बेर भारत का एक लोकप्रिय फल है. जिसकी खेती भारत और चीन में बड़े पैमाने पर की जाती है. इसके पौधे कांटेदार होते हैं. जिनकी लम्बाई अलग अलग किस्मों के आधार पर अलग अलग पाई जाती है. बेर के पके हुए फलों का इस्तेमाल खाने में किया जाता है. खाने के रूप में इसके फलों का इस्तेमाल सुखाकर छुआरा, कैन्डी और शीतल पेय पर्दार्थों को बनाने में भी किया जाता है. इसके फलों में विटामिन ए, सी, कैल्शियम, मैग्नीशियम और जस्ता जैसे खनिज पदार्थ अधिक मात्रा में पाए जाते हैं. भारत में इसकी खेती राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब, बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, तामिलनाडू और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में बड़ी मात्रा में की जाती है.
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बेर की खेती के लिए के लिए शुष्क जलवायु को सबसे उपयुक्त माना जाता है. बेर की खेती के लिए अधिक बारिश की जरूरत नही होती. सर्दी के मौसम में इसकी खेती नही की जा सकती. क्योंकि सर्दी के मौसम में इसके पौधे विकास नही करते. इसकी खेती के लिए हल्की क्षारीय भूमि को उपयुक्त माना जाता है. बेर के पौधों को पानी की जरूरत कम होती है. क्योंकि इसके पौधों की जड़ें अधिक गहराई में जाने में सक्षम होती है. जिस कारण इसके पौधे भूमि से अपने लिए पानी आसानी से ग्रहण कर लेते हैं. बेर की खेती कम खर्च वाली होने के कारण किसान भाइयों के लिए काफी लाभदायक मानी जाती हैं.
अगर आप भी बेर की खेती से अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं तो आज हम आपको बेर की खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
बेर की खेती उपजाऊ और बंजर दोनों तरह की भूमि में की जा सकती है. इसकी खेती के लिए भूमि में जलभराव नही होना चाहिए. क्योंकि अधिक समय तक नमी के बने रहने से इसके पौधे खराब हो जाते हैं. इसलिए व्यावसायिक तौर पर इसकी खेती से अधिक लाभ कमाने के लिए इसे बलुई दोमट मिट्टी में उगाना चाहिए. इसकी खेती हल्की क्षारीय और अम्लीय दोनों तरह की भूमि में की जा सकती हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 8 के बीच उपयुक्त माना जाता हैं.
जलवायु और तापमान
बेर की खेती के लिए शुष्क और अर्द्ध शुष्क प्रदेशों की भूमि उपयुक्त होती है. इसकी खेती समुद्र तल से 1000 मीटर की ऊंचाई वाले भागों में आसानी से की जा सकती है. इसकी खेती के लिए सर्दी के मौसम को उपयुक्त नही माना जाता. सर्दी के मौसम में इसके पौधे फल उत्पादन करने की क्षमता खो देते है. जबकि बारिश और गर्मी दोनों ही मौसम इसकी खेती के लिए उपयुक्त होते है.
बेर के पौधों को शुरुआत में उगाने के लिए 20 से 22 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. उसके बाद पौधों के विकास के दौरान 25 से 35 डिग्री का तापमान उपयुक्त होता है. इसके अलावा विकास के दौरान इसके पौधे अधिकतम 45 डिग्री तापमान को भी सहन कर सकते हैं.
उन्नत किस्में
बेर की काफी सारी उन्नत किस्में बाज़ार में मौजूद हैं. इन सभी किस्मों का चयन अलग अलग क्षेत्रों में फलों के भौतिक और रासायनिक गुणों ( फल का रंग, वजन, आकार, मिठास और खटास की मात्रा ) के आधार पर किया गया है. इन सभी किस्मों को अलग अलग जगहों पर अधिक पैदावार लेने के लिए उगाया जाता है.
गोला
बेर की इस किस्म के फल चमकदार और गोल आकार के होते हैं. इसके पूर्ण पके फलों का रंग सुनहरी पीला दिखाई देता है. इस किस्म के पौधे कम समय में ज्यादा पैदावार देने के लिए जाने जाते है. इस किस्म के फलों में गुदे की मात्रा ज्यादा पाई जाती है. इसका गुदा सफ़ेद और मीठे रस वाला होता है. इसके पूर्ण रूप से तैयार एक पेड़ का सालाना औसतन उत्पादन 80 किलो के आसपास पाया जाता है
थाई आर जे
बेर की ये एक संकर किस्म है. जिसे देरी से पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म को एप्पल बेर के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 6 महीने बाद ही पैदावार देना शुरू कर देते हैं. इस किस्म के पौधों का सालाना उत्पादन 100 किलो के आसपास पाया जाता है. अगर इसकी अच्छी देखभाल की जाये तो इसका पौधा साल में दो बार फल दे सकता है. इसके पेड़ की ख़ासियत ये है कि इसके पौधे में काटें नही पाए जाते. जिससे बेर तोड़ने में काफी आसानी होती है. इस किस्म के फल पकने के बाद हरे पीले दिखाई देते हैं. जिनका आकार बड़ा होता है. और फलों में गुदे की मात्रा ज्यादा पाई जाती हैं.
काला गोरा
बेर की इस किस्म के पौधों को अगेती पैदावार लेने के लिए उगाया जाता है. इस किस्म के फलों आकार लम्बा दिखाई देता हैं. इसके फलों में गुदे की मात्रा 95 प्रतिशत से भी ज्यादा पाई जाती हैं. इसके पके हुए फलों का रंग पीला दिखाई देता है. इसके फलों को खाने के दौरान हल्की खटास का अनुभव होता है. इस किस्म के पौधे साल में लगभग 80 किलो के आसपास पैदावार देते हैं.
जेडजी 2
बेर की इस किस्म को अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म का पौधा फैला हुआ दिखाई देता है. इसके फल आकार में छोटे और अंडाकार दिखाई देते हैं. इसके फल पकने के बाद भी हरे दिखाई देते हैं. जिनका स्वाद मीठा होता हैं. इस किस्म के पौधों पर फफूंदी का रोग देखने को नही मिलता. इस किस्म के पौधों का उत्पादन 150 किलो तक पाया जाता हैं. इसके पौधे पर फल फूल खिलने के बाद मार्च तक पककर तैयार हो जाते हैं.
सनौर 2
इस किस्म के फलों का आकार बड़ा और उनका बाहरी आवरण काफी पतला होता है. पकने के बाद इसके फल पीले रंग के दिखाई देते हैं. इसके फलों का स्वाद काफी मीठा पाया जाता है. इस किस्म के पौधे पंजाब में अधिक उगाये जाते हैं. इसके पूर्ण रूप से तैयार एक पौधे का सालाना उत्पादन 100 से 150 किलो तक पाया जाता है.
बनारसी कड़ाका
बनारसी कड़ाका बेर की एक काफी प्रसिद्ध किस्म है. जो मध्य समय में पैदावार देने के लिए जानी जाती है. इस किस्म के पौधों पर लगने वाले फलों का स्वाद मीठा और अनोखा होता है. इसके एक पौधे से सालाना 125 किलो के आसपास पैदावार प्राप्त होती है. इसके फल पकने के बाद भूरे पीले दिखाई देते हैं.
कैथली
बेर की इस किस्म को पंजाब और हरियाणा में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे सामान्य आकार के होते हैं. जिनका उत्पादन 50 से 100 किलो के बीच पाया जाता है. इसके फल पकने के बाद हरे पीले दिखाई देते हैं. जिनका आकार अंडाकार दिखाई देता है. इस किस्म के फल मार्च में आखिर तक पककर तैयार हो जाते है. इस किस्म के पौधों पर फफूंद जनित रोगों का प्रभाव दिखाई नही देता.
उमरान
बेर की इस किस्म को राजस्थान के अलवर जिले में तैयार किया गया था. इस किस्म के पौधे सबसे ज्यादा पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इसके प्रत्येक पौधों से सालाना 150 से 200 किलो के बीच पैदावार प्राप्त होती है. इस किस्म के फल तोड़ने के बाद काफी वक्त तक ख़राब नही होते हैं. इसके फलों का रंग सुनहरी पीला दिखाई देता है, जो पूरी तरह से पकने के बाद चॉकलेटी रंग के दिखाई देने लगते हैं.
इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिन्हें किसान भाई अगेती और पछेती पैदावार लेने के लिए अलग अलग जगहों पर उगाया जाता है. जिनमें कोथो, महरूम,दोढीया, सोनोर- 2, मुड़या महरेश, नागपुरी, थोर्नलैस, फेदा, पौंड, अलीगंज, बनारसी, पैवन्दी और नरमा जैसी और भी कई किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
बेर के पौधे एक बार लगाने के बाद लगभग 50 से 60 साल तक पैदावार देते हैं. इसलिए खेती की तैयारी काफी बेहतरीन तरीके से करनी चाहिए. इसके पौधों को खेत में गड्डे तैयार कर लगाया जाता है. इन गड्डों को तैयार करने से पहले खेत की पलाऊ या मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. उसके बाद खेत को कुछ वक्त के लिए खुला छोड़ दें. ताकि मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट नष्ट हो जाएँ.
खेत को खुला छोड़ने के बाद खेत में रोटावेटर चलाकर भूमि में मौजूद ढेलों को तोड़कर मिट्टी में मिला दें. इससे मिट्टी भुरभुरी दिखाई देने लगती है. उसके बाद खेत में पाटा चलाकर भूमि को समतल बना दें. ताकी बाद में बारिश के वक्त खेत में जलभराव जैसी समस्याओं का सामना ना करना पड़ें.
भूमि को समतल करने के बाद खेत में चार से पांच मीटर की दूरी रखते हुए दो फिट चौड़ाई और एक से डेढ़ फिट गहराई के गड्डे तैयार कर लें. खेत में इन गड्डों को पंक्तियों में तैयार किया जाता है. इस दौरान प्रत्येक पंक्तियों के बीच भी तीन से चार मीटर की दूरी होनी चाहिए.
गड्डों के तैयार होने के बाद उनमें उचित मात्रा में रासायनिक और जैविक उर्वरक को मिट्टी में मिलाकर वापस गड्डों में भर देते है. गड्डों की भराई के बाद उनकी गहरी सिंचाई कर ढक दें. इससे गड्डों में मौजूद उर्वरक के पोषक तत्व अच्छे से मिट्टी में मिल जाते है. इन गड्डों को पौध रोपाई से लगभग एक महीने पहले तैयार किया जाता है.
पौध तैयार करना
बेर की पौध बीज और कलम दोनों के माध्यम से तैयार की जाती है. बीज के माध्यम से तैयार पौधे काफी दिनों बाद पैदावार देना शुरू करते हैं. इस कारण इसकी पौध कलम के माध्यम से ही तैयार की जाती है. कलम के माध्यम से इसकी पौध कई तरह से तैयार की जाती है. जिनमें कलम रोपण सबसे आसान विधि है. नर्सरी में ज्यादातर पौध कलम रोपण के माध्यम से ही तैयार की जाती हैं. इसके लिए इसकी कलम को पॉलीथीन में लगाकर रख देते हैं और जब पौध पूरी तरह से तैयार हो जाता है तब उनकी रोपाई खेत में तैयार किये गए गड्डों में कर दी जाती है.
इसके अलावा वर्तमान में काफी ऐसी नर्सरियां भी हैं जो अलग अलग उन्नत किस्मों के पौधे बेचती हैं. जिनसे किसान भाई तैयारी की हुई पौध खरीद सकता है. पौध खरीदने से किसान भाई का वक्त और मेहनत दोनों बच जाती है. इसकी पौध नर्सरी से खरीदते वक्त ध्यान रहे कि पौधे अच्छे से विकास कर रहे पौधों को ही खरीदना चाहिए. और पौधों में किसी तरह का रोग भी नहीं लगा होना चाहिए. .
पौध रोपण का तरीका और टाइम
बेर की पौधों को खेत में तैयार किये गए गड्डों में लगाया जाता है. पौधे को गड्डे में लगाने से पहले गड्डों को साफ़ कर दें. उसके बाद गड्डों के बीचोंबीच एक और छोटा गड्डा तैयार किया जाता है. इस तैयार किए गए छोटे गड्डे में इसके पौधों की रोपाई की जाती है. गड्डों में पौधों की रोपाई से पहले इन गड्डों को बाविस्टिन या गोमूत्र से उपचारित कर लेना चाहिए. इसके अलावा खेत में अगर दीमक की मात्रा अधिक हो तो पौध रोपाई से पहले गड्डों को लिंडेन पाउडर या नीम की खली से भी उपचारित कर लेना चाहिए.
गड्डों को उपचारित करने के बाद पॉलीथीन को हटाकर पौध को गड्डों में लगा दें. पॉलीथीन को हटाने के दौरान ध्यान रखे की पौधे के चारों तरफ दिखाई देने वाली मिट्टी या पौधे की जड़ों को नुक्सान नही पहुँचना चाहिए. पौधों को गड्डे में लगाने के बाद उनके चारों तरफ हल्की मात्रा में मिट्टी डाल दें.
बेर के पौधों की रोपाई व्यवसायीक तरीके से करने के लिए मुख्य रूप से इसकी रोपाई साल में दो बार की जाती है. जिसमें गर्मियों के मौसम में किसान भाई इन्हें फरवरी शुरुआत से लेकर मार्च के आखिर तक लगा सकते हैं. इसके अलावा दूसरी बार इसके पौधों को बारिश के बाद अगस्त से सितम्बर माह के बीच उगाना चाहिए. इसके अलावा साधारण तरीके से इसकी रोपाई करने के दौरान इसे सर्दी के मौसम को छोड़कर कभी भी लगा सकते हैं.
पौधों की सिंचाई
बेर के पौधों को सिंचाई की ज्यादा आवश्यकता नही होती. लेकिन शुरुआत में पौधों को विकास करने के लिए सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए शुरुआत में पौधों की रोपाई के तुरंत बाद उन्हें पानी दे देना चाहिए. उसके बाद जब तक पौधा अच्छे से विकास नही करने लगता तब तक पौधे को गर्मियों के मौसम में सप्ताह में एक बार पानी देना चाहिए. और सर्दियों के मौसम में पौधे को एक महीने के अंतराल में पानी देना चाहिये. बारिश के मौसम में इसके पौधे को पानी की जरूरत नही होती.
बेर के पौधे पर जब फूल खिल रहे हों तब उन्हें पानी नही देना चाहिए. इस दौरान पौधों को पानी देने से फूल खराब होकर गिर जाते हैं. इसके अलावा फूलों से फल बनने के बाद खेत में नमी बनाए रखे के लिए पानी देते रहना चाहिए.
उर्वरक की मात्रा
बेर के पौधे को उर्वरक की सामान्य जरूरत होती है. शुरुआत में इसके पौधों की रोपाई के लिए गड्डों की तैयारी के वक्त प्रत्येक गड्डों में जैविक खाद के रूप में लगभग 15 किलो पुरानी गोबर की खाद प्रत्येक गड्डों में भर दें. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में 100 ग्राम एन.पी.के. की मात्रा को मिट्टी में मिलाकर उसे गड्डों में भर दें. पौधों को उर्वरक की ये मात्रा दो साल तक देनी चाहिए. उसके बाद उर्वरक की मात्रा को पौधों के विकास के साथ साथ बढ़ाते रहना चाहिए.
लगभग 15 साल बाद पूर्ण रूप से तैयार एक पौधे को सालाना 25 किलो जैविक खाद के रूप में पुरानी गोबर की खाद और लगभग आधा किलो रासायनिक खाद के रूप में एन.पी.के. की मात्रा देनी चाहिए. पौधों को उर्वरक की ये मात्रा उन पर फूल बनने से एक महीने पहले देनी चाहिए. बेर के पौधों को खाद की ये मात्रा उसके तने से एक फिट की दूरी छोड़ते हुए दो फिट चौड़ा घेरा बनाकर देनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
बेर के पौधों में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों तरीकों से ही किया जा सकता है. लेकिन प्राकृतिक तरीके से इसमें खरपतवार नियंत्रण काफी अच्छा माना जाता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए शुरुआत में पौधों की रोपाई के लगभग 3 महीने बाद उनकी पहली गुड़ाई हल्के रूप में कर पौधों के पास दिखाई देने वाली खरपतवार को हटा देना चाहिए. पहली गुड़ाई के बाद जब भी कोई खरपतवार दिखाई दें तो उन्हें निकाल देना चाहिए.
इसके अलावा खेत में बाकी बची भूमि पर अगर किसी तरह की कोई फसल ना उगाइ गई हो तो बारिश के मौसम के बाद जब जमीन सूख जाए और उसमें खरपतवार दिखाई देने लगे तब खेत की अच्छे से जुताई कर देनी चाहिए. बेर के पूरी तरह तैयार पौधे को साल में दो बार गुड़ाई की जरूरत होती है. बेर के पौधों की गुड़ाई उन पर फूल खिलने से पहले खाद देते वक्त कर देनी चाहिए.
पौधों की देखभाल
बेर के पौधों की उचित देखभाल कर उनसे अधिक उत्पादन लिया जा सकता है. इसके लिए पौधों की उचित समय पर कटाई छटाई करते रहना चाहिए. पौधों की कटाई छटाई फल तोड़ने के बाद की जाती है. कटाई छटाई के दौरान पौधे की रोगग्रस्त डालियों को काटकर हटा देना चाहिए. इसके अलावा पौधे में दिखाई दे रही सूखी हुई डालियों को भी निकाल देना चाहिए.
बेर के पौधे का तना कमजोर होता है. इसलिए जब पौधे पर फल लगे तब उन्हें सहारा देकर रखना चाहिए. और डालियों को जमीन से नही छुने देना चाहिए. अगर इसकी शाखाएं जमीन से छुती हैं तो उसका प्रभाव इसके फलों पर पड़ता है. क्योंकि शाखाओं के जमीन छुने से उनके फल रोगग्रस्त हो जाते हैं.
अतिरिक्त कमाई
बेर के पौधे शुरुआत में खेत में लगाने के दो से तीन साल बाद पूर्ण रूप से तैयार होते हैं. इस दौरान किसान भाई बाकी बची भूमि में सब्जी, औषधी और मसाला फसलों को आसानी से उगा सकता है. जिससे किसान भाइयों को उनकी खेत से लगातार पैदावार भी मिलती रहती है. और उन्हें किसी तरह की आर्थिक परेशानियों का सामना भी नही करना पड़ता. इसके अलावा अरबी जैसी सब्जी फसल की खेती किसान भाई इसके पौधों की छाया में भी उगा सकता है. जिससे उन्हें खेत से दो तरह की पैदावार मिलती रहती है.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
बेर के पौधे में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी उचित समय पर देखभाल ना की जाए तो पौधे और उसके फलों को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचता है.
फल मक्खी
बेर के पौधों में लगने वाला फल मक्खी का रोग एक कीट जनित रोग है जो इसके फलों को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचाता है. बेर के फलों में ये रोग फलों के मोटे होने के साथ लगता है. इसकी सुंडी अंदर से फलों के गुदे को खाकर उन्हें नष्ट कर देती है. जिससे फल ख़राब हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेटासिस्ट्रोक्स या रोगार दवा की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
छाल भक्षी सुंडी
बेर के पौधों पर छाल भक्षी सुंडी का रोग कीट की वजह से फैलता है. इस रोग की सुंडी रात के वक्त पौधों पर आक्रमण करती है. और दिन के वक्त पौधे के तने में छेद बनाकर अंदर रहती है. इस रोग के बढ़ने से सम्पूर्ण पौधा नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर जब छिद्र दिखाई दे तभी उनमें मोनोक्रोटोफास या मेटासिड की उचित मात्रा के घोल को डालकर उन पर चिकनी मिट्टी का लेप कर दें. इससे इसकी सुंडी अंदर ही मरकर ख़तम हो जाती है.
चूर्णी फफूंद
बेर के पौधों पर चूर्णी फफूंद रोग का प्रभाव अक्टूबर या नवम्बर माह में दिखाई देता है. इस रोग के लगने से पौधों की पत्तियों पर शुरुआत में सफ़ेद रंग के धब्बे दिखाई देने लगते है. रोग के उग्र होने पर सम्पूर्ण पौधे की पत्तियों पर सफ़ेद रंग का पाउडर जमा हो जाता है. जिससे पौधे को सूर्य का प्रकाश ना मिल पाने के कारण पौधा विकास करना बंद कर देता है. और फल खराब हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर केराथेन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
पत्ती धब्बा रोग
बेर के पौधों में पत्ती धब्बा रोग का प्रभाव फफूंद की वजह से दिखाई देता है. इस रोग के लगने से पौधे की पत्तियों की निचली सतह पर गहरे धब्बे बन जाते हैं. रोग बढ़ने पर पौधों की पत्तियों की निचली सतह पूरी काली दिखाई देने लगती है. और कुछ दिनों बाद खराब होकर गिर जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कॉपर आक्सीक्लोराइड कवकनाशी दवा की उचित मात्र का छिडकाव करना चाहिए.
फल सडन
बेर के पौधों में फल सडन रोग का प्रभाव फल लगने के दौरान पौधों पर दिखाई देता है. इस रोग के लगने से शुरुआत में फलों की निचली सतह पर हल्के भूरे धब्बे दिखाई देने लगते हैं. रोग बढ़ने पर धब्बों का आकार बढ़ जाता है. और उनका रंग काला दिखाई देने लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर ब्लाइटोक्स की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
लाख कीट
बेर के पौधों में लाख रोग के कीट पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं. इस रोग के लगने से पौधे की शाखाएं सूख जाती है. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है. इस रोग की रोकथाम के लिए रोगग्रस्त शाखाओं को काटकर जला देना चाहिए. इसके अलावा रोगार दवा की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
फलों की तुड़ाई
बेर के फलों की तुड़ाई उत्तर भारत में गर्मी के मौसम में अप्रैल तक चलती है. वहीँ दक्षिण भारत में इसके फलों की तुड़ाई सर्दी के मौसम के दौरान की जाती है. बेर के सभी फल एक साथ पककर तैयार नही होते. इस कारण इसके फलों की तुड़ाई तीन से चार बार की जाती है. इसके फलों की तुड़ाई फलों के आकार और रंग देखकर की जाती है. वैसे इसके कम पके फलों की तुड़ाई करना भी खराब नही होता. फलों की तुड़ाई के बाद उनकी छटाई कर साफ़ पानी से धोकर बाज़ार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए.
इसके फल कुछ समय के लिए सामान्य तापमान पर भंडारित भी किये जा सकते हैं. इसलिए बाज़ार में अच्छा भाव ना मिलने पर किसान भाई इन्हें कुछ दिन भंडारित कर अच्छे दाम मिलने पर अपनी पैदावार को बेच सकता हैं.
पैदावार और लाभ
बेर के पौधे रोपाई के लगभग तीन साल बाद पैदावार देना शुरू कर देते हैं. इसके पूर्ण रूप से तैयार एक पौधे से औसतन 100 किलो के आसपास फल प्राप्त होते हैं. जिनका बाज़ार भाव 30 रुपये प्रति किलो भी मिले तो एक बार में एक पौधे से तीन हज़ार तक की कमाई आसानी से हो जाती है. जबकि एक हेक्टेयर में औसतन एक हज़ार तक पौधे लगाए जा सकते हैं. जिस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से तीस लाख तक की कमाई आसानी से कर सकता है.
ber sukh kar jhad rahe hai
Ber ki paudhe chahiye