मटर की खेती मुख्य रूप से दलहन फसल के रूप में की जाती है. मटर का पौधा द्विबीजपत्री पौधा होता है. जिसका तना अंदर से खोखला होता है. मटर की खेती के लिए सर्दी का मौसम सबसे उपयुक्त माना जाता है. मटर की खेती किसानों के लिए काफी लाभदायक होती है. वर्तमान में मटर की काफी उन्नत किस्में हैं जो बहुत कम दिनों में तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं. जिन्हें किसान भाई कच्चे रूप में या पकाकर तोड़ सकता है.
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मटर के पौधे जमीन की सतह पर फैलकर ही अपना विकास करते हैं. इसके पौधों पर कई तरह के कीट और जीवाणु जनित रोगों का प्रकोप देखने को मिलता है, जिसका सीधा असर पौधों की पैदावार पर देखने को मिलता है. इसलिए इसके पौधों को रोगग्रस्त होने से बचाकर अच्छा उत्पादन हासिल किया जा सकता है.
आज हम आपको मटर के पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम के लिए आवश्यक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
दीमक
मटर के पौधों में इस रोग का प्रभाव किसी भी वक्त दिखाई दे सकता है. लेकिन शुरुआत में पौधों के अंकुरण के वक्त इसका प्रभाव अधिक दिखाई देता है. इस रोग के कीट पौधे की जड़ों को जमीन के अंदर रहकर नुक्सान पहुँचाते है. जिससे पौधा मुरझाकर सूखने लग जाता है. और कुछ दिन बाद पौधा पूरी तरह से सूखकर नष्ट हो जाता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को उपचारित कर खेतों में उगाना चाहिए. बीजों को उपचारित करने के लिए बाविस्टीन की उचित मात्रा का इस्तेमाल करना चाहिए.
- खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. की ढाई लीटर मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के साथ पौधों को देना चाहिए.
- भूमि को उपचारित करने के लिए नीम की खली को खेत की जुताई के वक्त खेत में छिड़क देना चाहिए. इसके अलावा जिस खेत में दीमक का प्रकोप अधिक दिखाई देता है उसमें ताजा गोबर की खाद को नही डालना चाहिए.
कटवर्म
मटर के पौधों में कटवर्म रोग का प्रभाव कीट के कारण फैलता है. इस रोग की सुंडी पौधे के कोमल भागों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाती है. जिससे पौधे का विकास प्रभावित होता है. रोग के अधिक बढ़ने पर पौधों की पैदावार में काफी फर्क देखने को मिलता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए कार्बोफ्यूरान या क्लोरपायरीफास की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
- फसल चक्र को अपनाना चाहिए. इसके अलावा खेत की तैयारी के दौरान खेत की अच्छे से जुताई कर उसे तेज़ धूप लगने के लिए कुछ दिन खुला छोड़ देना चाहिए.
पाउडरी मिल्ड्यू
मटर के पौधों में पाउडरी मिल्ड्यू यानि चूर्णिल आसिता रोग फफूंद की वजह से फैलता हैं. पौधों पर इस रोग का प्रभाव पौधों की पत्तियों पर देखने को मिलता हैं. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. रोग बढ़ने पर इसकी पत्तियों पर सफ़ेद रंग का पाउडर जमा हो जाता है. जिसकी वजह से पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करना बंद कर देते हैं. और पौधों का विकास रुक जाता है. साथ ही पौधों पर फलियाँ काफी कम मात्रा में आती हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में बीजों को बाविस्टीन से उपचारित कर उगाना चाहिए.
- अगेती किस्म का चयन कर उसे उगाना चाहिए.
- खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर पौधों पर घुलनशील गंधक की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
- इसके अलावा रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए.
रस्ट
मटर के पौधों में इस रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान देखने को मिलता है. इस रोग का प्रभाव अधिक आद्रता के वक्त अधिक दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे पर लम्बे, गोल पीले धब्बे दिखाई देते हैं. जिनका रंग पौधों पर रोग बढ़ने की स्थिति में भूरा लाल दिखाई देने लगता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर खेत को धूप लगने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए. इसके अलावा फसल चक्र का इस्तेमाल करना चाहिए.
- खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर केलेक्सिन या बाविस्टीन की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों करना चाहिए.
उख्टा या जड़ सडन
मटर के पौधों पर इस रोग का प्रभाव खेत में अधिक समय तक जलभराव या नमी के बने रहने पर अधिक दिखाई देता है. जो फौधों में फफूंद की वजह से फैलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव उनके विकास के दौरान देखने को मिलता है. इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियां पीली दिखाई देने लगती हैं. रोग का प्रकोप बढ़ने पर पौधे की फलियों में दाने बनना बंद हो जाते है और जड़ें सड़ जाती हैं. जिससे पौधा सूखने लगता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त खेत की गहरी जुताई कर खेत को खुला छोड़ दें.
- रोग लगी जमीन पर फिर से मटर की रोपाई दो से तीन साल बाद करनी चाहिए. इस दौरान फसल चक्र अपनाकर बदल बदल कर खेती करनी चाहिए.
- बीज रोपाई से पहले बीजों को बाविस्टीन, थिरम या कैप्टन दवा से उपचारित कर लेना चाहिए.
- खेत में जलभराव ना होने दे. और रोगग्रस्त पौधे की जड़ों में बोर्डो मिश्रण का छिडकाव करना चाहिए.
एस्कोकाईटा ब्लाईट
मटर के पौधों में लगने वाला झुलसा यानी एस्कोकाईटा ब्लाईट रोग कवक की वजह से फैलता हैं. इस रोग से प्रभावित पौधे शुरुआत में मुरझाने लगते हैं. रोग बढ़ने पर पौधे की जड़ें भूरी पड़ जाती हैं. इसके अलावा पौधे की पत्तियों और तने का रंग भूरा दिखाई देने लगता है. जिससे पौधा कमजोर होकर नष्ट हो जाता है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जल निकासी का उचित प्रबंध करना चाहिए. इसके अलावा रोग रहित किस्म के बीजों का रोपण करना चाहिए.
- खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर पौधे पर नीम के आर्क का छिड़काव दो से तीन बार करना चाहिए.
सफ़ेद विलगन
मटर के पौधों में इस रोग का प्रभाव जमीन के ऊपरी भाग पर दिखाई देता है. इस रोग का प्रभाव पौधे के तने और शाखाओं पर अधिक दिखाई देता है. इसके लगने पर पौधे के सभी ऊपरी भागों पर बदरंग धब्बे दिखाई देने लगते हैं. और फलियों के अंदर का गुदा सड़ने लगता है.
रोकथाम
- तीन वर्षीय फसल चक्र अपना कर मटर की रोपाई करनी चाहिए.
- रोग रहित किस्म के बीजों का चयन करना चाहिए.
- खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर नीम के काढ़े या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर पौधों पर छिडकना चाहिए.
फली छेदक
मटर के पौधों में फली छेदक रोग कीट की वजह से फैलता है. इस रोग के कीट की सुंडी फलियों में छिद्र कर अंदर से इसके दानों को खा जाती है. जिससे इसकी फलियाँ खराब हो जाती हैं. रोग बढ़ने पर सम्पूर्ण फसल भी खराब हो जाती है.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर फली बनने के बाद कार्बोरिल या मेलाथियान की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर करना चाहिए.
- प्राकृतिक तरीके से इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के तेल या नीम के आर्क का छिडकाव करना चाहिए.
लीफ माइनर
मटर के पौधों में इस रोग का प्रभाव पौधों की प्रारंभिक अवस्था में दिखाई दे जाता हैं. इस रोग के कीट का लार्वा पौधे की पत्तियों के हरे भाग को खा जाता है. जिससे पौधे की पत्तियों में सुरंगनूमा आकृतियाँ बन जाती है. रोग बढ़ने पर इसका प्रभाव सभी पत्तियों पर देखने को मिलता है. जिससे कुछ दिन बाद पत्तियां टूटकर गिर जाती हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए मिथाइल ऑक्सी डेमेटान या रोगर दवा की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर 15 दिन के अन्तराल में दो बार करना चाहिए.
- इस रोग की रोकथाम के बीजों की रोपाई सही समय पर की जानी चाहिए.
माहू (चेपा)
मटर के पौधों में माहू रोग का प्रभाव मौसम में परिवर्तन के दौरान अधिक दिखाई देता है. इस रोग के कीट छोटे आकर के दिखाई देते हैं. जो पौधों पर एक समूह के रूप में आक्रमण करते हैं. इस रोग के कीट पौधे का रस चूसकर चिपचिपे पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं. जिससे पौधों पर काली फफूंद उत्पन्न हो जाती है. इसके बढ़ने से सम्पूर्ण पौधे पर इसका प्रभाव बढ़ जाता है. जिससे पौधे विकास करना बंद कर देते हैं. और उनकी प्रगति रुक जाती हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
- प्राकृतिक तरीके से नियंत्रण के लिए इसके पौधों पर नीम के तेल या नीम के आर्क की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
एन्थ्रेक्नोज
मटर के पौधों में इस रोग का प्रभाव पौधों की पत्तियों पर अधिक देखने को मिलता है. इस रोग के बढ़ने से पौधों की पत्तियों पर पीले, काले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. और रोग बढ़ने पर पौधे की फलियाँ सिकुड़कर मर जाती हैं.
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में बीजों की रोपाई से पहले इसके बीजों को कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए.
- खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर डाईक्लोफेनाक की उचित मात्रा का छिडकाव 15 दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए.