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आलू की जैविक तरीके से खेती कैसे करें 

2019-10-23T14:03:06+05:30Updated on 2019-10-23 2019-10-23T14:03:06+05:30 by bishamber Leave a Comment

आलू दुनियाभर में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली सब्जी है. जिसको लोग सबसे ज्यादा उपयोग में लेते हैं. आलू का इस्तेमाल सब्जी के साथ साथ चिप्स, पापड़, आलू भरी कचौड़ी, समोसा, फ्रेंच फ्राइज, वड़ापाव, चाट, टिक्की और चोखा बनाने में भी किया जाता है. आलू दुनिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली सब्जी हैं. इसकी इतनी ज्यादा संभावना को देखते हुए इसकी जैविक खेती किसानों को काफी ज्यादा लाभ पहुंचा सकती है.

Table of Contents

  • उपयुक्त मिट्टी
  • जलवायु और तापमान
  • उन्नत किस्में
    • अगेती किस्में
    • पछेती किस्में
  • खेत की तैयारी
  • बीज की मात्रा और उपचार
  • बीज रोपाई का तरीका और टाइम
  • पौधों की सिंचाई
  • उर्वरक की मात्रा
  • खरपतवार नियंत्रण
  • मिट्टी चढ़ाना
  • पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
    • चेपा
    • कटुआ कीट
    • सफेद मक्खी
    • अगेती अंगमारी
    • काली रुसी
    • पपड़ी रोग
    • झुलसा (लेट ब्लाईट)
    • पाउडरी मिल्ड्यू
  • कंदों की खुदाई और सफाई
  • पैदावार और लाभ
आलू की जैविक तरीके से खेती

आज की दुनिया में जब लोग रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशको से निर्मित सब्जी खाकर काफी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में आलू की जैविक खेती किसानों के लिए अधिक आय देने वाली खेती बन सकती है.  वर्तमान में कुछ जागरूक किसानों का ध्यान अब इस और बढ़ने लगा है. जो इसकी जैविक खेती कर अधिक लाभ कम रहे हैं. दरअसल जैविक तरीके से खेती करने पर किसान भाइयों को पौधों की देखरेख के लिए अधिक खर्च करने की जरूरत नही होती हैं.

Read Also – आलू की खेती कैसे करें  

अगर आप भी आलू की खेती जैविक तरीके से करने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको आलू की जैविक तरीके से उन्नत खेती करने के बारें में जानकारी देने वाले हैं ताकि आप अपनी फसल से कम खर्च में अधिक पैदावार हासिल कर सके.

उपयुक्त मिट्टी

आलू की खेती सामान्य तौर पर किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है. इसकी खेती के लिए मिट्टी भुरभुरी, उपजाऊ और उचित जल निकासी वाली होनी चाहिए, और मिट्टी में सभी आवश्यक पोषक तत्व उचित मात्रा में हों. जबकि इसकी फसल से सबसे ज्यादा उत्पादन लेने के लिए इसे बलुई दोमट मिट्टी में उगाना सबसे बेहतर होता है. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य के आसपास होना चाहिए.  जलभराव वाली भूमि में आलू की खेती नही करनी चाहिए.

जलवायु और तापमान

आलू उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल हैं. जिसे समशीतोष्ण और शीतोष्ण प्रदेशों में उगाया जा सकता है. भारत में आलू की खेती ज्यादातर जगहों पर सर्दियों के मौसम में की जाती है. क्योंकि अधिक गर्मी के मौसम में इसके कंद खराब हो जाते हैं. और सर्दियों में पड़ने वाला तेज़ पाला भी इसके पौधों के विकास को प्रभावित करता है. इसके पौधों को विकास करने के लिए सामान्य बारिश की जरूरत होती है. अधिक बारिश के मौसम में जलभराव होने की वजह से फसल खराब हो जाती है.

आलू की खेती के लिए तापमान एक मुख्य कारक के रूप में काम करता है. क्योंकि तापमान में होने वाला असामान्य परिवर्तन इसकी पैदावार को बहुत अधिक प्रभावित करता है. इसके पौधों को शुरुआत में अंकुरित होने के लिए सामान्य (22 से 25 डिग्री के बीच) तापमान की जरूरत होती है. अंकुरित होने के बाद आलू के पौधे को विकास करने के लिए इससे भी कम तापमान की जरूरत होती है. इसके पौधे सर्दियों के मौसम में न्यूनतम 10 डिग्री तापमान पर भी आसानी से विकास कर लेते हैं. इसके फलों के पकने के दौरान तापमान 25 डिग्री के आसपास होना चाहिए. क्योंकि फसल की पकाई के दौरान अधिकतम तापमान 28 डिग्री से अधिक जाने पर फसल खराब हो जाती है.

उन्नत किस्में

आलू की काफी सारी देशी और संकर किस्में हैं. जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक उत्पादन देने के लिए तैयार किया गया है. इस सभी किस्मों को अगेती और पछेती पैदावार के रूप में अलग अलग समय पर उगाया जाता है. वहीं कुछ किस्मों को रंगों के आधार पर भी तैयार किया गया है. इन सभी तरह की किस्मों के उत्पादन और लगाने के लिए उपयुक्त जगहों के आधार पर अधिक जानकारी आप हमारे इस आर्टिकल से ले सकते हैं.

Read Also – आलू की उन्नत किस्में और उनकी पैदावार

अगेती किस्में

आलू की अगेती किस्में रोपाई के लगभग तीन महीने बाद ही खुदाई के लिए तैयार हो जाती हैं. जिनमें कुफरी चंदरमुखी, कुफरी पुखराज, कुफरी सूर्या, कुफरी ख्याती, कुफरी अलंकार, कुफरी जवाहर और कुफरी अशोका जैसी किस्में शामिल हैं.

पछेती किस्में

पछेती किस्म या देरी से पैदावार देने वाली किस्मों के पौधे रोपाई के लगभग चार महीने बाद खुदाई के लिए तैयार होते हैं. जिनमें कुफरी सिंदूरी, कुफरी आनंद, कुफरी चमत्कार, कुफरी बादशाह, कुफरी देवा, कुफरी सफेद और कुफरी किसान जैसी किस्में शामिल हैं.

खेत की तैयारी

आलू की जैविक तरीके से खेत करने के लिए खेत को शुरुआत में जैविक खेती के लिए तैयार करना होता है. इसके लिए शुरुआत में खेत में मौजूद पुरानी फसलों के अवशेषों को हटाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा बना लें. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के लिए शुरुआत में खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें. ताकि सूर्य की तेज़ धूप से भूमि में मौजूद हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाएँ. खेत को खुला छोड़ने के बाद खेत में उचित मात्रा में जैविक खाद के रूप में पुरानी गोंबर की खाद और अन्य जैविक उर्वरकों (केंचुआ खाद, वर्मी कम्पोस्ट) को खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें.  जैविक उर्वरकों को मिट्टी में मिलाने के लिए खेत को दो से तीन बार कल्टीवेटर के माध्यम से तिरछी जुताई कर दें.

खेत की जुताई करने के बाद पानी चालाकर खेत का पलेव कर दें. पलेव करने के दो से तीन दिन बाद जमीन की ऊपरी सतह हल्की सूखने लगे और उसमें खरपतवार जन्म लेने लगे तब खेत की कल्टीवेटर के माध्यम से फिर से जुताई कर दें. उसके बाद खेत में नीम की खली का छिडकाव कर खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें. उसके बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि में एक तरफा ढाल बना लें. ताकि बारिश के मौसम में जल निकासी की जा सके. भूमि को समतल बनाने के बाद खेत में उचित दूरी पर मेड़ों का निर्माण कर लें.

बीज की मात्रा और उपचार

आलू की खेती में बीजों के रूप में रोपाई के लिए इसके कंदों का इस्तेमाल किया जाता है. इसके कंदों का चुनाव करना बहुत ही महत्वपूर्ण है. क्योंकि इसकी खेती में सबसे ज्यादा लागत इसके बीजो को खरीदने में ही आती है. इसके बीजों को खरीदते वक्त स्वस्थ और अच्छे दिखने वाले कंदों को ही खरीदना चाहिए. अगेती और पछेती किस्म में आधार पर रोपाई करने के दौरान इसके कंदों की मात्रा अलग अलग होती है. अगेती फसल के दौरान कंदों की ज्यादा जरूरत होती है. क्योंकि अगेती फसल के दौरान इसके कंदों को काटकर उगाने पर कंद खराब हो जाते हैं, इस कारण कंदों को पूरा साबुत उगाया जाता है. साबुत कंदों के रूप में रोपाई के दौरान प्रति हेक्टेयर 25 से 30 किवंटल के बीच कंदों की जरूरत होती है. जबकि काटकर रोपने के दौरान इससे आधे कंदों की ही जरूरत होती है.

इसके कंदों की रोपाई के दौरान उन्हें खेत में लगाने से पहले उपचारित कर लेना चाहिए. कंदों को जैविक तरीके से उपचारित करने के लिए ट्राइकोडर्मा विरीडी या घर पर जीवामृत तैयार कर उसका इस्तेमाल करना चाहिए.

घर पर जीवामृत बनाने के लिए यहाँ पर देखे – जैविक तरल खाद और उनको बनाने के तरीके

बीज रोपाई का तरीका और टाइम

आलू के कंदों की रोपाई सर्दी के मौसम में अगेती और पछेती फसल के रूप में की जाती है. अगेती फसल के रूप में खेती करने के दौरान इसके साबुत कंदों की रोपाई की जाती है. जबकि उचित समय पर रोपाई के दौरान इन्हें काटकर उगाते हैं. काटकर उगाने के दौरान इसके कंदों की प्रत्येक कटिंग में दो से तीन आँखों का होना जरूरी होता है.

इसके कंदों की रोपाई साल में तीन बार की जाती है. जिसमें अगेती फसल के रूप में सितम्बर माह के लास्ट से अक्टूबर माह के शुरुआत तक इसके कंदों को किसान भाई उगा सकते हैं. जबकि पछेती पैदावार के रूप में इसके कंदों की रोपाई मध्य नवम्बर तक कर देनी चाहिए. और तीसरी फसल के रूप में इसे दिसम्बर के आखिर में उगाया जाता है. जिनकी पैदावार किसान भाई को मध्य मार्च के बाद मिलती है. इस दौरान फसल के पकने के वक्त पौधों को हल्की सिंचाई की जरूरत ज्यादा होती है.

आलू के कंदों की रोपाई खेत में मेड बनाकर की जाती है. इसकी रोपाई के लिए मेड तैयार करने के दौरान प्रत्येक मेड़ों के बीच एक से डेढ़ फिट के आसपास दूरी होनी चाहिए. और मेड़ों की चौड़ाई एक फिट के आसपास होनी चाहिए. मेड पर कंदों की रोपाई के दौरान कंदों के बीच लगभग 25 सेंटीमीटर की दूरी होनी चाहिए. इसके अलावा कंदों की रोपाई के दौरान प्रत्येक कंदों को 5 से 7 सेंटीमीटर की गहराई में उगाना चाहिए.

पौधों की सिंचाई

आलू के कंदों की रोपाई नमी युक्त भूमि में की जानी अच्छी होती है. नमी युक्त भूमि में रोपाई करने के दौरान इसके पौधों की सिंचाई तीन से चार दिन बाद कर देनी चाहिए. सूखी जमीन में इसके कंदों की रोपाई करने के दौरान मिट्टी का तापमान अधिक नही होना चाहिए. इसलिए सूखी जमीन में इसके कंदों की रोपाई सुबह के वक्त करनी चाहिए. और रोपाई के तुरंत बाद उनकी सिंचाई कर देनी चाहिए. कंदों की रोपाई के बाद से उनके अंकुरण तक पौधों को उचित मात्रा में पानी देना चाहिए.

जब आलू के कंद अंकुरित हो जाए तब पौधों को शुरुआत में 10 से 15 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. उसके बाद जब पौधों में फल (कंद) बन जाएँ तब पौधों की हर सप्ताह में हल्की हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए. इस दौरान पानी की कमी होने से कंदों का आकार छोटा रह जाता है. जिसे खेत की पैदावार कम प्राप्त होती है.

उर्वरक की मात्रा

आलू की जैविक तरीके से खेती करने के दौरान केवल जैविक उर्वरकों का ही इस्तेमाल किया जाता है. इसके लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त 15 से 20 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत में डालकर अच्छे से मिट्टी में मिला दें. इसके अलावा घन जीवामृत का छिडकाव खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिडककर किसान भाई कर सकते हैं. उसके बाद जब पौधे विकास करने लगे तब पौधों के विकास के लिए उनकी सिंचाई के साथ पंचगव्य और जीवामृत की उचित मात्रा पौधों को देनी चाहिए. इससे पौधे अच्छे से विकास करते हैं. और उत्पादन में भी वृद्धि देखने को मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

आलू के पौधों में खरपतवार नियंत्रण काफी अहम होता है. क्योंकि इसके पौधे और कंद अपने विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्व भूमि की ऊपरी सतह से ही हासिल करते हैं. ऐसे में खरपतवार रहने पर इसके कंदों और पौधों को उचित मात्रा में पोषक तत्व नही मिल पाते, जिससे उनका विकास रुक जाता है.

आलू की जैविक खेती के दौरान इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से किया जाता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों की रोपाई के लगभग 20 से 25 दिन बाद इसके पौधों की हल्की गुड़ाई कर जन्म लेने वाली खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए. आलू के पौधों में खरपतवार नियंत्रण दो या तीन गुड़ाई कर किया जाता है. पहली गुड़ाई के बाद बाकी की दोनों गुड़ाई पौध रोपाई के लगभग 40 दिन 20 दिन के अंतराल में कर देना चाहिए.

मिट्टी चढ़ाना

आलू के पौधों में मिट्टी चढ़ाना काफी अहम होता है. क्योंकि कंदों पर अगर मिट्टी नही चढ़ाते है तो इसके कंद सीधे सूर्य की धूप के सम्पर्क में आ जाते हैं. जिससे कंदों का रंग हरा पड़ जाता है. और कंद खराब हो जाते हैं. इसके लिए कंदों पर मिट्टी चढ़ाने का काम पौध रोपाई के बाद नीलाई गुड़ाई के दौरान कर देना चाहिए.

पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम

आलू के पौधों में कई तरह के कीट और जीवाणु जनित रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी रोकथाम उचित समय पर ना की जाये तो पैदावार में काफी ज्यादा प्रभाव देखने को मिलता है.

चेपा

आलू के पौधों में चेपा रोग कीट की वजह से दिखाई देता है. इसके कीट छोटे आकार के होते हैं, जिनका रंग हरा, हल्का काला पीला दिखाई देता है. इसके कीट पौधे के कोमल भागों का रस चूसकर उनके विकास को प्रभावित करते हैं. इसके अलावा इसके कीट पौधे का रस चूसकर चिपचिपे पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं. जो बाद में फफूंद के रूप में बदल जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर रोग दिखाई देने के तुरंत बाद नीम के तेल का छिडकाव 10 दिन के अंतराल में दो से तीन बार करना चाहिए.

कटुआ कीट

आलू के पौधों में कटुआ कीट का प्रभाव पौधों पर शुरुआत में अधिक दिखाई देता है. इस रोग के कीट की सुंडी इसके पौधों की जड़ों को भूमि की सतह के पास से काट देती है. जिससे पौधे पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. रोग के बढ़ने पर सम्पूर्ण फसल खराब हो जाती हैं. इस रोग की सुंडी रात के समय पौधों पर आक्रमण करती हैं, जबकि दिन के समय मिट्टी में छुपकर रहती है. इस रोग की रोकथाम के लिए शुरुआत में खेत की तैयारी के वक्त खेत में मैटरीजियम या व्यूबेरिया की उचित मात्रा का छिडकाव कर देना चाहिए. खड़ी फसल में रोग दिखाई देने पर पौधों की जड़ों में ट्राइकोडर्मा या ब्यूवेरिया बेसियाना की उचित मात्रा को देना चाहिए. ट्राइकोडर्मा या ब्यूवेरिया बेसियाना का इस्तेमाल खेत की जुताई के वक्त भी कर सकते हैं. इसके अलावा इस रोग के कीट के नियंत्रण के लिए खेत में फेरोमोन ट्रैप को लगाना चाहिए.

सफेद मक्खी

आलू के पौधों में सफेद मक्खी रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान देखने को मिलता है. जो कीट के माध्यम से पौधों पर फैलता है. इस रोग के कीट की मक्खी सफेद रंग को पाई जाती है. जो पौधे की पत्तियों की निचली सतह पर रहकर उनका रस चूसती हैं. जिससे पौधों का विकास रुक जाता है. रोग के बढ़ने पर पौधे की पत्तियों पर काली फफूंद दिखाई देने लगती हैं जो इसके कीटों के द्वारा उत्सर्जित चिपचिपे पदार्थ से उत्पन्न होती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर नीम के आर्क या नीम के तेल का छिडकाव करना चाहिए.

अगेती अंगमारी

आलू के पौधों में अगेती अंगमारी रोग फफूंद की वजह से फैलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव रोपाई के लगभग एक महीने बाद उसकी पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे की नीचे की पत्तियों पर स्लेटी भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं. रोग बढ़ने पर ये धब्बे पौधे की ऊपर की पत्तियों पर भी बन जाते हैं, और इनका आकर बढ़ जाता है. जिससे अधिक मात्रा में पत्तियां खराब होकर गिर जाती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए एल्गल लाइमस्टोन और छाछ को पानी में समान मात्रा में मिलाकर पौधों पर छिडकना चाहिए. इसके अलावा रोगरोधी किस्मों को खेतों में उगाना चाहिए.

काली रुसी

आलू के पौधों में काली रुसी का प्रभाव इसके कंदों पर देखने को मिलता है. आलू के कंदों में यह रोग फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग के लगने से आलू के कंदों पर अनियमित आकार के काले धब्बे दिखाई देते हैं. इस रोग के बढ़ने पर पौधे की पत्तियां पीली होकर सूख जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों में रोग दिखाई देने के तुरंत बाद ट्राइकोडर्मा हरजियेनम की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. इसके अलावा कंदों की रोपाई उचित समय पर करनी चाहिए. अधिक तापमान होने पर पौधों की बार बार सिंचाई करें.

पपड़ी रोग

आलू के पौधों में पपड़ी रोग जीवाणु के माध्यम से फैलता है. इस रोग का प्रभाव आलू के कंदों पर दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर इसके कंद लाल भूरे दिखाई देने लगते हैं. जिसकी सतह पर काले फटे हुए धब्बे बन जाते हैं. जिससे पौधों की उपज काफी ज्यादा प्रभावित होती है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत की शुरुआत में गहरी जुताई करें. इसके अलावा पौधों में पंचगव्य का छिडकाव करना चाहिए.

झुलसा (लेट ब्लाईट)

आलू के पौधों में लेट ब्लाईट रोग का प्रभाव फफूंद की वजह से दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों के किनारे पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बनने लगते हैं. और पौधों की पत्तियों के नीचे की तरफ भूरे रंग का एक आवरण दिखाई देता है. रोग के बढ़ने पर इन धब्बों का आकार बढ़ जाता है. और सम्पूर्ण पत्तियां सूखकर नष्ट हो जाती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत की शुरुआत में गहरी जुताई करें. इसके अलावा खेत में पानी का भराव ना होने दे.

पाउडरी मिल्ड्यू

आलू के पौधों में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रभाव फफूंद की वजह से फैलता है. पौधों पर इस रोग का प्रभाव उसकी पतियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधे की पत्तियों पर सफ़ेद रंग के धब्बे दिखाई देते है. जिनका आकार रोग बढ़ने पर बढ़ जाता है. और सम्पूर्ण पत्तियों पर सफ़ेद रंग का पाउडर जमा हो जाता है. जिससे पौधों को प्रकाश मिलना बंद हो जाता है. और पौधे प्रकाश संश्लेष्ण की क्रिया करना बंद कर देते हैं. जिससे उनका विकास रुक जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर रोग दिखाई देने के तुरंत बाद रोग ग्रस्त पौधे को उखाडकर नष्ट कर दें. इसके अलावा पौधों पर लहसुन और सोडियम बाइकार्बोनेट को उचित मात्रा में मिलाकर पौधों पर छिडकना चाहिए.

कंदों की खुदाई और सफाई

आलू की अगेती किस्मों के कंद रोपाई के लगभग 80 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं. और पछेती किस्म के कंद रोपाई के लगभग 130 से 140 दिन बाद खुदाई के लिए तैयार हो जाते हैं. जिन्हें समय रहते मशीन या हाथों से खोदकर निकाला जाता है. वर्तमान में ज्यादातर किसान भाई इसके कंदों की खुदाई के लिए मशीन और बड़े हलों का ही इस्तेमाल करते हैं. इसके कंदों की खुदाई से लगभग चार या पांच दिन पहले खेत में पानी देकर मिट्टी को गिला कर लेना चाहिए.

आलू के कंदों की खुदाई अधिक गर्मी के शुरू होने से पहले ही कर लेनी चाहिए. क्योंकि अधिक गर्मी होने पर कंद खराब हो जाते हैं. कंदों की खुदाई करने के बाद उनकी सफाई की जाती है. इसके कंदों की सफाई के दौरान कंदों को साफ़ पानी से धोया जाता है. कंदों की सफाई करने के बाद उनके आकार के आधार पर छटनी की जाती है. जिसमें अलग अलग आकार के कंदों को अलग कर लिया जाता है.

इसके कंदों की छटनी के बाद इसके ज्यादा छोटे और बड़े आलुओं को अलग कर फिर से रोपाई करने के लिए शीत घर (कोल्ड स्टोरेज) में रखवा देते हैं. जबकि सामान्य आकार में दिखाई देने वाले कंदों को बोरों में भरकर बाजार में बेचने के लिए भेज देते हैं.

पैदावार और लाभ

रासायनिक तरीके से खेती करने के दौरान आलू की अगेती किस्मों से औसतन 250 और पछेती किस्मों से औसतन 400 क्विंटल के आसपास पैदावार प्राप्त होती हैं. जबकि जैविक तरीके से खेती करने के दौरान इस उपज में शुरुआत में 20 से 25 प्रतिशत तक कमी देखने को मिलती है. लेकिन लगातार जैविक तरीके से खेती करने पर इसका उत्पादन बढ़ जाता है. और लगभग तीन साल बाद रासायनिक तरीके से खेती करने के दौरान प्राप्त होने वाली पैदावार से ज्यादा उपज मिलने लगती हैं. और कंदों की गुणवत्ता भी काफी बेहतर मिलती है. जिससे किसान भाई को कम खर्च में काफी ज्यादा लाभ प्राप्त होता है.

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