अखरोट की खेती सूखे मेवे के रूप में की जाती है. जिनका इस्तेमाल खाने में किया जाता है. पहले अखरोट की खेती को लेकर कई तरह की मान्यता थी. जिस कारण लोग इसके पौधों को नही उगाते थे. लेकिन अब इसकी खेती व्यापक रूप से की जा रही हैं. अखरोट के अंदर कई तरह के पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. जिनका इस्तेमाल मनुष्य के लिए लाभदायक होता है. अखरोट का फल बाहर से काफी कठोर होता है. इसके फल के अंदर पाई जाने वाली गिरी का इस्तेमाल खाने में कई तरह से किया जाता हैं.
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खाने के अलावा अखरोट का इस्तेमाल और भी कई तरह किया जाता है. अखरोट के फलों से इसका तेल निकाला जाता है. इसके अलावा स्याही, रंजक, औषधि और बंदूकों के कुन्दे बनाने में भी इसका इस्तेमाल किया जाता हैं. दुनियाभर में चीन सबसे ज्यादा अखरोट का उत्पादन करता है, जबकि इसका निर्यात सबसे ज्यादा अमेरिका करता हैं. भारत में अखरोट का पौधा 40 से 90 फिट तक की ऊंचाई का पाया जाता हैं.
अखरोट की खेती के लिए पहाड़ी क्षेत्र सबसे उपयुक्त होते हैं. भारत में इसका उत्पादन मुख्य रूप से जम्मू और कश्मीर, हिमाचल, प्रदेश उत्तरांचल और अरुणाचल प्रदेश में किया जाता है. अखरोट के पौधे शीतोष्ण जलवायु में आसानी से विकास करते हैं. इसके पौधों को अधिक बारिश की जरूरत नही होती. इसके पौधे सर्दी के मौसम में आसानी से विकास कर लेते हैं. जबकि अधिक गर्मी का मौसम इनके लिए उपयोगी नही माना जाता.
अगर आप भी अखरोट की खेती कर अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं तो आज हम आपको इसकी खेती के बारें में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं.
उपयुक्त मिट्टी
अखरोट की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली उपजाऊ भूमि की जरूरत होती है. जलभराव और क्षारीय गुण रखने वाली भूमि में इसकी खेती नही करनी चाहिए. क्योंकि क्षारीय भूमि में इसका पौधा जल्द खराब हो जाता है. इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान 5 से 7 के बीच होना चाहिए.
जलवायु और तापमान
अखरोट की खेती के लिए शीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों को उपयुक्त माना जाता है. अखरोट की खेती के लिए अधिक तेज़ गर्मी और सर्दी दोनों ही अनुपयोगी होती है. अधिक तेज़ गर्मी होने से इसके फल और पौधों दोनों पर फर्क पड़ता हैं. जबकि सर्दियों में अधिक पाला पड़ने की वजह से पौधों का विकास रुक जाता हैं. इसलिए इसे सामान्य मौसम वाली जगहों पर उगाना चाहिए. इसके पौधों को अधिक बारिश की जरूरत नही होती.
अखरोट के पौधों को शुरुआत में विकास करने के लिए 20 से 25 डिग्री तापमान की जरूरत होती हैं. उसके बाद इसके पौधे को विकास करने के लिए गर्मियों में अधिकतम 35 और सर्दियों में न्यूनतम 5 डिग्री तापमान उपयुक्त होता है. इससे कम या अधिक तापमान होने पर पौधों का विकास रुक जाता है.
उन्नत किस्में
अखरोट की कई उन्नत किस्में मौजूद हैं. जिन्हें उनके अच्छे उत्पादन और अलग अलग वातावरण में उगाने के लिए तैयार किया गया हैं.
पूसा अखरोट
अखरोट की इस किस्म को समुद्र तल से 900 से 3000 मीटर तक की ऊंचाई वाली जगहों पर आसानी से उगाया जा सकता है. इसके पौधे तीन से चार साल बाद पैदावार देने लग जाते हैं. इसके फलों का छिलका काफी पतला होता है. इस किस्म के फलों का इस्तेमाल खाने में अधिक किया जाता है. इस किस्म के पौधों की ऊंचाई सामान्य पाई जाती है.
ओमेगा 3
अखरोट की ये एक विदेशी किस्म हैं. इस किस्म के पूर्ण रूप से तैयार पेड़ की ऊंचाई काफी ज्यादा पाई जाती है. इसके फल बाहर से गोल दिखाई देते हैं. इस किस्म के फलों का इस्तेमाल औषधि के रूप में किया जाता है. इसके फलों को दिल की बीमारी में सबसे उपयोगी माना जाता है. इसके फलों में तेल की मात्रा 60 प्रतिशत तक पाई जाती है.
कोटखाई सलेक्शन 1
अखरोट की इस किस्म के पौधे जल्दी फल देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के फलों का आकार सामान्य और छिलका पतला, समतल दिखाई देता है. इस किस्म के फलों की गिरी हल्की हरी और स्वादिष्ट होती है. जिसका इस्तेमाल भुनकर खाने में अधिक किया जाता है.
गोबिन्द
अखरोट की इस किस्म के पौधे सामान्य पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. अखरोट की इस किस्म को हिमाचल प्रदेश में सबसे ज्यादा उगाया जाता है. इस किस्म के फल सितम्बर माह के अंत तक पककर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के फलों से गिरी निकालना सबसे आसान होता हैं. इसकी गिरी का स्वाद काफी अनोखा होता है.
प्रताप
अखरोट की इस किस्म को अधिक उत्पादन देने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के फलों का आकार आयताकार दिखाई देता है. जिनका छिलका साफ़ और हल्के नीले रंग का दिखाई देता है. इस किस्म के फल कठोर पाए जाते हैं. इसकी गिरी खाने में काफी ज्यादा स्वादिष्ट होती है. इस किस्म के पेड़ों की लम्बाई अधिक पाई जाती है.
बजौरा सलेक्शन
अखरोट की इस किस्म को कुल्लू घाटी में उगाने के लिए तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे जल्द पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इसके फल छोटे, चिकने और पतले छिलके वाले होते हैं. इस किस्म का पौधा मध्यम आकार और अधिक दूरी तक फैला हुआ होता है. इस किस्म के फलों में गिरी की मात्रा सबसे ज्यादा पाई जाती है. जिस कारण इसका उत्पादन भी बाकी कई किस्मों से अधिक पाया जाता है.
पूसा खोड़
अखरोट की इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान केंद्र, ढांडा में तैयार किया गया है. इस किस्म के पौधे बाकी किस्मों के पौधों से लम्बाई में छोटे होते हैं. इस किस्म के पौधे रोपाई के लगभग 4 साल बाद पैदावार देने के लिए तैयार हो जाते हैं. इस किस्म के पौधे समुद्रतल से 900 से 3000 मीटर की ऊंचाई वाली सभी जगहों पर आसानी से उगाये जा सकते हैं.
लेक इंग्लिश अखरोट
अखरोट की ये एक विदेशी किस्म है. जिसके पौधों की लम्बाई अधिक पाई जाती है. इस किस्म के पौधे मध्यम समय में पैदावार देने के लिए जाने जाते हैं. इस किस्म के पौधे जम्मू कश्मीर में अधिक उगाये जाते हैं. जिनका उत्पादन बाकी किस्मों की तरह सामान्य पाया जाता है.
इनके अलावा और भी कई किस्में बाज़ार में मौजूद हैं, जिन्हें अलग अलग जगहों पर अधिक उत्पादन देने के लिए तैयार किया गया है. जिनमें ड्रेनोवस्की, के.12, प्लेसेंटिया, के.एन 5, चकराता सिलेक्शन, एस.एच. 23, 24, कश्मीर अंकुरित, एस.आर. 11, विल्सन फ्रैंकुयेफे और ओपक्स कॉलचरी जैसी काफी किस्में मौजूद हैं.
खेत की तैयारी
अखरोट के पौधों को खेत में गड्डे तैयार कर लगाया जाता हैं. गड्डों को तैयार करने से पहले खेत की मिट्टी पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें. उसके बाद खेत में रोटावेटर चला दें. इससे खेत में मौजूद ढ़ेले भुरभुरी मिट्टी में बदल जाते हैं. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल बना दें. ताकी बाद में बारिश के वक्त खेत में जलभराव जैसी समस्याओं का सामना ना करना पड़ें.
भूमि को समतल करने के बाद खेत में उचित दूरी रखते हुए दो फिट चौड़ाई और एक से डेढ़ फिट गहराई के गड्डे तैयार करते हैं. इन गड्डों को पंक्तियों में एक दूसरे से पांच मीटर की दूरी रखते हुए तैयार करते हैं. इसके अलावा प्रत्येक पंक्तियों के बीच भी पांच मीटर की दूरी होनी चाहिए.
गड्डों के तैयार होने के बाद उनमें उचित मात्रा में रासायनिक और जैविक उर्वरक को मिट्टी में मिलाकर वापस गड्डों में भर देते हैं. गड्डों की भराई के बाद उनकी गहरी सिंचाई कर दें. इन गड्डों को पौध रोपाई से लगभग दो महीने पहले तैयार किया जाता है. ताकि गड्डों की भराई के बाद गड्डों की मिट्टी अच्छे से अपघटित हो सके और मिट्टी में पोषक तत्व अच्छे से मिल सके.
पौध तैयार करना
अखरोट की पौध नर्सरी में रोपाई से लगभग एक साल पहले मई और जून माह में तैयार की जाती हैं. नर्सरी में इसकी पौध तैयार करने के लिए ग्राफ्टिंग विधि का इस्तेमाल किया जाता है. अखरोट की पौध ग्राफ्टिंग विधि से तैयार करने पर पौधों में मुख्य पौधे वाले सभी गुण पाए जाते हैं. इसके अलावा बीज से तैयार पौधे 20 से 25 साल बाद पैदावार देते हैं. जबकि ग्राफ्टिंग से तैयार पौधे कुछ साल बाद ही पैदावार देने लग जाते हैं.
ग्राफ्टिंग के माध्यम से पौध तैयार करने के लिए पहले किसी भी अखरोट के मूल पौधे की 5 से 7 महीने पुरानी शाखा के सभी पत्ते ग्राफ्टिंग करने से 15 दिन पहले तोड़ दें. उसके बाद पत्ती रहित शाखा को पौधे से हटाकर उसे एक तरफ से तिरछा काटकर किसी दूसरे जंगली पौधे के साथ जोड़कर अच्छे से बाँध दे. इसके अलावा V ग्राफ्टिंग विधि से भी इसकी पौध आसानी से तैयार की जा सकती है.
पौध रोपाई का तरीका और टाइम
नर्सरी में तैयार अखरोट की पौध की रोपाई खेत में तैयार किये गए गड्डों में की जाती है. इसके लिए गड्डों के बीचोंबीच एक और छोटा गड्डा तैयार किया जाता है. जिसमें नर्सरी में तैयार पौध को लगाया जाता है. पौध रोपाई से पहले तैयार किये गए गड्डों की अच्छे से सफाई कर उन्हें उपचारित कर लेना चाहिए. गड्डों को उपचारित करने के लिए बाविस्टीन या गोमूत्र का इस्तेमाल करना चाहिए. ताकि पौधों को शुरुआत में विकास के दौरान किसी तरह की समस्याओं का सामना ना करना पड़े. और पौधे अच्छे से विकास कर सके. अखरोट के पौधों की रोपाई के दौरान कभी भी एक ही किस्म के पौधों की रोपाई नही करनी चाहिए. क्योंकि इससे पौधों में परागण की क्रिया पर असर देखने को मिलता है.
अखरोट के पौधों की रोपाई सर्दियों के मौसम में की जानी चाहिए. सर्दियों के दौरान इसे दिसम्बर से मार्च माह तक उगा सकते हैं. इसके अलावा कुछ जगहों पर किसान भाई इसे बारिश के मौसम में भी उगाते हैं. लेकिन दिसम्बर में उगाना सबसे अच्छा माना जाता हैं. क्योंकि दिसम्बर में उगाने के बाद पौधों को काफी ज्यादा वक्त तक उचित मौसम मिलता हैं. जिससे पौधा अच्छे से विकास करता हैं.
पौधों की सिंचाई
अखरोट के पूर्ण रूप से तैयार पेड़ों को अधिक सिंचाई की जरूरत नही होती. लेकिन शुरुआत में पौधों को पानी की ज्यादा जरूरत होती है. इसके लिए शुरुआत में पौधों को गर्मियों के मौसम में सप्ताह में एक बार पानी जरुर देना चाहिए. जबकि सर्दियों के मौसम में पौधों को 20 से 30 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए. और सर्दियों में अधिक पाला पड़ने के वक्त पौधों को जल्दी जल्दी हल्का पानी देने से पौधों पर पाले का प्रभाव कम दिखाई देता है.
अखरोट के पौधे पूर्ण विकसित होने के बाद इसके पेड़ों को साल भर में 7 से 8 सिंचाई की ही जरूरत होती हैं. जिनमें से ज्यादातर सिंचाई पौधों पर फल लगने के दौरान ही की जाती है. इसके पौधे पर फूल खिलने के बाद उसमें पानी की कमी ना होने दें. क्योंकि पानी की कमी होने पर इसके फलों में बनने वाली गिरी पिलपिली रहा जाती है. जिससे पौधों की पैदावार काफी कम प्राप्त होती है.
उर्वरक की मात्रा
अखरोट के पौधों को भी बाकी बागवानी पौधों की तरह सामान्य रूप से उर्वरक की आवश्यकता होती है. इसके लिए शुरुआत में अखरोट के पौधों की रोपाई से पहले गड्डों की तैयारी के वक्त प्रत्येक गड्डों में 10 से 12 किलो गोबर की खाद और लगभग 100 से 150 ग्राम रासायनिक उर्वरक की मात्रा को मिट्टी में अच्छे से मिलाकर गड्डों में भर देना चाहिए. इसके अलावा खेत की मिट्टी में अगर जस्ता की कमी हो तो पौधों को हल्की मात्रा में जिंक भी देनी चाहिए. पौधों को उर्वरक की ये मात्रा जब तक उन पर फल ना लगे तब तक ही देनी चाहिए.
अखरोट के पौधे खेत में रोपाई के लगभग 4 साल बाद पैदावार देना शुरू करते हैं. जब अखरोट के पौधे फल देना शुरू कर दें तब उनको दी जाने वाली उर्वरक की मात्रा को बढ़ा देना चाहिए. पूर्ण विकसित पौधे पर फल बनने शुरू होने बाद उन्हें उर्वरक की मात्रा पौधों पर फूल बनने के एक महीने पहले देनी चाहिए. इसके पौधे को खाद उसके तने से एक फिट की दूरी छोड़ते हुए दो फिट चौड़ा घेरा बनाकर देना चाहिए. फल लगने के दौरान पौधे को साल में लगभग 20 से 25 किलो जैविक खाद के रूप में पुरानी गोबर की खाद और लगभग आधा किलो रासायनिक खाद की मात्रा को मिट्टी में मिलाकर देना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
अखरोट के पौधों में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से किया जाता है. इसके लिए शुरुआत में पौधों की रोपाई के लगभग एक महीने बाद उनकी पहली गुड़ाई हल्के रूप में कर पौधों के पास मौजूद खरपतवार को हटा देना चाहिए. पहली गुड़ाई के बाद इसके पौधों की जड़ों के पास दिखाई देने वाली खरपतवार को हटा देना चाहिए. और उसके बाद पौधों के पास जब भी कोई खरपतवार दिखाई दें तो उन्हें निकाल देना चाहिए.
अखरोट के पौधे बड़े होने के बाद उन्हें ज्यादा गुड़ाई की जरूरत नही होती. इसके पूर्ण रूप से तैयार एक वृक्ष को साल में दो से तीन बार गुड़ाई की जरूरत होती है. जो पौधों को उर्वरक देने और मौसम परिवर्तन के दौरान की जाती है. इसके अलावा खेत में खाली बची जमीन में खरपतवार नियंत्रण के लिए बारिश के मौसम के बाद जब खेत की मिट्टी सुखी हुई दिखाई देने लगे तब खेत की जुताई कर देनी चाहिए.
पौधों की देखभाल
अखरोट के पौधों से उत्तम और अच्छी पैदावार लेने के लिए पौधों की देखभाल करना जरूरी होता है. इसके लिए शुरुआत में पौधों के तने पर एक मीटर की ऊंचाई तक किसी भी तरह की शाखा को जन्म ना लेने दें. इससे पौधों का आकार अच्छा दिखाई देता है, और तना भी मजबूत बनता है.
इसके अलावा जब पौधे फल देना शुरू कर दें तब पौधों पर दिखाई देने वाली रोगग्रस्त और सूखी हुई डालियों को काटकर हटा दें. अगर किसान भाई इसके पौधों की ऊंचाई कम रखना चाहता है तो वो इसके उपर की तरफ बढ़ने वाली शाखा की कटाई कर दें. इससे पौधा अपने चारों तरफ फैलता रहता है.
अतिरिक्त कमाई
अखरोट के पौधे खेत में लगाने के चार साल बाद पैदावार देना शुरू करते हैं. इस दौरान किसान भाई पेड़ो के बीच खाली पड़ी जमीन में कम समय की बागवानी फसल (पपीता), सब्जी, औषधी और मसाला फसलों को आसानी से उगा सकता हैं. जिससे किसान भाइयों को उनकी खेत से लगातार पैदावार भी मिलती रहती है. और उन्हें किसी तरह की आर्थिक परेशानियों का सामना भी नही करना पड़ता.
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
अखरोट के पौधों में कुछ ऐसे रोग देखने को मिलते हैं. जिनकी रोकथाम वक्त पर ना की जाए तो पौधों के साथ साथ पैदावार को भी काफी नुक्सान पहुँचता है.
जड़ गलन
अखरोट के पौधों में जड़ गलन रोग का प्रभाव खेत में जलभराव या अधिक समय तक नमी बने रहने की वजह से दिखाई देता हैं. पौधों की जड़ों में लगातार नमी बनी रहने की वजह से फफूंद जन्म ले लेती हैं. जिससे शुरुआत में पौधा मुरझाने लगता है. और कुछ दिन बाद पौधे की पत्तियां सूखकर गिरने लगती है. जिससे पौधा पूरी तरह से नष्ट हो जाता हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जलभराव ना होने दें. इसके अलावा पौधों जल भराव होने पर पौधों की जड़ों में बोर्डों मिश्रण का छिडकाव करना चाहिए.
पत्ती खाने वाले कीट
अखरोट के पौधों में पत्ती खाने वाले कीट पौधे की पत्तियों को खाकर उन्हें नुक्सान पहुँचाते हैं. जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है. इस रोग का प्रभाव पौधों पर अधिक होने से इसकी पैदावार को काफी ज्यादा नुक्सान पहुँचता है. इसकी रोकथाम के लिए पौधों पर मेलाथियान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए.
गोंदिया रोग
इसके पौधों पर गोंदिया रोग का प्रभाव पेड़ो को दी जाने वाली उर्वरक की असंतुलित मात्रा की वजह से लगता है. इस रोग के लगने से पौधों पर चिपचिपा गोंद दिखाई देने लगता है. रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन और व्लाइटाक्स की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए. और रोगग्रस्त डालियों को काटकर हटा देना चाहिए.
तना बेधक
अखरोट के पौधों में तना बेधक कीट रोग का प्रभाव किसी भी अवस्था में दिखाई दे सकता है. इस रोग के कीट की सुंडी पौधे के तने में घुसकर उसे अंदर से खाकर नष्ट कर देती हैं. रोग बढ़ने पर पौधे जल्द ही सुखकर नष्ट हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए जब पौधे की जड़ या किसी शाखा पर छिद्र दिखाई देने लगे तब उनमें डाईमेथोएट के घोल को डालकर चिकनी मिट्टी से बंद कर दें. इससे रोग का कीट अंदर ही मर जाता है.
फलों की तुड़ाई
अखरोट के फलो की तुड़ाई जब अखरोट के फलों की ऊपरी छाल फटने लगे तब करनी चाहिये. अखरोट के फल पकने के बाद खुद टूटकर गिरने लगते हैं. जब पौधे से लगभग 20 प्रतिशत फल गिर जाएँ तब एक लंबा बाँस लेकर पौधे से इसके फल गिरा लेने चाहिए. अखरोट के नीचे गिरे हुए फलों को एकत्रित कर उन्हें पौधे की पत्तियों से ढक देना चाहिए. ताकि फलों की छाल आसानी से हटाई जा सके. इसके फलों में अधिक चमक बनाने के लिए इन्हें एक विशेष प्रकार के घोल में डुबोकर रखा जाता है. उसके बाद इसके फलों को धूप में सुखाया जाता है.
पैदावार और लाभ
अखरोट के पौधे सामान्य रूप से 20 से 25 साल बाद पैदावार देना शुरू करते हैं. लेकिन वर्तमान में तैयार की गई विभिन्न किस्मों के पौधे रोपाई के तीन से चार साल बाद ही पैदावार देना शुरू कर देते हैं. जो 20 से 25 साल बाद सालाना औसतन 40 किलो प्रति पौधे की दर से पैदावार देते हैं. जिनका बाज़ार भाव भी काफी अच्छा मिलता हैं. जिससे किसान भाइयों की अच्छीखासी कमाई हो जाती हैं.
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