए.
उर्वरक की मात्रा
मेंथा के पौधे को उर्वरक की ज्यादा जरूरत होती है. क्योंकि इसके पौधों की जड़ें जमीन की ऊपरी सतह से ही अपने विकास के लिए आवश्यक तत्व हासिल करती हैं. इसलिए खेत की जुताई के वक्त खेत में लगभग 15 से 20 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में डालकर मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा लास्ट जुताई के वक्त दो बोरे एन.पी.के. की मात्रा को खेत में छिडक दें. उसके बाद जब पौधा विकास करने लगे तब तीसरी या चौथी सिंचाई के वक्त 20 किलो नाइट्रोजन सिंचाई के साथ पौधों को देनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
पुदीने की खेती में खरपतवार नियंत्रण काफी अहम होता है. क्योंकि इसके पौधों का विकास भूमि की ऊपरी सतह पर ही होता है. ऐसे में पौधों के साथ उत्पन्न होने वाली खरपतवार इसके पौधों और पैदावार दोनों को नुक्सान पहुँचाती है. जिनकी रोकथाम करना जरूरी होता है.
पुदीने की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीके से किया जाता है. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों को खेत में लगाने से पहले पेन्डीमेथलीन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. जबकि प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण पौधों की नीलाई गुड़ाई कर किया जाता है. इसके पौधों की पहली गुड़ाई पौध लगाने के 20 दिन बाद कर देनी चाहिए. उसके बाद पौधों की बाकी की गुड़ाई 15 दिन के अंतराल में करनी चाहिए. इसके अलावा पौधों की दूसरी कटाई के बाद एक बार उनकी गुड़ाई करना अच्छा होता है.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
पुदीने के पौधे पर कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी रोकथाम ना की जाये तो पैदावार को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचता है. जिस कारण इनकी वक्त रहते रोकथाम करना जरूरी होता है.
पर्ण दाग
पुदीने की खेती में पर्ण दाग रोग इसकी पैदावार को अधिक प्रभावित करता है. इस रोग के लगने पर पौधों की पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. पौधों पर रोग का प्रभाव बढ़ने से पतीयाँ पीली होकर गिरने लगती है. जिससे पौधे का विकास रुक जाता है. और पैदावार को काफी नुक्सान पहुँचता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मैंकोजेब की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
जड़ गलन
जड़ गलन रोग का प्रभाव पौधों पर प्रारम्भिक अवस्था में ज्यादा देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पौधों की जड़ें काली दिखाई देने लगती है. जिन पर गुलाबी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. इस रोग के लगने के कुछ दिन बाद पौधा सड़कर खराब हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों में कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
पत्ती लपेटक
पौधों पर पत्ती लपेटक रोग कीट की वजह से फैलता है. इस रोग के कीट का लार्वा पौधों की पत्तियों को लपेटकर उन्हें खाता है. जिसके कारण पैदावार कम प्राप्त होती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा को पानी में मिलाकर छिडकाव करना चाहिए.
कातरा
इस रोग की सुंडी पौधों की पत्तियों की खाकर पैदावार की काफी ज्यादा नुकसान पहुँचाती है. इसके कीट का प्रभाव पौधों पर बहुत तेज़ी से बढ़ता है. कातरा की सुंडी की लम्बाई तीन से चार सेंटीमीटर तक पाई जाती है. जिसके शरीर पर रोयेंदार बाल दिखाई देते हैं. इसका रंग पीला, काला और चितकबरा होता है. इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर सर्फ का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए. इसके अलावा फेनवेलरेट और डाइक्लोरवास की उचित मात्रा का घोल तैयार कर उसका छिडकाव करना भी फायदेमंद होता है.
पौधों की कटाई और गहाई
मेंथा के पौधों की कटाई प्राय दो बार की जाती है. इसकी पहली कटाई पौध रोपाई के लगभग तीन महीने बाद कर ली जाती है. इसके पौधों की कटाई जमीन से 4 या 5 सेंटीमीटर ऊपर से करनी चाहिए. जिसे पौधा फिर से अच्छे से विकास कर सके. पहली कटाई के बाद इसके पौधों की दूसरी कटाई लगभग दो महीने बाद की जाती है.
इसके पौधों की कटाई करने के बाद इसकी पत्तियों को दो से तीन घंटे तेज़ धूप में सुखाया जाता है. उसके बाद पत्तियों को कुछ देर छायादार जगह में हल्का सुखाकर उनसे तेल निकाला जाता है. इनका तेल पौधों की कटाई के तीन से 6 घंटे बाद आसवन विधि से निकाला जाता है. जिसके लिए वर्तमान के कई तरह की मशीने उपलब्ध हैं.
पैदावार और लाभ
मेंथा की अलग अलग किस्मों से हरी पत्तियों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 300 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. जिनसे प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा 100 किलो के आसपास पाई जाती है. जिसका बाज़ार भाव 2000 के आसपास पाया जाता हैं. जिससे किसान भाइयों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है.