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 कुल्थी की खेती कैसे करें – पूरी जानकारी

2019-11-06T16:58:46+05:30Updated on 2019-11-06 2019-11-06T16:58:46+05:30 by bishamber Leave a Comment

कुल्थी की खेती दलहन फसल के रूप में की जाती है. भारत में इसे अलग अलग जगहों पर कुलथ, खरथी, गराहट, हुलगा, गहत और हार्स आदि कई नामों से जाना जाता है. कुल्थी के दानो का इस्तेमाल खाने में सब्जी बनाने में लिया जाता हैं. जबकि कुछ जगहों पर इनका इस्तेमाल पशुओं के चारे के रूप में भी करते हैं. कुल्थी दलहन फसल होने के कारण जमीन के लिए भी उपयोगी मानी जाती है. इसके उगाने से मिट्टी की उर्वरक क्षमता बढती हैं. इसके पौधों का इस्तेमाल हरी खाद बनाने में भी किया जाता हैं.

Table of Contents

  • उपयुक्त मिट्टी
  • जलवायु और तापमान
  • उन्नत किस्में
    • वी एल गहत 1
    • बिरसा कुलथी
    • मधु
    • वी एल गहत 10
    • प्रताप कुल्थी
    • डी.बी. 7
    • वी एल गहत 8
    • बी. आर. 10
    • कोयम्बटूर
    • एस. 67/31
  • खेत की तैयारी
  • बीज की मात्रा और उपचार
  • बीज रोपाई का समय और तरीका
  • पौधों की सिंचाई
  • उर्वरक की मात्रा
  • खरपतवार नियंत्रण
  • पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
    • दीमक
    • रसचुसक कीट
    • भुआ पिल्लू
    • सफेद मक्खी
    • फली बेधक कीट
    • पीला मोजेक रोग
    • जड़ सडन
  • फसल की कटाई और मढ़ाई
  • पैदावार और लाभ
कुल्थी की खेती

कुल्थी के पौधे झाड़ीनुमा और बेल के रूप में दिखाई देते हैं. जिनकी लम्बाई उड़द, मुंग के पौधों की तरह डेढ़ से दो फिट तक पाई जाती है. कुल्थी का इस्तेमाल औषधीय रूप में बहुत उपयोगी होता है. इसके खाने से कृमि, श्वास संम्बधी रोग, बुखार, कफ, हिचकी, पीनस, कास और पथरी जैसी कई तरह की बीमारियों से छुटकारा मिलता है. कुल्थी के दानो का रंग भूरा पीला दिखाई देता है.

कुल्थी की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु को उपयुक्त माना जाता है. कुल्थी की खेती खरीफ की फसलों के साथ की जाती है. कुल्थी की खेती कम उपजाऊ भूमि में भी आसानी से की जा सकती है. इसके पौधे सर्दी या गर्मी दोनों मौसम में विकास कर लेते हैं. इसकी खेती के लिए अधिक बारिश की भी जरूरत नही होती. भारत में इसकी खेती ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्यों (आन्ध्र प्रदेश, केरल, पशिचमी बंगाल, कर्नाटक, बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और उत्तराखण्ड) में की जाती हैं. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.

अगर आप भी कुल्थी की खेती कर अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

कुल्थी की के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. जल भराव वाली भूमि में इसकी खेती नही की जा सकती. इसकी खेती से अधिक उत्पादन लेने के लिए इसे बलुई दोमट मिट्टी में उगाना सबसे उपयुक्त मानी जाती हैं. कुल्थी की खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

कुल्थी की खेती उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले प्रदेशों में आसानी से की जा सकती हैं. कुल्थी के पौधे सूखे के प्रति सहनशील होते हैं. इस कारण इसकी खेती के लिए हल्का गर्म और सुखा मौसम उपयुक्त माना जाता हैं. कुल्थी की खेती के लिए समुद्र तल से 1000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भू भाग ही उपयुक्त होते हैं. अधिक सर्दी का मौसम इसकी खेती के लिए उपयोगी नही होता. इसकी खेती के लिए सामान्य बारिश उपयुक्त होती हैं.

कुल्थी के बीजों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए 22 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है. बीजों के अंकुरित होने के बाद इसके पौधे गर्मियों में अधिकतम 35 डिग्री तापमान भी विकास कर लेते हैं. जबकि इसके पौधे 25 से 30 डिग्री के बीच के तापमान पर बहुत अच्छे से विकास करते हैं.

उन्नत किस्में

कुल्थी की कई अलग अलग तरह की किस्में मौजूद हैं. जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक उत्पादन लेने के लिए तैयार किया गया हैं.

वी एल गहत 1

कुल्थी की इस किस्म को पर्वतीय क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे सामान्य ऊंचाई के होते हैं. जो बीज रोपाई के लगभग 140 से 150 दिन बाद पककर कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 से 15 क्विंटल के बीच पाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे हलकी सर्दी को सहन करने में सक्षम होते हैं.

बिरसा कुलथी

उन्नत किस्म का पौधा

कुल्थी की इस किस्म का निर्माण बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, झारखंड द्वारा किया गया है. इस किस्म के पौधे सबसे जल्दी पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 95 से 100 दिन बाद ही पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 से 20 क्विंटल के बीच पाया जाता है.

मधु

कुल्थी की इस किस्म को देरी से बुवाई के लिए तैयार किया गया हैं. इस किस्म के पौधे दो फिट के आसपास लम्बाई के होते हैं. जो जमीन में फैलकर अपना विकास करते हैं. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 105 से 110 दिन बाद पककर कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 से 15 क्विंटल के बीच पाया जाता हैं. फसल की अच्छी देखभाल कर उत्पादन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है.

वी एल गहत 10

कुल्थी की ये एक संकर किस्म है. जिसको वी एल जी 1 और  एन आई सी 2659 के संकरण से तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधों की लम्बाई तीन फिट के आसपास पाई जाती है. इस किस्म के बीजों का रंग पकने के बाद हल्का पीला दिखाई देता है. इसके पौधे बीज रोपाई के लगभग 115 से 120 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 10 क्विंटल के आसपास पाया जाता हैं.

प्रताप कुल्थी

कुल्थी की इस किस्म को ए. के. 42 के नाम से भी जाना जाता है. इस किस्म को राजस्थान और गुजरात में सबसे ज्यादा उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 110 दिन दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के पौधों की लम्बाई दो फिट से ज्यादा पाई जाती हैं.

डी.बी. 7

कुल्थी की इस किस्म को अगेती फसल के रूप में उगाया जाता हैं. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 से 100 दिन के अंतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. कुल्थी की इस किस्म को दक्षिण भारत के राज्यों में अधिक उगाया जाता है.

वी एल गहत 8

कुल्थी की ये एक संकर किस्म हैं. जिसको वी एल जी 1 और पी 1648 के संकरण के माध्यम से तैयार किया गया हैं. इस किस्म के पौधों की ऊंचाई तीन फिट से ज्यादा पाई जाती है. इस किस्म को उत्तराखंड में अधिक उगाया जाता है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के 120 से 130 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के दाने पकने के बाद क्रीमी कलर में हल्के पीले दिखाई देते हैं.

बी. आर. 10

कुल्थी की इस किस्म को पछेती बुवाई वाली किस्म के रूप में तैयार किया गया हैं. कुल्थी की इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 100 से 105 दिन बाद ही कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 20 क्विंटल के आसपास पाया जाता है.

कोयम्बटूर

कुल्थी की इस किस्म को कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 से 95 दिन बाद ही कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 20 से 25 क्विंटल तक पाया जाता है. जबकि पौधों की अच्छी देखभाल कर उनकी उत्पादन क्षमता 30 क्विंटल तक बढ़ाई जा सकती हैं.

एस. 67/31

कुल्थी की इस किस्म को कम समय में अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है. जिसको दक्षिण भारत के राज्यों में अधिक उगाया जाता है. कुल्थी की इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 से 95 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन 20 से 25 क्विंटल तक पाया जाता है. इस किस्म के पौधों की लम्बाई तीन फिट के आसपास पाई जाती है.

इनके अलावा और भी कई किस्में हैं, जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक उत्पादन के लिए उगाया जाता है. जिनमें के.एस. 2, पलेम 1, 2, पाईयुर 1, 2, कर्नाटक पी.एच.जी. 9, जी.पी.एम. 6, जी.एच.जी. 5, वी.एल. घाट 1, इन्द्रा कुल्थी 1 और बी.आर. 5 जैसी बहुत सारी किस्में पाई जाती हैं.

खेत की तैयारी

कुल्थी की उत्तम पैदावार लेने के लिए मिट्टी भुरभुरी और नमी युक्त होनी चाहिए. नमी युक्त भुरभुरी मिट्टी में बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है. इसके लिए शुरुआत में खेत की जुताई के वक्त खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को नष्ट कर खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दें. उसके बाद खेत को कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें. ताकि मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट सूर्य की तेज़ धूप से नष्ट हो जायें. उसके बाद खेत में पुरानी गोबर की खाद को डालकर उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दें. खाद को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से दो से तीन बार तिरछी जुताई करवा दें.

खेत की जुताई के बाद खेत में पानी चलाकर उसका पलेव कर दें. पलेव करने के बाद जब भूमि हल्की सूखी हुई दिखाई देने लगे तब खेत की फिर से जुताई कर दें. उसके बाद खेत में रोटावेटर चलाकर खेत में मौजूद मिट्टी के ढेलों को समाप्त कर मिट्टी को भुरभुरा बना लें. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल बना दें. ताकि बारिश के मौसम में खेत में जलभराव जैसी समस्याओं का सामना ना करना पड़े.

बीज की मात्रा और उपचार

कुल्थी की खेती में बीज की मात्रा का निर्धारण फसल के आधार पर किया जाता है. जब इसके बीजों की रोपाई फसल से बीज उत्पादन के लिए की जाती है तो एक हेक्टेयर में लगभग 25 किलो के आसपास बीज की जरूरत होती है. जबकि हरी खाद या हरे चारे के रोप में उत्पादन लेने के लिए लगभग 40 किलो बीज की जरूरत होती है. फसल को शुरूआती रोगों से बचाने के लिए इसके बीजों को उपचारित कर खेतों में लगाना चाहिए. बीजों को उपचारित करने के लिए कार्बेन्डाजिम की 2 ग्राम मात्रा को प्रति किलो की दर से बीज में मिलाकर उन्हें तैयार कर लें. इसके अलावा बीजों को उपचारित करने के लिए राइजोबियम या पी.एस.बी. कल्चर का इस्तेमाल भी किसान भाई कर सकते हैं.

बीज रोपाई का समय और तरीका

रोपाई का तरीका

कुल्थी के बीजों की रोपाई फसल की पैदावार के तरीके के आधार पर की जाती है. अगर किसान भाई इसकी खेती हरे चारे के इस्तेमाल के लिए करता है तो इसकी रोपाई छिडकाव विधि से की जाती है. इस तरीके से रोपाई के दौरान इसके बीजों को समतल की हुई भूमि में छिड़क दिया जाता है. उसके बाद कल्टीवेटर के पीछे हल्का पाटा बांधकर खेत की दो बार हल्की जुताई कर देते हैं. जिससे कुल्थी के बीज जमीन के अंदर तीन से चार सेंटीमीटर के आसपास की गहराई में चले जाते हैं.

हरे चारे के अलावा पैदावार के रूप इसकी खेती करने के दौरान इसके बीजों को सीड ड्रिल के माध्यम से कतारों में लगाया जाता है. कतारों में लगाने के दौरान इसकी प्रत्येक कतारों के बीच एक फिट की दूरी होनी चाहिए. जबकि कतारों में लगाए जाने वाले बीजों के बीच 5 से 7 सेंटीमीटर की दूरी होनी चाहिए. कतारों में कुल्थी के बीजों को तीन से चार सेंटीमीटर की गहराई में ही उगाना चाहिए. ताकि बीजों के अंकुरण के वक्त कोई परेशानी ना हों.

कुल्थी की खेती अगर हरे चारे के लिए की जा रही हो तो इसके बीजों की रोपाई जून माह के शुरुआत से लेकर सितम्बर माह के पहले सप्ताह तक कर सकते हैं. जबकि पैदावार के रूप में इसकी खेती करने के दौरान इसकी रोपाई जुलाई के आखिरी सप्ताह से अगस्त माह के आखिरी सप्ताह तक कर सकते हैं. और देरी से लगाई जाने वाली किस्मों को सितम्बर के प्रथम सप्ताह में भी लगा सकते हैं.

पौधों की सिंचाई

कुल्थी के पौधों की सिंचाई फसल की रोपाई के आधार पर की जाती है. हरे चारे के लिए की जाने वाली फसल को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है. जबकि पैदावार के रूप में की जाने वाली फसल को सिंचाई की कम आवश्यकता होती है. हरे चारे के रूप में खेती करने के दौरान इसके पौधों को शुरुआत में बारिश के आधार पर पर पानी दिया जाता है. क्योंकि इस दौरान बारिश का मौसम बना रहता है. इसलिए बारिश समय पर होते रहने के कारण सिंचाई की जरूरत कम होती है. लेकिन अगर बारिश वक्त पर ना हो तो पौधों को आवश्यकता के अनुसार पानी देना चाहिए. बारिश के बाद इसके पौधों को सप्ताह में एक बार पानी जरुर देना चाहिए.

जबकि पैदावार के रूप में खेती करने के दौरान इसके पौधों की सिंचाई की जरूरत पौधों पर फली बनने के दौरान अधिक होती है. जब इसके पौधों में फली बनने लगे तब से उनमें दानो के पकने तक खेत में नमी की कमी ना होने दें. इससे फलियों में दानो का आकार अच्छा बनता हैं. इससे अलावा शुरुआत में इसकी फसल के विकास के दौरान पौधों की जरूरत के हिसाब से उन्हें पानी देना चाहिए. ताकि पौधा लगातार विकास करता रहे.

उर्वरक की मात्रा

कुल्थी के पौधों को उर्वरक की जरूरत भी फसल की पैदावार के आधार पर होती है. हरे चारे की खेती में रासायनिक उर्वरक की जरूरत ज्यादा होती हैं. हरे चारे के रूप में खेती करने के दौरान फसल की रोपाई से पहले 20 किलो नाइट्रोजन और 40 से 50 किलो फास्फोरस की मात्रा को रासायनिक उर्वरक के रूप में फसल की रोपाई से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिडककर मिट्टी में मिला देना चाहिए. रासायनिक उर्वरक की इसी मात्रा का इस्तेमाल पैदावार के रूप में फसल लेने के दौरान की जाती है. इसके अलावा हरे चारे की खेती करने के दौरान प्रत्येक कटाई के बाद रासायनिक उर्वरक के रूप में 20 किलो यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिडकाव कर देना चाहिए. इससे पौधे जल्दी से विकास करते हैं. और पैदावार भी बढ़ जाती है.

रासायनिक खाद के अलावा जैविक खाद के रूप में लगभग 15 से 17 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के दौरान खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला देना चाहिए. जैविक उर्वरक के रूप में अन्य जैविक खाद का इस्तेमाल भी किसान भाई कर सकते हैं. और जब इसकी खेती पैदावार लेने के लिए की जाती है तो जैविक उर्वरक की इसी मात्रा का इस्तेमाल खेत की तैयारी के दौरान ही किया जाता है.

खरपतवार नियंत्रण

कुल्थी की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीकों से किया जाता है. रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के दौरान इसके बीजों की खेत में रोपाई से पहले या तुरंत बाद पेंडीमेथिलीन की उचित मात्रा को पानी में मिलाकर खेत में छिड़क देना चाहिए. इससे खेत में खरपतवार जन्म ही नही ले पाती. और जन्म लेने वाली खरपतवार की मात्रा बहुत कम होती है. जिन्हें गुड़ाई कर खेत से निकाल दिया जाता है.

प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण पैदावार के लिए की जाने वाली फसलों में ही जी जाती है. क्योंकि हरे चारे के रूप में की जाने वाली फसल को कटाई बार बार होती रहती है, इसलिए हरे चारे वाली फसल में प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण जरूरी नही होता. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण करने के लिए इसके पौधों की दो बार गुड़ाई की जाती है. इसके पौधों की पहली गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद कर देनी देनी चाहिए. जबकि दूसरी गुड़ाई, पहली गुड़ाई के बाद फिर से खरपतवार दिखाई देने पर या रोपाई के लगभग 40 दिन के बाद कर देनी चाहिए.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

कुल्थी के पौधों में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी रोकथाम वक्त रहते ना की जाए तो ये पौधे और उनकी पैदावार को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचाते हैं.

दीमक

कुल्थी के पौधों में दीमक का प्रभाव किसी भी समय दिखाई दे सकता है. लेकिन फसल की रोपाई के दौरान इसका प्रभाव अधिक देखने को मिलता है. इस रोग के कीट पौधों को भूमि की सतह या जड़ से काटकर नष्ट कर देते हैं. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधा मुरझाने लगता है. उसके बाद पौधा जल्द ही सूखकर नष्ट हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पारासेल धुल की उचित मात्रा का छिडकाव खेत में जुताई के वक्त कर देना चाहिए. और दीमक के प्रभाव वाली भूमि में गोबर की खाद को नही डालना चाहिए. इसके अलावा जुताई के वक्त फोरेट का इस्तेमाल करना भी लाभदायक होता है.

रसचुसक कीट

कुल्थी के पौधों में रसचुसक कीट रोग के कीट कई तरह के होते हैं. जिनमें माहू और थ्रिप्स जैसे कीट रोग शामिल हैं. जो इसके पौधों के कोमल भागों पर आक्रमण कर उनका रस चूसकर पौधों को नुक्सान पहुँचाते हैं. जिससे पौधे की पतियाँ पीली पड़कर गिरने लगती हैं. और पौधे विकास करना बंद कर देते हैं. पौधों पर इस रोग के बढ़ने पर सम्पूर्ण पौधे कुछ दिनों बाद ही नष्ट हो जाते हैं. इन सभी तरह के रसचुसक कीट रोगों की रोकथाम के लिए पौधों पर रोग दिखाई देने के बाद डायमेथोएट या मिथाइल डेमेटान की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर कर देना चाहिए.

भुआ पिल्लू

कुल्थी के पौधों में लगने वाला भुआ पिल्लू का रोग एक कीट जनित रोग हैं. इस रोग के कीट की सुंडी पौधे के नए बनने वाले कोमल भागों को खाकर पौधों को नुक्सान पहुँचाती है. जिससे पौधों को भोजन पर्याप्त मात्रा में नही मिल पाता है. और उनका विकास रुक जाता है. रोग बढ़ने पर पौधों की बढ़वार बिलकुल बंद हो जाती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर डाईक्लोरोवास की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा शुरुआत में रोग के दिखाई देने पर रोगग्रस्त पौधों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए.

सफेद मक्खी

कुल्थी के पौधों में सफेद मक्खी रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान उनकी पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के कीट पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर रहकर पौधों का रस चूसते हैं. जिस कारण पौधे की पत्तियां पीली होकर समय से पहले गिरने लगती हैं. और पौधे विकास करना बंद कर देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के तेल या निम्बीसीडीन की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.

फली बेधक कीट

फली बेधक कीट

फली बेधक कीट रोग का प्रभाव पौधों पर फलियों के आने के बाद दिखाई देता है. इस रोग के कीट की सुंडी पौधों की फलियों में छेद कर उनके अंदर के बीजों को खाकर फलियों को खराब कर देती है. जिसका सीधा असर पौधों की पैदावार पर देखने को मिलता है. इस रोग के ज्यादा तीव्र होने पर सम्पूर्ण फसल भी खराब हो सकती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर रोग दिखाई देने के तुरंत बाद किवनालफास की 2 मिलीग्राम मात्रा को प्रति लीटर की दर से पानी में मिलाकर पौधों छिडकना चाहिए.

पीला मोजेक रोग

कुल्थी के पौधों में लगने वाला पीला मोजेक का रोग वायरस जनित रोग है, जो सफ़ेद मक्खियों के प्रभाव से फैलता है. पौधों पर ये रोग अक्सर मौसम में अधिक नमी के लगातार बने रहने के दौरान फैलता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं. और उन पर पीले रंग के उभरे हुए धब्बे दिखाई देने लगते हैं. पौधों पर रोग बढ़ने के दो से तीन दिन बाद पौधे के सभी ऊपरी पत्ते पीले दिखाई देने लगते हैं. जिससे पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करना बंद कर देते हैं. और उनका विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर सफ़ेद मक्खी के प्रकोप को रोकना चाहिए. इसके अलावा रोग दिखाई देने पर पौधों पर डायमेथोएटकी उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.

जड़ सडन

कुल्थी के पौधों में जड़ सडन का रोग खेत में जल जमाव और अधिक समय तक लगातार खेत में नमी के बने रहने की वजह से दिखाई देता है. इस रोग के लगने से पौधों की जड़ों के पास का हिस्सा काला पड़ जाता है. रोग लगने के कुछ दिन बाद पौधे मुरझाकर सूखने लगते हैं. और कुछ दिन बाद ही पौधे सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर कार्बेन्डाजिम की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर की दर से पानी में मिलाकर उनकी जड़ों में छिडकना चाहिए. इसके अलावा इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जल भराव ना होने दें. और गर्मियों के मौसम के खेत की गहरी जुताई कर धूप लगने के लिए कुछ समय तक खुला छोड़ देना चाहिए.

फसल की कटाई और मढ़ाई

कुल्थी के पौधों की कटाई भी इसकी पैदावार के आधार पर अलग अलग समय पर की जाती है. हरे चारे के रूप में कटाई के दौरान इसके पौधों की कटाई बीज रोपाई के लगभग डेढ़ महीने बाद जब पौधे लगभग आधा फिट लम्बाई के हो जायें तब करनी चाहिए. इसके अलावा फसल के रूप में खेती करने के दौरान इसके पौधे रोपाई के लगभग 110 से 120 दिन बाद पककर कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसकी फसल के पकने के बाद पौधों की पत्तियां पीली होकर गिरने लगती हैं. इस दौरान इसकी कटाई कर लेनी चाहिए.

पौधों की कटाई के बाद उन्हें खेत में एक जगह एकत्रित कर तेज़ धूप में सुखा लेना चाहिए. जब इसकी फलियाँ अच्छे से सूख जायें तब मशीन की सहायता इसके दानो को अलग कर लेना चाहिये. उसके बाद दानो को हल्का सुखाकर भंडारित कर लें या बाज़ार में बेचने के लिए भेज दें.

पैदावार और लाभ

कुल्थी की विभिन्न किस्मों की प्रति हेक्टेयर औसतन उपज 15 से 20 क्विंटल के बीच पाई जाती हैं. जिसका बाज़ार भाव 4 हज़ार रूपये प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से 50 हज़ार तक की शुद्ध कमाई कर लेता है.

Filed Under: सब्ज़ी

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