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जूट (पटसन) की खेती कैसे करें – पूरी जानकारी!

2019-07-08T13:18:47+05:30Updated on 2019-07-08 2019-07-08T13:18:47+05:30 by bishamber Leave a Comment

जूट की खेती व्यापारिक इस्तेमाल के लिए नगदी फसल के रूप में की जाती है. जूट का पौधा रेशेदार पौधा होता है. जिसे पटसन के नाम से भी जाना जाता है. इसके पौधे की लम्बाई 6 से 10 फिट तक पाई जाती है. इसके पौधे को सडाकर इसके रेशे तैयार किये जाते हैं. जिनसे कई चीजें बनाई जाती है. इसके रेशों का इस्तेमाल बोरे, दरी, टाट, तम्बू, तिरपाल, रस्सियाँ, निम्न कोटि के कपड़े और कागज बनाने में किया जाता हैं.

Table of Contents

  • उपयुक्त मिट्टी
  • जलवायु और तापमान
  • उन्नत किस्में
    • कैपसुलेरिस प्रजाति
      • जे.आर.सी. - 321
      • यू.पी.सी. – 94
      • जे.आर.सी – 212
      • एन.डी.सी.
    • ओलीटोरियस प्रजाति
      • जे.आर.ओ. – 632
      • जे.आर.ओ. – 66
      • जे.आर.ओ. – 878
  • खेती की तैयारी
  • बीज रोपण का तरीका और टाइम
  • पौधों की सिंचाई
  • उर्वरक की मात्रा
  • खरपतवार नियंत्रण
  • पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
    • जड़ और तना सडन
    • लिस्ट्रोनोटस बोनियारेंसिस किट
  • जूट के पौधों की कटाई और छटाई
  • पौधों को सडाना
  • पौधों से रेशे निकालना
  • पैदावार और लाभ
जूट की खेती

जूट की पैदावार गर्म और आद्र जलवायु वाली जगहों पर की जाती है. इसकी खेती के लिए हवा ने नमीं की आवश्यकता होती है. क्योंकि हवा में नमी होने से इसके रेशे अच्छे बने रहते हैं. इसकी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. विश्व में भारत इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश बना हुआ है. लेकिन उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत उपयोग भारत में ही हो जाता है.

अगर आप भी जूट की खेती करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको इसके बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

जूट की खेती के लिए हल्की बलुई और दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. अधिक जल भराव वाली जमीन में इसकी खेती करना उचित नही होता. क्योंकि अधिक टाइम तक पानी के भरे रहने से पौधे के नष्ट होने और गुणवत्ता में कमी आने का जोखिम होता है. इसकी खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

जूट की खेती के लिए गर्म और आद्र जलवायु उपयुक्त होती है. इसके पौधों को बारिश की जरूरत होती है. लेकिन असामान्य बारिश इसकी पैदावार को नुक्सान पहुँचाती है. इसकी पैदावार गर्मी और बरसात के मौसम में की जाती है. इस कारण सर्दी का प्रभाव इसकी फसल पर देखने की नही मिलता.

पटसन के पौधे को अंकुरित होने के लिए 20 से 25 डिग्री तापमान की जरूरत होती है. और अंकुरित होने के बाद इसका पौधा 35 डिग्री से ज्यादा तापमान की सहन कर सकता है.

उन्नत किस्में

जूट की कई उन्नत किस्में मौजूद हैं. लेकिन इन सभी किस्मों को दो प्रजातियों में बांटा गया है. जिनकी पैदावार उनकी बुवाई, कटाई और रखरखाव पर निर्भर करती है.

कैपसुलेरिस प्रजाति

इस प्रजाति के जूट को सफ़ेद जूट के नाम से जाना जाता है. इसकी खेती ज्यादातर नीची भूमि में की जाती है.

जे.आर.सी. – 321

जूट की ये एक जल्दी पकने वाली किस्म है. इस किस्म इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 10 से 15 मन तक पाई जाती है. इसके रेशों में नमी की मात्रा 20 प्रतिशत के आसपास पाई जाती है. इसके पौधे लगभग 5 महीने में कटाई के लिए पककर तैयार हो जाते हैं.

यू.पी.सी. – 94

यू.पी.सी. – 94 को रेशमा किस्म के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म के पौधे भी निचली भूमि में अधिक पैदावार देती हैं. इसके पौधे 120 से 140 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 12 मन के आसपास पाई जाती है.

जे.आर.सी – 212

इस किस्म की खेती मध्यम और ऊँची भूमि में की जाती है. इस किस्म के पौधे कटाई के लिए 5 महीने में तैयार हो जाते हैं.  जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 मन के आसपास होता है. इस किस्म के पौधों को मार्च में लगाकर अच्छी उपज कमाई जा सकती है.

एन.डी.सी.

इस किस्म की खेती ज्यादातर निचली भूमि में की जाती है. लेकिन इस किस्म को सम्पूर्ण भारत वर्ष में उगाया जा सकता है. इसकी पैदावार 12 से 15 मन के आसपास पाई जाती है. इस किस्म की रोपाई फरवरी से मध्य मार्च तक की जाती है.

ओलीटोरियस प्रजाति

जूट की उन्नत किस्म

इस प्रजाति के जूट को देव और टोसा जूट के नाम से जाना जाता है. इस प्रजाति के जूट की पत्तियां स्वाद में मीठी होती हैं. इस प्रजाति की किस्मों की पैदावार अधिक पाई जाती है.

जे.आर.ओ. – 632

इस किस्म को ऊँची भूमि पर देरी से उगाने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के बीजों की रोपाई अप्रैल से मध्य मई माह तक की जाती है. अगर इसकी फसल अच्छे से की जाए तो इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 22 मन के आसपास हो सकती है. इस किस्म के रेशे उत्तम किस्म के होते है. जिनकी लम्बाई 10 फिट से ज्यादा पाई जाती है.

जे.आर.ओ. – 66

इस किस्म को भी ऊँची भूमि में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे 10 से 12 फिट लम्बाई के होते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 20 मन के आसपास पाई जाती है. लेकिन अच्छी देखरेख कर इसकी खेती की जाए तो इसकी पैदावार 30 मन तक पहुँच सकती है. इस किस्म के पौधे लगभग 100 दिन के आसपास कटाई के लिए पककर तैयार हो जाते हैं.

जे.आर.ओ. – 878

इस किस्म की पैदावार सभी तरह की भूमि में की जा सकती है. इस किस्म के पौधे लगभग 130 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 15 से 20 मन के आसपास पाई जाती है. इस किस्म के पौधे समय से पहले आने वाले फूलों के अवरोधी पाए जाते हैं. जिस कारण इस किस्म के रेशों में अधिक गुणवत्ता पाई जाती है.

खेती की तैयारी

जूट की खेती के लिए भूमि को अच्छे से तैयार करना जरूरी होता है. क्योंकि भूमि जितनी अच्छे से तैयार होगी, इसकी पैदावार उतनी ही अच्छी होती है. भूमि को तैयार करते वक्त खेत की गहरी खुदाई वाले हल से अच्छी गहरी जुताई कर कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दें. इससे मिट्टी को गहराई तक सूर्य की धूप अच्छे से लगती है. उसके बाद खेत में गोबर की खाद डालकर उसे कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन तिरछी जुताई कर मिट्टी में अच्छे से मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी चला दें. पानी चलाने के कुछ दिन बाद जब खेत में खरपतवार निकलने लगे तब खेत की रोटावेटर के माध्यम से जुताई कर दें. इससे मिट्टी नमी युक्त और भुरभुरी हो जाती है. नमी युक्त भुरभुरी मिट्टी बीजों के अंकुरण की क्षमता में वृद्धि करती है और बीज अच्छे से अंकुरित होते हैं.

बीज रोपण का तरीका और टाइम

जूट की रोपाई

खेत तैयार होने के बाद उसमें बीज रोपण का कार्य किया जाता हैं. इसके बीजों का रोपण गेहूं और बाजारे की तरह ही छिडकाव और ड्रिल के माध्यम से करते हैं. छिडकाव के माध्यम से समतल जूते हुए खेत में बीज छिड़ककर खेत की हलकी जुताई कर उसे मिट्टी में मिला दिया जाता है. जबकि ड्रिल के माध्यम से इसकी रोपाई पंक्तियों में की जाती है. प्रत्येक पंक्तियों के बीच लगभग 5 से 7 सेंटीमीटर की दूरी रखते हुए इसकी रोपाई की जाती है. एक हेक्टेयर में लगभग 4 से 5 किलो के आसपास बीज की जरूरत होती है. जबकि छिडकाव विधि में लगभग 6 से 7  किलो बीज की जरूरत होती है.

जूट की अलग अलग किस्मों की भूमि और वातावरण के हिसाब से रोपाई फरवरी मध्य से लेकर जून और मध्य जुलाई तक की जाती है. इसकी किस्मों को उचित टाइम पर उगाकर अच्छी पैदावार ली जा सकती है. क्योंकि इसकी खेती में पौधे की टाइम पर तैयारी काफी अहम होती हैं.

बीज को खेत में लगाने से पहले बीज का शोधन कर लेना चाहिए. ताकि फसल को रोगों से बचाया जा सके. इसलिए बीज की रोपाई से पहले उसे थीरम या कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर खेत में लगाना चाहिए.

पौधों की सिंचाई

जूट के पौधों को सिंचाई की काफी कम जरूरत होती हैं. क्योंकि इसकी खेत ऐसे वक्त की जाती है, जब सम्पूर्ण भारत वर्ष में बारिश का मौसम बना रहता है. इसकी रोपाई के वक्त मार्च के महीने में बारिश ज्यादातर होती रहती है. इसके अलावा जून में इसकी रोपाई के वक्त मानसून का दौर होता है. लेकिन बारिश के बाद जब खेत में नमी की मात्रा कम होने लगे या समय पर बारिश ना हो तो खेत में पानी चला देना चाहिए.

उर्वरक की मात्रा

जूट की खेती से अधिक उपज पाने के लिए इसकी खेती में उर्वरक की उचित मात्रा देना जरूरी होता है. इसके लिए खेत की जुताई के वक्त 25 से 30 टन सड़ी हुई पुरानी गोबर की खाद खेत में डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. जैविक खाद के अलावा अगर किसान भाई रासायनिक खाद का उपयोग अपने खेतों में करना चाहता है तो इसके लिए खेत की आखिरी जुताई के वक्त 2:1:1 के अनुपात में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की 90 किलो मात्रा प्रति हेक्टेयर हिसाब से खेत में डालकर मिट्टी में मिला दें. उसके बाद नाइट्रोजन की आधी मात्रा को दो बार पौधों को सिंचाई के साथ दें.

खरपतवार नियंत्रण

सभी फसलों की तरह इसकी फसल को भी खरपतवार नियंत्रण की जरूरत होती है. जुट की खेती में खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत की नीलाई गुड़ाई की जाती है. इसके पौधों की पहली गुड़ाई बीज रोपण के 25 से 30 दिन बाद जब पौधा लगभग एक फिट का हो जाए तब कर देनी चाहिए. इसके बाद पौधों की 15 से 20 दिन के अन्तराल में एक गुड़ाई और कर देनी चाहिए.

रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए बीज रोपाई के तुरंत बाद पेंडीमेथिलीन या फ्लूक्लोरेलिन का छिडकाव पौधों पर कर देना चाहिए.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

जुट के पौधों में काफी कम ही रोग देखने को मिलते हैं. लेकिन जलभराव की वजह से कुछ रोग लग जाते हैं, जिससे पौधे की पैदावार में नुकसान होता है.

जड़ और तना सडन

जूट के पौधे में जड़ और तना सडन का रोग जल भराव की वजह से होता है. इन रोग के लगने पर पौधे की पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है. और कुछ दिन में ही पौधा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों की रोपाई से पहले उन्हें गोमूत्र या ट्राइकोडर्मा से उपचारित कर खेत में उगाना चाहिए. इसके अलावा पौधे के उगने के बाद ये रोग दिखाई दे तो पौधों की जड़ों में ट्राइकोडर्मा विरिडी का छिडकाव करना चाहिए.

लिस्ट्रोनोटस बोनियारेंसिस किट

जूट के पौधे पर लिस्ट्रोनोटस बोनियारेंसिस किट का आक्रमण अक्सर देखने को मिलता है. इस रोग के कीट पौधे की पत्ती और ऊपर की तरफ बढ़ने वाली कोमल शीर्ष शाखा को खा जाता है. जिससे पौधे का विकास बंद हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर हर महीने नीम के तेल या नीम के पानी का छिडकाव करते रहना चाहिए. इसके अलावा जब भी इस रोग का प्रकोप शुरू हो तब डाइकोफाल का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.

जूट के पौधों की कटाई और छटाई

जूट के पौधों की कटाई टाइम पर की जानी जरूरी होती है. क्योंकि टाइम से पहले या बाद में इसकी कटाई करने से जूट की गुणवत्ता में कमी देखने को मिलती है. जिसका असर इसकी पैदावार पर होता है. समय से पहले काटने पर जूट के रेशे छोटे बनते हैं. जबकि देरी से काटने पर रेशे मोटे और कमजोर हो जाते हैं. कुछ किसान भाई इसकी कटाई ना कर इसे जड़ सहित उखाड़ लेते हैं.

उचित टाइम पर कटाई करने के बाद इसके पौधों की छटाई की जाती है. छटाई के दौरान असमान लम्बाई वाले पौधों को अलग कर उनके अलग अलग बंडल बनाकर तैयार कर लिए जाते हैं. जिससे हर बंडल में एक समान लम्बाई वाले पौधे बच जाते हैं. उसके बाद इन बंडलों को दो से तीन दिन तक खेत में पत्तियों के सूखने तक छोड़ देते हैं. पत्तियों के सूखने के बाद उन्हें झाड़ दिया जाता हैं.

पौधों को सडाना

जूट के रेशे

जूट के पौधों की कटाई के बाद उन्हें सडाकर रेशे निकालने के लिए तैयार किया जाता है. इसके पौधों को कटाई के दो से तीन दिन बाद पानी में लगभग 20 से 25 दिनों तक डुबोकर रखा जाता है. इसके बंडलों को पानी में डुबोने के दौरान ध्यान रखे की बंडल पानी में नीचे जमीन से नही छुना चाहिए. क्योंकि बंडल ज्यादा दिनों तक अगर जमीन को छुए रहता है तो उसके रेशे खराब हो जाते हैं. जिसका असर पैदावार पर पड़ता है.

पौधों से रेशे निकालना

पानी में बंडलों को 20 से 25 दिन तक डुबोने के बाद इन्हें बहार निकाला जाता है. जिसके बाद इन सड़े हुए पौधों से रेशों को निकालकर उन्हें बहते हुए पानी में धोकर साफ़ कर लिया जाता हैं. रेशों को साफ़ करने के बाद उन्हें किसी लकड़ी पर तीन से चार दिन तक तेज़ धूप में सूखाते हैं. तेज़ धूप में रेशों को सुखाने के दौरान उन्हें बार बार उल्टते पलटते रहना चाहिए. ताकि रेशे अच्छे से सुख जाए और उनमें नमी की मात्रा ज्यादा ना रहे. क्योंकि नमी ज्यादा रहने पर रेशे खराब हो जाते हैं.

इसके रेशों को सूखने के बाद इन्हें बंडल के रूप में संग्रहित कर लिया जाता है. क्योंकि ज्यादा टाइम तक बिखरे हुए रेशों में गुणवत्ता की कमी हो जाती है. और वो कमजोर हो जाते हैं. जिनका बाज़ार भाव भी अच्छा नही मिलता है.

पैदावार और लाभ

जूट की खेती लगभग पांच महीने की होती है. इसके पौधों की उचित देखभाल कर इसकी एक हेक्टेयर से 30 से 35 मन पैदावार प्राप्त की जा सकती है. जिससे किसान भाई एक बार में लगभग 60 से 80 हज़ार तक की कमाई कर सकता हैं.

Filed Under: पौधे

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