मूंग की खेती कैसे करें – पूरी जानकारी!

मूंग दलहन फसलों में काफी अहम मानी जाती है. इसकी दाल को छिल्के के साथ और बिना छिलके के खाया जाता है. मूंग की दाल के अंदर 25 प्रतिशत प्रोटीन और 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है. इस कारण ये मनुष्य के लिए बहुत उपयुक्त होती है. मूंग की दाल का रंग हरा होता है. इसकी फलियों को कच्चे रूप में भी खाया जाता है. लेकिन पकने के बाद इसे कई तरह से खाने में इस्तेमाल करते हैं.

वर्तमान में इसकी सबसे ज्यादा पैदावार राजस्थान में की जा रही है. क्योंकि राजस्थान की जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है. राजस्थान के अलावा इसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी बड़े पैमाने पर उगाया जाता है.

मूंग की पैदावार

मूंग की खेती ज्यादातर खरीफ के मौसम में की जाती है. जिसके लिए बलुई मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है. इसके पौधों को सामान्य बारिश की जरूरत होती है. लेकिन फलियों के पकने के दौरान होने वाली बारिश इसकी पैदावार को अधिक नुक्सान पहुँचाती है. फलियों के पकने के दौरान बारिश के होने पर फली फट जाती हैं. मूंग की खेती के लिए जमीन का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए.

अगर आप भी मूंग की खेती करना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.

उपयुक्त मिट्टी

मूंग की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है. बलुई दोमट मिट्टी के अलावा इसे और भी कई तरह की मिट्टी में उचित देखरेख कर आसानी से उगाया जा सकता है. इसके लिए मिट्टी में पानी का भराव नहीं होना चाहिए. क्योंकि मिट्टी में पानी का भराव होने पर पौधा जल्द खराब हो जाता है. इसकी खेती के लिए मिट्टी का पी.एच. मान 6 से 7.5 तक होना चाहिए.

जलवायु और तापमान

मूंग की खेती के लिए किसी ख़ास जलवायु की जरूरत नही होती. भारत वर्ष में इसे खरीफ और रबी दोनों मौसम में उगाया जाता है. उत्तर भारत में इसकी खेती खरीफ और जायद के मौसम में की जाती है तो दक्षिण भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है. इसके पौधे को अधिक बारिश की जरूरत भी नही होती.

इसकी खेती के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. सामान्य तापमान पर इसके पौधे अच्छी पैदावार देते हैं. इसके पौधे 40 डिग्री तापमान को भी सहन कर लेते हैं. लेकिन पौधों पर फूल और फल बनने के दौरान अधिक तापमान उपयुक्त नही होता. क्योंकि अधिक तापमान होने पर इसके फूल ख़राब होने की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

मूंग की वर्तमान में कई तरह की उन्नत किस्में मौजूद हैं. जिन्हें उनकी पैदावार के हिसाब से तैयार किया गया है.

आर. एम. जी. – 62

उन्नत किस्म का पौधा

मूंग की इस किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों जगहों पर लगाया जा सकता है. इस किस्म के पौधों पर कोण और फली छेदक रोग का प्रकोप देखने को नही मिलता. इस किस्म के पौधों की प्रति हेक्टेयर पैदावार 8 से 10 क्विंटल तक पाई जाती है. इसकी फलियों को पकने के लिए 60 से 70 दिन का वक्त लगता है. इसकी सभी फलियां एक साथ पकती है.

आर. एम. जी. – 344

मूंग की इस किस्म को खरीफ और जायद दोनों मौसम में उगाया जा सकता है. इसके पौधे 65 से 70 दिन में कटाई के लिए पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 9 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. इस किस्म को ज्यादातर सिंचित जगहों पर लगाया जाता है.

आर. एम. एल. – 668

इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 8 से 9 क्विंटल तक पाई जाती है. इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के बाद लगभग 65 से 70 दिन में कटाई के लिए पककर तैयार हो जाते हैं. जिन पर बैक्टीरियल बलाईट का प्रभाव देखने को नही मिलता. इस किस्म की पैदावार खरीफ और जायद दोनों मौसम में की जा सकती हैं.

गंगा 8

इस किस्म की बुवाई उचित टाइम और उसमें देरी हो जाने पर की जाती है. इसकी फलियों को पकने के लिए 70 से 75 दिन का वक्त लगता है. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 10 क्विंटल के आसपास देखने को मिलती है. इस किस्म के पौधों पर बैक्टीरियल बलाईट और पत्ती धब्बा रोग देखने को नही मिलता.

जी. एम. – 4

इस किस्म के पौधे 65 दिन में कटाई के लिए पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 12 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. इस किस्म की फलियां एक साथ पकती है. इनके बीजों का रंग हरा और आकार में बड़ा होता है.

के. – 851

इस किस्म को सिंचित और असिंचित दोनों जगहों के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के बीज आकार में बड़े और चमकीले दिखाई देते हैं. इस किस्म के पौधे 70 से 80 दिनों बाद कटाई के लिए पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म की प्रति हेक्टेयर पैदावार 10 क्विंटल के आसपास पाई जाती है.

पूसा विशाल

इस किस्म को उत्तर भारत के राज्यों में गर्मियों के मौसम में उगाया जाता है. इस किस्म के पौधों पर पीली चित्ती का रोग नही पाया जाता है. इस किस्म के बीज गहरे हरे और चमकदार होते हैं. इसकी फलियों को पकने के लिए 60 से 70 दिन का वक्त लगता है. इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार लगभग 12 क्विंटल के आसपास पाई जाती है.

टाइप – 44

मूंग की इस किस्म के पौधे बौने आकार के होते हैं. इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 8 से 10 क्विंटल के आसपास पाई जाती है. इस किस्म के बीजों का आकर भी सामान्य और रंग गहरा हरा, चमकीला होता है. जो कटाई के लिए पककर तैयार होने में 60 से 70 दिन का वक्त लेते हैं. मूंग की इस किस्म को किसी भी मौसम में उगाया जा सकता है.

पूसा बैसाखी

मूंग की उन्नत किस्म

पूसा बैसाखी को टाइप – 44 के संकरण से तैयार किया गया है. इस किस्म की पत्तियां हरी जबकि तने पर कुछ गुलाबी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. इस किस्म के बीज सामान्य आकार के हरे चमकीले होते हैं. इस किस्म की सभी फलियां एक साथ पकती हैं. मूंग की इस किस्म को खासकर गर्मियों के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे 60 से 70 दिनों में पककर तैयार हो जाते हैं. जिनकी प्रति हेक्टेयर पैदावार 12 क्विंटल से ज्यादा पाई जाती हैं.

इनके अलावा और भी कई किस्में हैं जिन्हें लोग अलग अलग समय पर अधिक पैदावार देने के लिए उगाते हैं.

खेत की जुताई

मूंग की खेती के लिए मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी होता है. इसके लिए खेत की पहली जुताई पलाऊ लगाकर करनी चाहिए. पलाऊ लगाने के बाद खेत में गोबर की खाद डालकर उसकी फिर से दो से तीन तिरछी जुताई कर खाद को मिट्टी में मिला दें. और खेत में पानी चलाकर उसका पलेव कर दें. खेत में पानी चलाने से खेत में खरपतवार निकल आती हैं. जब खेत में खरपतवार निकल आयें तब खेत में रोटावेटर चलाकर उसे समतल बना लें. रोटावेटर चलाने से खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है. भुरभुरी मिट्टी में बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है.

बीज बुवाई का वक्त और तरीका

बीज को खेत में उगाने से पहले उसे उपचरित कर खेत में लगाए. इसके लिए बीज को थायरम और कार्बेन्डाजिम से उपचारित कर खेत में उगाना चाहिए. या फिर प्रमाणित बीज को ही किसान भाइयों को खेतों में उगाना चाहिए. मूंग के बीजों की बुवाई अलग अलग मौसम के अनुसार की जाती है.

खरीफ के मौसम में उगाई जाने वाली किस्मों को जून से लेकर जुलाई महीने के पहले सप्ताह तक उगा देना चाहिए. जबकि जायद के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों को मार्च से लेकर अप्रैल महीने के दूसरे सप्ताह तक उगा सकते है. मूंग की खेती में एक हेक्टेयर के लिए 10 से 12 किलो बीज काफी होता है.

मूंग के बीजों की बुवाई सहायक फसलों के रूप में भी की जाती है. सहायक फसलों के रूप में इसे परिस्थिति के अनुसार उगाया जाता है. लेकिन साधारण रूप से इसकी खेती करने के लिए इसकी उचित तरीके से बुवाई की जाती है. इसकी बुवाई मशीनों की सहायता से की जाती है. इसकी बुवाई करते वक्त दो पंक्तियों के बीच लगभग एक से सवा फिट की दूरी होनी चाहिए.  पंक्ति में प्रत्येक पौधे को 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी पर तीन से चार सेंटीमीटर की गहराई में उगाना चाहिए.

उर्वरक की मात्रा

मूंग के पौधों को ज्यादा उर्वरक की जरूरत नही होती. मुंग का पौध खुद जमीन में नाइट्रोजन की पूर्ति करता है. मूंग के पौधों की जड़ों में गाठें पाई जाती है. जो जमीन में नाइट्रोजन छोड़कर जमीन की उर्वरक क्षमता को बढ़ाती हैं. लेकिन शुरुआत में इसके पौधों को उर्वरक की जरूरत होती है.

मूंग की रोपाई से पहले खेत की जांच करवाकर उसमें आवश्यक तत्वों के आधार पर उर्वरक की उचित मात्र दें. क्योंकि अलग तरह की मिट्टी में इसके पौधे को उर्वरक की अलग अलग मात्रा की जरूरत होती है. जैसे बलुई दोमट मिट्टी में जिंक की कमी होने पर इसे जिंक सल्फेट देना चाहिए. और काली मिट्टी में सल्फर की कमी होने पर आखिरी जुताई के वक्त सल्फर का छिडकाव करना चाहिए.

मूंग की खेती के लिए शुरुआत में खेत की जुताई के वक्त 10 से 15 गाडी प्रति एकड़ के हिसाब से गोबर की पुरानी खाद खेत में डाल दें. इसके अलावा पलेव करने के बाद आखिरी जुताई के वक्त एन.पी.के. की 50 किलो मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में छिड़क दें. एन.पी.के. की जगह डी.ए.पी. का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

पौधों की सिंचाई

मूंग की पहली सिंचाई उसकी बुवाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद कर देनी चाहिए. इसके बाद दूसरी सिंचाई 10 दिन बाद कर दे. मूंग के पौधे को चार से पांच सिंचाई की जरूरत होती है. इसकी बाकी की सिंचाई आवश्यकता के अनुसार उचित वक्त पर देनी चाहिए. इससे पौधा अच्छे से विकास करता है और पैदावार भी अधिक होती है. पौधे में फली बनने के वक्त खेत में नमी की उचित मात्रा बनाए रखने पर पैदावार अधिक मिलती है. क्योंकि नमी की वजह से फलियों में दानों का आकार और संख्या दोनों में वृद्धि होती है.

जायद के समय में उगाई जाने वाली किस्मों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नही होती. क्योंकि बारिश के मौसम में उगाई जाने के कारण इन्हें पानी की काफी कम आवश्यकता होती है. जायद के मौसम वाली किस्मों को शुरूआती सिंचाई की ही जरूरत होती है.

खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार नियंत्रण

मूंग के पौधों में खरपतवार नियंत्रण करने से पौधे तेज़ी से विकास करते हैं. जिससे पैदावार भी ज्यादा प्राप्त होती है. मूंग की खेती में खरपतवार नियंत्रण रासायनिक और प्राकृतिक दोनों तरीके से किया जाता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण नीलाई गुड़ाई के माध्यम से किया जाता  है. मूंग के पौधों की पहली गुड़ाई पहली सिंचाई के दो से तीन बाद कर देनी चाहिए. और दूसरी गुड़ाई पहली गुड़ाई के लगभग 20 दिन बाद कर देनी चाहिए.

रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए खेत की आखिरी जुताई से पहले पेन्डीमेथलीन की 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिडकाव करना चाहिए.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

मूंग के पौधे को कई तरह रोग लगते हैं. जिनसे पौधों की सुरक्षा करना जरूरी होता है. इसके लिए पौधों की देखभाल करते रहना चाहिए.

दीमक

दलहनी फसलों में दीमक का रोग अक्सर दिखाई देता हैं. मूंग के पौधों पर दीमक का रोग किसी भी अवस्था में लग सकता है. लेकिन ये रोग पौधे की शुरुआती अवस्था में अधिक देखने को मिलता है. पौधे के अंकुरण के साथ ही दीमक पौधे को नष्ट कर देती है. इस रोग की रोकथाम के लिए क्यूनालफास की उचित मात्रा को आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिडक दें. इसके अलावा क्लोरोपाइरीफॉस की उचित मात्रा से बीज को खेत में लगाने से पहले उपचारित कर लेना चाहिए.

कातरा

कातरा का रोग मूंग की खेती में अक्सर देखने को मिलता है. इसका कीड़ा कई रंगों में पाया जाता है. जिसके पूरे शरीर पर रुयें (बाल ) दिखाई देते हैं. कातरे का कीड़ा पौधे के नर्म भागों को खाकर पौधे को नुक्सान पहुँचाता है. इस तरह के कीट दिखाई देने पर पौधे पर सर्फ का घोल बनाकर उसका छिडकाव कर दें. इसके अलावा क्यूनालफास का छिडकाव पौधों पर कर दें.

फली छेदक

मूंग के पौधों पर ये रोग फली बनने के दौरान अधिक देखने को मिलता है. इस रोग का किट फली के अंदर जाकर फसल को नुक्सान पहुँचाता है. इसके कीट का रंग हरा और पीला होता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास या मैलाथियान का छिडकाव उचित मात्रा में करना चाहिए. अगर फिर भी पौधे पर इसका प्रभाव दिखाई दे तो लगभग 15 दिन बाद फिर से एक और छिडकाव कर दें.

चित्ती जीवाणु रोग

चित्ती जीवाणु रोग पौधे पर मध्य अवस्था में ज्यादा देखने को मिलता है. इस रोग की वजह से पौधे की वृद्धि रुक जाती है. इस रोग के लगने पर पौधे के सभी कोमल भागों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर एग्रीमाइसीन या स्टेप्टोसाईक्लीन की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.

रस चूसक कीड़े

रस चूसक कीड़े पौधे को अधिक नुक्सान पहुँचाते हैं. रस चूसक कीड़े पौधे की पत्तियों का रस चूसकर उन्हें नष्ट कर देते हैं. जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नही कर पाता. इस रोग के लगने पर पौधों पर इमिडाक्लोप्रिड का छिडकाव 15 दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए.

झुलसा रोग

रोग लगा पौधा

झुलसा का रोग लगभग सभी दलहन फसलों में देखने की मिलता है. पौधों पर ये रोग ज्यादातर गर्मियों के मौसम में देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियां सिकुड़कर पीली पड़ने लगती है. और कुछ दिन बाद पत्तियां पूरी तरह से नष्ट हो जाती हैं. इस रोग के लगने पर पौधे का तना भी धीरे धीरे काला दिखाई देने लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज को मैनकोजेब से उपचारित कर लगाना चाहिए. इसके अलावा पौधों पर मैनकोजेब का ही छिडकाव करना चाहिए.

पती धब्बा

पौधों पर पत्ती धब्बा रोग के लगने पर पत्तियों पर छोटे गोल बेंगनी लाल रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. जो धीरे धीरे बड़े होकर एक बड़ा धब्बा बना लेते हैं. जो बीच से सुखा हुआ नजर आता है. इस रोग की वजह से धीरे धीरे पूरा पौधा सुखने लगता है. इस रोग के लगने पर पौधों पर कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा को पानी में मिलकर उसका छिडकाव पौधों पर करना चाहिए. इसके अलावा बीजों की रोपाई के वक्त उन्हें कैप्टान से उपचारित कर उगाना चाहिए.

किंकल विषाणु रोग

पौधे पर ये रोग उसकी मध्य अवस्था में ज्यादा देखने को मिलता है. इस रोग का सबसे ज्यादा असर पैदावार पर देखने को मिलता है. इस रोग की वजह से पौधे की पत्तियों का आकार विकृत हो जाता है. और पौधे पर काफी कम मात्रा में फलियों का निर्माण होता है. इस रोग के लगने पर पौधों पर डाइमिथोएट 30 ई.सी. का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा अधिक प्रभाव दिखाई दे तो 15 दिन के अंतराल में मिथाइल डिमेटान 25 ई.सी. का दो बार छिडकाव करें.

पौधे की कटाई और गहाई

मूंग की फसल लगभग 60 से 70 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है. इसकी फली पकने के बाद काली दिखाई देने लगती है. इस दौरान पौधों की कटाई कर लेनी चाहिए. क्योंकि अगर फली काली दिखाई देने के बाद इसे कुछ दिन नही काटते हैं तो इसकी फलियाँ पौधे पर ही फटने लगती हैं.

इसके पौधों को काटने के बाद उन्हें एक जगह एकत्रित कर उन्हें सूखा लेना चाहिए. जब फलियां अच्छी तरह से सुख जाएँ तब उन्हें मशीन की सहायता से निकलवा लेना चाहिए. इस दौरान मशीन को धरे चलाना चाहिए. क्योंकि ज्यादा तेज़ गति होने पर बीज कटने लगते हैं.

पैदावार और लाभ

मूंग की फसल दो से तीन महीने की होती है. कम समय की फसल होने के कारण किसान भाई अपने खेतों से एक साल में तीन पैदावार ले सकता है. मूंग की प्रति हेक्टेयर पैदावार 8 से 10 क्विंटल तक पाई जाती है. जिसका बाज़ार में थोक भाव 4 हज़ार से 6 हज़ार तक पाया जाता है. इस हिसाब से किसान भाई एक बार में एक हेक्टेयर से 40 हज़ार के आसपास कमाई कर लेता है.

3 thoughts on “मूंग की खेती कैसे करें – पूरी जानकारी!”

  1. मेने चने की जमीन में मूंग बोया है 3 मार्च को पहले ठीक था अभी पूरे पत्ते कीड़े ने कहा लिया छेंद हो रहा पट्टी अब क्या करे कोई उपाय बताए

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